सोमवार, 28 जुलाई 2008

अध्याय 7 ::: उद्धार

मैं बाइबल में दिए उद्धार अर्थात मोक्ष प्राप्त करने के तरीके से बड़ा अचंभित होता हूँ। यह परमेश्वर का वरदान है और कोई भी जो प्रभु यीशु में विश्वास करे, इसे पा सकता हैं। अजीब बात ये है कि न तो इसमें धर्म की कोई सीमा है और न कर्मों का कोई बन्धन।

जैसे हम किसी दान या उपहार की कोई क़ीमत नहीं चुकाते बल्कि उसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं उसी प्रकार हमें अपने उद्धार (मोक्ष) की भी क़ीमत चुकाने की कोई ज़रूरत नहीं है यह परमेश्वर का मानवजाति के लिए उपहार है। हम उपहार की क़ीमत चुकाने की बात कर उपहार देने वाले का अपमान ही करते हैं।

“हम में से हरेक को ईश्वर की अर्थात प्रभु यीशु की आवश्यकता है भले ही हम कोई भी क्यों न हों, किसी भी धर्म या जाति में पैदा हुए हों, कैसे भी हम रहते हों, हमारा सामाजिक स्तर कुछ भी क्यों न हो, हमने कुछ भी क्यों न किया हो और कुछ भी करने की योग्यता हम क्यों न रखते हों।” ‘पापों की क्षमा’ तथा ‘शाश्वत जीवन की आशा’ परमेश्वर की ओर से प्रभु यीशु के द्वारा हमें दिया गया दान है। यह ‘अनुग्रह द्वारा उद्धार’ की बात है जो विश्वास के द्वारा ग्रहण किया जाता है। यह सच में इतना सरल है कि कई बार हम इसे समझ ही नहीं पाते हैं क्योंकि ज्यादातर लोग मोक्ष को एक बहुत ही जटिल काम समझते हैं।

मैं विभिन्न धर्मों में प्रचलित ईश्वर के बारे में बताई गई अवधारणाओं तथा रीति-रिवाजों की अधिकता से भी आश्चर्यचकित होता हूँ; खास तौर पर उसमें जिसमें मैं पैदा हुआ था।

धर्म में संस्कार तथा रीति-रिवाज सिखाए जाते हैं जिनकी पालना करने पर यह समझा जाता है कि हम अपना उद्धार कमा सकते हैं। इसे मैं “कर्मों के द्वारा उद्धार’ के नाम से सम्बोधित करूंगा। बचपन से सिखाए गए संस्कार हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन जाते हैं जिनसे हम इतने प्रभावित होते हैं कि ईश्वर के बारे में हम उसके अलावा किसी और तरीके से सोच ही नहीं पाते हैं।

किसी एक धर्म विशेष में पैदा होने तथा उसके अनुयायी होने के कारण कई बार हम इतने सख्त हो जाते हैं कि सच्चाई को जानने से हम अपने आपको रोकते हैं विशेषकर ऐसा सत्य जो किसी और सम्प्रदाय अथवा विश्वास से आता प्रतीत होता हो, जिसका हमने कभी पालन नहीं किया।

धर्म की पालना करने से व्यक्ति धार्मिक (आत्मिक नहीं) ज़रूर हो जाता है, जिसका जीवन के प्रति अपना एक नज़रिया होता है, अपना एक व्यक्तित्व, ईश्वर के प्रति अपनी एक सोच और अपनी व्यक्तिगत विचारधारा, जिसके द्वारा वो ईश्वर को पाने का प्रयास करता है। मैंने दूरदर्शन में कई बार ऐसे कार्यक्रमों को देखा जिसमें कई तीर्थस्थानों के बारे में बताया जाता है। इनमें से एक कार्यक्रम में मैंने देखा कि कुछ लोग लगातार धूम्रपान करते हुए, