गुरुवार, 3 जुलाई 2008

प्रश्न और भ्रांतियाँ (FAQs)

मैं यहां कुछ ऐसे प्रश्नों के जवाब देना चाहता हूँ जो कि भ्रांतियों के रूप में फैले हुए हैं। ऐसे प्रश्न उस समय दिमाग में आते हैं जब हमें प्रभु यीशु का सुसमाचार सुनने को मिलता है और कभी कभी तो तब जब हमें यकीन भी हो जाता है कि यीशु मसीह ही सच्चा परमेश्वर है फिर भी उसके पीछे चलने का निर्णय लेने में हमें दिक्कत महसूस होती है। कई बार यह निर्णय हम नहीं ले पाते क्योंकि हमारे मन में कई सवाल उठते हैं पर उनके उत्तर हमें नहीं मिलते हैं या फिर उनके गलत जवाब हम बाइबल के अलावा अन्य स्त्रोतों से सुनते रहते हैं।

बाइबल से परमेश्वर द्वारा मुझे व्यक्तिगत तौर पर सिखाई गई सच्चाईयों के अनुसार, मैं इन प्रश्नों का उत्तर देने की कोशिश कर रहा हूँ।

इससे पहले कि आप आगे पढ़ना शुरू करें, एक और बात को समझना ज़रूरी है कि आगे लिखे उत्तर सामान्य ज्ञान की तरह ही इस्तेमाल किये जाने चाहिए। ये किसी भी तरह से बाइबल का या मसीही विश्वास का एकमात्र उपाय नहीं है बल्कि ये सब मेरे अनुभव, समझ और पवित्र आत्मा की अगुवाई से लिए गए निर्णयों का सारांश है जो परिस्थितियों को समझने में और उसमें सही निर्णय लेने में आपकी सहायता करेगी। ठीक निर्णय लेने के लिए हरेक परिस्थिति में आपको भी परमेश्वर के वचन – बाइबल, अपने विवेक, प्रार्थना और पवित्र आत्मा की नेतृत्व का ही सहारा लेना होगा।

मैंने जान लिया है कि यीशु मसीह ही जीवित परमेश्वर है। मैंने उसकी प्रार्थनाओं के उत्तर देने की सामर्थ को भी देखा है। पर मैं उसका अनुसरण करने का निर्णय नहीं ले सकता/सकती। मेरे परिवार वाले, रिश्तेदार और मित्र क्या कहेंगे?

हाँ। यदि धर्म की नज़र से देखा जाए तो सच में यह बहुत कठिन कार्य है। परंतु यदि आप इसे व्यक्तिगत सोच (और निर्णय) की नज़र से देखेंगे तो आप पाएँगे कि आप सिर्फ परमेश्वर से प्रेम करने की बात कर रहे हैं, धर्म परिवर्तन की नहीं। सकारात्मक जीवन परिवर्तन के आपके निर्णय को कोई भी गलत नहीं ठहरा सकता। और सोचिए कि यदि आप परमेश्वर से प्रेम करने लगें और आपकी सारी बुरी बातें खत्म हो जाएँ और आप एक साफ सुथरा और आशीषों से भरा जीवन बिताने लगें तो कौन आपका विरोध करेगा?

मैं दो बातें आपको और बताना चाहता हूँ।

पहली ये कि हमारा उद्धार (मोक्ष) व्यक्तिगत चुनाव है; जैसे किसी खास तरह का भोजन खाना या खास तरह के रंग का कपड़ा पहनना। इसमें हमारी इच्छा और निर्णय ही सर्वोपरि होते हैं। वैसे भी भारत के संविधान में दिये गये मौलिक अधिकारों में से यह भी एक है।

भरोसा कीजिए, न तो कोई आपके साथ पैदा हुआ था और न ही कोई आपके साथ मरेगा। न ही कोई न्याय सिंहासन के सामने आपके बदले पापों का लेखा जोखा देगा। हम सब को यह अकेले ही करना है।

दूसरी बात ये कि जब हम गलत (ईश्वर, परिवार और समाज को नापसंद) काम करते हैं – जैसे शराब और सिगरेट का सेवन करना, वासनामयी विचार करना, झूठ बोलना, घमण्ड करना इत्यादि, तो क्या हम किसी से पूछकर करते हैं। नहीं, वो सब बातें हम अपने आप करने लगते हैं। तो फिर ईश्वरीय निर्णय लेने में किसी से डरने की या पूछने की क्या ज़रूरत है? सोचिए, यदि आप उद्धार पा लें, तो शायद औरों को भी नर्क की ओर जाने से रोक सकें।

कोई नर्क में नहीं जाना चाहता परंतु अनजाने में सब उसी तरफ जा रहे हैं। जब तक कि हम अपना जीवन जीने के मूल्य, उद्देश्य, तरीका तथा विश्वास न बदल लें, हम सबकी एक ही नियति है।

मेरे सभी दोस्तों, सहकर्मियों और रिश्तेदारों की ओर से आये विरोध को सहते हुए जब मैंने निरंतर विश्वास किया तो मेरे परिवर्तित जीवन को देखकर कितने ही जीवन बदल गये और आज परमेश्वर से प्रेम करते हैं तथा शांतिमय-सुखमय जीवन जी रहे हैं। जो विश्वास नहीं भी करते, वे भी मेरे जीवन के मूल्यों और आदर्शों के कारण मेरी इज़्ज़त ज़रूर करते हैं।

परमेश्वर यही आपके लिए भी कर सकता है। ज़रूरत है तो सिर्फ इस बात की कि हम आज्ञाकारिता के साथ परमेश्वर पर विश्वास कर जीवन यापन करें।

क्या यीशु मसीह में विश्वास करने के बाद हमें अपना नाम बदलना होगा?

नहीं! परमेश्वर व्यर्थ में नाम बदलने का इच्छुक नहीं है।

हमने अपना नाम नहीं बदला है। मेरा नाम बृजेश है, मेरी पत्नी का नाम प्रेरणा है और हमारा बेटा प्रांजल है।

हालांकि बाइबल में कई ऐसे संदर्भ हैं जिनमें परमेश्वर ने नाम परिवर्तित किये, परन्तु उन सभी जगहों पर परमेश्वर का उद्देश्य सिर्फ नाम बदलना नहीं था अपितु ये कि वो विश्वास के और बोलचाल के नये आयाम सिखाये। उसने ऐसा कई जगहों पर किया जैसे कि अब्राम का नाम अब्राहम, सारै का नाम सारा, शमौन का नाम पतरस (पीटर), याकूब का नाम इस्रायल आदि। यह सब उसने बाइबल के एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त को समझाने के लिए किया।

“देख, मेरी वाचा तेरे साथ बन्धी रहेगी, इसलिये तू जातियों के समूह का मूलपिता हो जाएगा। इसलिये अब से तेरा नाम अब्राम न रहेगा, परन्तु तेरा नाम अब्राहम होगा; क्योंकि मैं ने तुझे जातियों के समूह का मूलपिता ठहरा दिया है। मैं तुझे अत्यन्त फलवन्त करूँगा, और तुझ को जाति जाति का मूल बना दूँगा, और तेरे वंश में राजा उत्पन्न होंगे।

[उत्पत्ति 17:4-6]

उपरोक्त वचन में बाँझ दम्पत्ति को जातियों के माता-पिता बनाने का वायदा कर उनको एक दूसरे को ऐसे ही नामों से पुकारने की बात सिखाई। परमेश्वर ने नाम इसलिए बदले ताकि हम सीख सकें कि परमेश्वर हमारे बोलचाल में, हमारे विचारों में तथा हमारे विश्वास में परिवर्तन करना चाहता है ताकि हम नकारात्मक विचारों और अल्पविश्वास को छोड़कर सकारात्मक हो जाएँ। परमेश्वर का विशाल विश्वास पाएँ और उसी के द्वारा जीवन बिताएँ।

यह किसी भी तरह इस बात की ओर इंगित नहीं करता है कि हम अपना नाम बदलें। बाइबल कहती है कि परमेश्वर हमें हमारे नाम से जानता है और उसने हमारा नाम जीवन की किताब में लिखा है, तो फिर क्यों इसे बदलें।

…तुम्हारे नाम स्वर्ग पर लिखे हैं।
[लूका 10:20]

वो हमारे दिलों (मनों) को जानने वाला ईश्वर है और हमारे विश्वास तथा व्यवहार को भी जानता है। नाम बदलने जैसे अवांछित विषयों में समय खराब करने के बजाय यह बेहतर है कि हम अपने विश्वास को मज़बूत करने की दौड़ दौड़ें।

हमारे धार्मिक त्यौहारों का क्या होगा? क्या हम उन्हें नहीं मना सकते?

मैं सोचता हूँ कि यह एक वस्तुनिष्ठ प्रश्न नहीं है इसलिये मैं कोई एक जवाब नहीं दूँगा।

प्रथमतया, हमारा प्रश्न ये नहीं होना चाहिए कि त्यौहार मना सकते हैं या नहीं, बल्कि ये कि इसे क्यों मनाया जाता हैं और हम इसे क्यों मनाना चाहते हैं। यदि आप इन प्रश्नों के उत्तर जान लेंगे तो संभव है कि उपरोक्त प्रश्न का उत्तर खोजने ज़रूरत ही न पड़े।

फिर भी यदि इस सवाल के जवाब में मैं आपको यही सलाह दूँगा कि आप जो भी त्यौहार मनाना चाहते हैं उसके उन सभी कार्यों से बचें जिनमें आप सच्चे और जीवित परमेश्वर की इच्छाओं का सम्मान नहीं कर सकते। ऐसे मौकों पर आप अपने परिवार और मित्रों के साथ समय बिता सकते हैं और प्रेम के साथ उनको परमेश्वर की सच्चाइयों के बारे में और बता सकते हैं।

मेरा सोचना है कि ज्यादातर त्यौहारों के पीछे (चाहे वो किसी भी धर्म के क्यों न हो) कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है। कुछ सामान्य कारणों से मनाए जाते हैं और कुछ धार्मिक कारणों से। मैं यहाँ धर्म की बात नहीं कर रहा हूँ इसलिए धार्मिक त्यौहारों को मनाने की तरफदारी नहीं करूंगा पर बाकी त्यौहार मनाने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। फसल की कटाई जैसे त्यौहार पर मनोरंजन करने और मिलने जुलने के समय, परमेश्वर के भजन और उसका धन्यवाद कर आप पवित्र जीवन जी सकते हैं और अपने परिजनों को सुसमाचार सुना सकते हैं। ऐसे त्यौहार मनानें में क्या बुराई हो सकती है?

लोग उद्देशय को भूलकर रीतिरिवाजों में लग जाते है और ईश्वर का ही तिरस्कार कर बैठते हैं। यह एक भयंकर गलती है। धर्म या त्यौहार हमें परमेश्वर से दूर लेकर जाए ऐसा नहीं होना चाहिए, लेकिन हो ऐसा ही रहा है।

आज सभी त्यौहारों को व्यवसायिक रूप दे दिया गया है जो कि बेहद दुखद बात है। उदाहरण के तौर पर ईसाई त्यौहार ‘बड़ा दिन’ (क्रिसमस) को ही ले लीजिए। दुनियाभर में प्रभु यीशु के जन्मोत्सव के उपलक्ष में यह पर्व मनाया जाता है। दुःख की बात ये है कि ज्यादातर आयोजनों में बाकी सब चीजों का समावेश तो किया जाता है परंतु प्रभु यीशु को ही उससे दूर कर दिया जाता है। पार्टी, सजावट, नृत्य और मजे के सारे सामान जुटाये जाते हैं पर जिसके जन्म का ये सारा उत्सव है उसकी शिक्षाओं का मज़ाक बना दिया जाता है। ऐसे त्यौहार मनाने से अच्छा है कि हम इसे न ही मनाएँ क्योंकि उन्मुक्त होकर नाचते गाते समय परमेश्वर से दूर हो जाना कहाँ तक तर्कसंगत हो सकता है।

ऐसा नहीं होना चाहिए। चाहे आपका प्रश्न किसी भी धर्म के त्यौहार के बारे में क्यों न हो, यही सिद्धान्त उस पर लागू होता है। सोचिए, क्या आप प्रभु यीशु को उसके द्वारा महिमा दे सकते हैं, अगर नहीं तो फिर किसके लिए आप इसे मनाना चाहते हैं?

निचोड़ में हम कह सकते हैं कि हमें बुद्धिमानी से निर्णय लेते हुए ऐसा जीवन बिताना चाहिए जो बहुतों के लिए परमेश्वर के प्रेम का आदर्श बन सके।

और बाकी रीतिरिवाज़? क्या हम अपने से बड़ों के पैर नहीं छू सकते?

मैं समझता हूँ कि संस्कार तथा धार्मिक रीतिरिवाजों में अन्तर करने की समझ हमें परमेश्वर से माँगनी चाहिए। हमें पाखंड से तो दूर रहना चाहिए पर अपने किन्हीं संस्कारों को छोड़ने की ज़रूरत हमें तब ही पड़ती है जब वो हमें परमेश्वर के मार्ग पर चलने में रुकावट डालें अन्यथा नहीं। इसके अलावा रूढ़ीवाद से ऊपर उठना आत्मिक जीवन से अलग बात है।

आपके प्रश्न के जवाब में मैं कहूँगा कि सामान्य तौर पर आप ऐसा कर सकते हैं पर इसमें किसी भी तरह से (अपने विचारों से अथवा विश्वास से) आप अपने आदरणीय को परमेश्वर का स्थान न दें।

कुछ रीतिरिवाजों में पति को परमेश्वर का दर्जा दिया जाता है, जबकि यह बात सत्य नहीं है। उस संदर्भ में जब एक पत्नी अपने पति के पैर छूती है तो वह अपने विचारों में परमेश्वर का स्थान अपने पति को देने लगती है जो कि एक पाप है। पति सिर्फ एक इंसान है जो कि परमपिता परमेश्वर की एक रचना है, और उसके चरण ईश्वर का दर्ज़ा देकर नहीं छुए जाने चाहिए।

लेकिन, यदि सिर्फ आदरवश कोई पत्नी अपने पति के पैर छुए तो इसे गलत नहीं ठहराया जा सकता। बाइबल भी पति को परिवार का अगुवा (सिर) मानकर पत्नी को उसके समक्ष नम्र बनना सिखाती है, परंतु साथ ही पति को मसीह जैसा प्रेम अपनी पत्नी से करने के लिए भी आज्ञा देती है।

उसी प्रकार बच्चों का अपने से बड़ों का पैर छूना और उनसे परमेश्वर के आशीष-वचन पाना गलत नहीं है। बाइबल हमें अपने आपको छोटा बनाने के विषय में भी शिक्षा देती है।

बाइबल की शिक्षाओं के आधार पर परमेश्वर का भय मानते हुए यदि आप प्रार्थना के साथ पवित्र आत्मा की अगुवाई में सही निर्णय लें तो परमेश्वर आपको आशीष ही देगा।

शादी और अन्य समारोह के बारे में आपके क्या विचार हैं? हमारा बाकी सारा परिवार अभी भी पुराने धार्मिक रीतिरिवाज मानता हैं, तो क्या हमें उनका विरोध करना पड़ेगा?

यह भी व्यक्तिपरक श्रेणी का एक सवाल है। मैं फिर कहूँगा कि आपको स्वयं ही परमेश्वर की अगुवाई में यह निर्णय लेना पड़ेगा क्योंकि हरेक परिस्थिति पर निर्भर करता है कि आपको क्या करना चाहिए।

आप दोनों ही छोर पर लोग पाएँगे – कुछ वे जो अपने परिवार और समाज के सामने बगावत करके प्रभु को महत्व देते हैं (जिसमें कोई गलती तो नहीं है, परंतु यह दुस्साहस है) और दूसरे तरह के लोग जो पूरी तरह से परिस्थितियों के वश में हो जाते हैं और वो सभी काम करते हैं जो कि जीवित परमेश्वर को महिमा नहीं देते। मेरे विचार में परिस्थिति के अनुसार हमारा निर्णय ऐसा होना चाहिए कि जिससे हम परमेश्वर की महिमा से तो समझौता न करें पर किसी तरह से अपने परिवार तथा समाज से भी ऐसे टूट न जाएँ कि फिर हमें उन्हें सुसमाचार सुनाने का मौका ही न मिले।

शादी इत्यादि समारोहों के तरीके से ज्यादा जैसे पौलुस कुरिन्थियों कि कलीसिया को समझाता है कि विश्वासी और अविश्वासी असमान जुए में न जुतें, यह बात समझना ज़रूरी है। विवाह एक जिन्दगीभर का निर्णय है और यह एक परमेश्वर के विश्वासी व्यक्ति के साथ ही किया जाना चाहिए।

अविश्वासियों के साथ असमान जूए में न जुतो, क्योंकि धार्मिकता और अधर्म का क्या मेल-जोल ? या ज्योति और अन्धकार की क्या संगति ?
[2 कुरिन्थियों 6:14]

खासतौर पर पहली पीढ़ी के विश्वासियों के लिए मेरा सुझाव है कि हो सके तो वे अपने पूर्वमत से मसीही विश्वास में आए विश्वासी व्यक्ति से ही वैवाहिक संबंध बनाएँ। ऐसा व्यक्ति आपकी किसी किसी बात को न कर पाने की सीमाओं को और अन्य पारिवारिक मूल्यों को समझ सकता है। इस बात से मैं कोई भेदभाव पैदा करने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ पर मैं सोचता हूँ कि पहले से ईसाई परिवार में जन्मे लड़की या लड़के के लिए किसी दूसरे धर्म में जन्में व्यक्ति की भावनाओं को तथा उसके अन्य अविश्वासी रिश्तेदारों के रीतिरिवाजों से सामंजस्य बिठाने में दिक्कत आ सकती है। फिर भी, यह कोई सिद्धान्त नहीं है, बस एक सुझाव है। हो सकता है कि परमेश्वर की आपके विषय में कुछ और ही योजना हो इसलिए पवित्र आत्मा की अगुवाई ही सर्वोत्तम उपाय है।

किसी भी हाल में शादी की बात की शुरूआत में ही अपने विश्वास की गवाही सच्चाई के साथ बताकर ही बात आगे बढ़ानी चाहिए। ऐसे में संभव है कि यदि परमेश्वर की उस व्यक्ति के उद्धार की योजना आपके जीवन से ही जुड़ी हो तो आपका निर्णय ठीक साबित होगा।

इसके अतिरिक्त जन्म तथा मृत्यु सम्बंधित अन्य समारोहों के विषय में मैं इतना ही कहूँगा कि मसीही विश्वास और बाइबल के सिद्धान्तों से समझौता न करें।

बाकी दाह-संस्कार और दफनाने के विषय में मैं कोई खास चिन्ता नहीं करता हूँ। वे लोग जो सोचते हैं कि परमेश्वर हमारे इस नश्वर शरीर को ही हमारे फिर जी उठने के समय इस्तेमाल करेंगे, संभवतया परमेश्वर को सीमित करते हैं। मैं शरीर में जी उठने का विरोध नहीं कर रहा हूँ। मैं पूरा पूरा विश्वास करता हूँ कि हमारे पुनरुत्थान के समय हमें अविनाशी शरीर दिये जायेंगे जो कभी नाश होने के नहीं जबकि हमारे दुनियावी शरीर तो नश्वर ही हैं। जो परमेश्वर मिट्टी में मिले शरीर से नया शरीर पैदा कर सकता है वो मिट्टी में मिल चुकी राख से भी ऐसा कर सकता है, उसके लिए कुछ मुश्किल नहीं है। यदि सबके साथ मिलकर एक मन होकर मृत शरीर को दफनाया जा सके तो ठीक है अन्यथा इस विषय में धार्मिक अथवा सामाजिक विवाद खड़ा करना कोई समझदारी नहीं है।

2001 में मेरी बहन का विवाह हिंदू रीति से हुआ और 2003 में स्वयं मेरा और प्रेरणा का बौद्ध रीति से, क्योंकि हमारा बाकी परिवार विश्वास में नहीं था। फिर भी हमने हरसंभव प्रयास किया कि किसी भी बात में परमेश्वर प्रभु यीशु के विरुद्ध कोई पाप न हो। मार्च 2006 में दादाजी का और मई 2006 में पापा का देहान्त हो जाने पर हमने उनका दाहसंस्कार किया।

पर मेरा प्रेम सम्बंध एक अविश्वासी से है, और हो सकता है यह प्रभु की योजना हो ताकि मैं उसे विश्वास में ला सकूँ और एक आत्मा नाश होने से बच जाए।

ऐसा हो सकता है पर ऐसा नहीं होने की संभावना ज्यादा है।

यह बात परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के बहाने हमें परमेश्वर से दूर ले जाने की शैतान की एक चाल भी हो सकती है। परमेश्वर तो आत्माओं को बचाना चाहता है पर उसके लिए वह अपने सिद्धान्तों के विपरीत कोई काम नहीं करेगा। जब वो हमसे कहता है कि असमान जुए में न जुतो तो वह चाहता है कि हम इस बात को मानें और इसका पालन करें।

और यदि आप शादी से पहले अपने प्रेम प्रसंग के दौरान अपने साथी को परमेश्वर के प्रेम के विषय में नहीं बता सके तो शादी के बाद ऐसा कर पाने की संभावना तो और भी क्षीण है। लड़कों के लिए तो यह फिर भी संभव हो सके पर खासतौर पर भारतीय समाज में लड़कियों के लिये तो अभी भी यह मुश्किल ही है। ज्यादातर ऐसा होता है कि जिस बात में पति और उसके परिवार वाले विश्वास करते हैं, उस परिवार की बहू भी उसी बात को मानने के लिए बाध्य हो जाती है।

ऐसा करके आप कहीं अपनी आत्मिक उन्नति के मार्ग में स्वयं रोड़ा तो नहीं लगा रहे हैं?

मैंने सुना है कि ईसाई लोग जबरन या पैसे इत्यादि से लुभाकर धर्म-परिवर्तन करते हैं। क्या ये बात सच है?

बाइबल इस विषय में कभी ऐसा नहीं सिखाती है कि ज़बरन अथवा लुभाकर किसी का धर्म परिवर्तन किया जाए। बाइबल और इसमें वर्णित परमेश्वर का धर्म से कोई विशेष नाता नहीं है। इतिहास में यदि ऐसा हुआ हो तो अलग बात है पर यदि आज भी कोई ऐसा करता है तो यह सच में खेदजनक बात है।

मेरा मानना है कि हमारा परमेश्वर धार्मिक नहीं अपितु आत्मिक है। और उसका उद्देश्य आत्माओं को पाप तथा मृ्त्यु से बचाना है। परमेश्वर हमसे प्रेम करता है और उस प्रेम के निमित्त वो हमको जीवन परिवर्तन कर (पापों से मन फिराकर) उससे प्रेम संबंध बनाने को लिये बुलाता है।

यदि हम उसके सच्चे चेले हैं तो धर्म-परिवर्तन हमारे लिए आखिरी बात होगी जो हम करना चाहेंगे। धर्म-परिवर्तन एक छलावा है, ढोंग है, दिखावा है जिससे कुछ हाँसिल नहीं हो सकता। हमारे अन्तःकरण का परिवर्तन ही सच्चा परिवर्तन है।

परमेश्वर आत्मा है, और अवश्य है कि उसकी आराधना करनेवाले आत्मा और सच्चाई से आराधना करें।
[युहन्ना 4:24]

प्रभु यीशु ने किसी धर्म की शुरूआत नहीं की बल्कि उन्होनें अपने प्रेम तथा मोक्ष का सुसमाचार इस दुनिया को देने के लिये कहा है ताकि दुनिया के छोर छोर से जातिगत, धर्मगत भेदभाव और रंगभेद से ऊपर उठकर सब लोग अनंत जीवन पाएँ।

क्या ये बात सच है कि कई ईसाई लोग इंसान का माँस खाते हैं?

हाह। पता नहीं ये बात कहाँ से लोगों के दिमाग में आई, पर यह बात शत प्रतिशत गलत है।
बाइबल में इस विषय में जो एकमात्र उल्लेख है वह प्रभु यीशु का अपने बलिदान के बारे में वो कथन है जिसमें उन्होंने दृष्टांत के तौर पर इसको समझाया।

"जीवन की रोटी जो स्वर्ग से उतरी, मैं हूँ। यदि कोई इस रोटी में से खाए, तो सर्वदा जीवित रहेगा; और जो रोटी मैं जगत के जीवन के लिए दूँगा, वह मेरा मांस है। इस पर यहूदी यह कहकर आपस में झगड़ने लगे, “यह मनुष्य कैसे हमें अपना मांस खाने को दे सकता है ?” यीशु ने उनसे कहा, “मैं तुम से सच सच कहता हूँ कि जब तक तुम मनुष्य के पुत्र का मांस न खाओ, और उसका लहू न पीओ, तुम में जीवन नहीं। जो मेरा मांस खाता है और मेरा लहू पीता है, अनन्त जीवन उसी का है; और मैं उसे अंतिम दिन फिर जिंदा कर दूँगा। क्योंकि मेरा मांस वास्तव में खाने की वस्तु है और मेरा लहू वास्तव में पीने की वस्तु है। जो मेरा मांस खाता और मेरा लहू पीता है वह मुझ में स्थिर बना रहता है, और मैं उस में। जैसा जीवते पिता ने मुझे भेजा, और मैं पिता के कारण जीवित हूँ, वैसा ही वह भी जो मुझे खाएगा मेरे कारण जीवित रहेगा”
[युहन्ना 6:51-57]

उपरोक्त कथन के द्वारा प्रभु यीशु एक बहुत गहरी बात अपने चेलों को समझा रहे थे जो कि मांस और लहू से कहीं बढ़कर है। वो अपने कष्ट, मृत्यु तथा पुनरुत्थान के विषय में और लहू बहाकर पापों की क्षमा के विषय में बात कर रहे थे।

बाइबल में तो कौन सा खाना खा सकते हैं और कौन सा नहीं इसका भी स्पष्ट विवरण पुराने नियम में मिलता है।

ऊपर लिखे बाइबल वचन के अलावा बाइबल में और कोई उल्लेख नहीं है जिससे किसी को यह गलतफहमी भी हो सके कि मसीही विश्वासी इंसान का मांस खाते हैं।


क्या मसीही विश्वास में माँसाहारी (नॉनवेज) खाने पर जोर दिया जाता है?

नहीं। यह एक भ्रांति है, और इस बात में कहीं कोई सच्चाई नहीं है। मेरी पत्नी प्रेरणा वेजीटेरियन (शाकाहारी) है और पिछले 8 सालों के मसीही विश्वास में उसने कभी भी मांस का सेवन नहीं किया, और मेरे विचार में वो प्रभु से प्रेम करने वाली और उसका भय मानकर जीवन यापन करने वाली महिला है।

बाइबल में लिखा है कि कोई खास वस्तु खाना अथवा न खाना हमें स्वर्ग के राज्य के निकट नहीं ला सकता बल्कि हमारे कुछ खाने से किसी नये विश्वासी भाई या बहिन को ठोकर लगती हो तो बेहतर है कि हम ऐसा भोजन न खायें।

भोजन हमें परमेश्वर के निकट नहीं पहुँचाता। यदि हम न खाएँ तो हमारी कुछ हानि नहीं, और खाएँ तो कुछ लाभ नहीं। परन्तु सावधान! ऐसा न हो कि तुम्हारी स्वतंत्रता कहीं निर्बलों के लिये ठोकर का कारण न हो जाए।

[1 कुरिन्थियों 8:8, 9]

ऐसा मैंने भी किया और कई साल तक मांस इत्यादि को हाथ नहीं लगाया ताकि प्रेरणा के विश्वास को ठोकर न लगे। उसकी आत्मा को स्वर्ग के राज्य में लाने और उसे विश्वास में मज़बूत करने के लिये जो ज़रूरी था मैंने किया ताकि वो मेरे उसके प्रति मसीही प्रेम को देख सके और उस परमेश्वर में विश्वास करे जो उसके पाप क्षमा कर उसे भी अनंत आशीषें देना चाहता था।

बाइबल के अनुसार हम क्या खाते हैं उससे हमारे आत्मिक जीवन पर उतना प्रभाव नहीं पड़ता बल्कि उससे जो हमारे अंदरूनी विचारों, भावनाओं, व्यवहार तथा विश्वास के कारण बाहर आता है।
क्या तुम नहीं जानते कि जो कुछ मुँह में जाता वह पेट में पड़ता है, और सण्डास से निकल जाता है? पर जो कुछ मुँह से निकलता है, वह मन से निकलता है, और वही मुनष्य को अशुद्ध करता है।
[मत्ती 15:17, 18]

दूसरे हाथ पर यदि हम तकनीकी तौर पर जीव हत्या के पाप की सच्चाई को जाँचें तो हम पाएँगे कि हम प्राणी को मारने से अपने आपको बचा ही नहीं सकते। सड़क पर चलते कितने ही छोटे छोटे जीव हमारे पैरों के नीचे आकर मर जाते हैं, फिर क्या वो पाप नहीं? विज्ञान कहता है कि पौधों में भी प्राण है तो क्या उनको खाकर हम पाप नहीं करते? इस आधार पर तो हम जी ही नहीं सकते इसलिये मेरे विचार में इस बात पर विवाद करना व्यर्थ है।

सच्चा मसीही विश्वास किसी पर कुछ थोपता नहीं है क्योंकि परमेश्वर का पवित्र आत्मा हमें स्वतंत्रता देता है। परमेश्वर ने हमें स्वतंत्र इच्छा के साथ बनाया है। हम उससे प्रेम करें या उसका तिरस्कार, ये हमारी इच्छा है। ऐसा परमेश्वर क्या किसी बात के लिये हमें बाध्य करेगा? नहीं, आप इस विषय में निश्चिंत रह सकते हैं।

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आपके और भी प्रश्न हो सकते हैं जो मैंने यहाँ उत्तर नहीं किये हैं परंतु परमेश्वर आपके सवालों के जवाब दे सकता है। आप प्रार्थना और विश्वास से उसके पास आइये। प्रभु आपको आशीष देंगे।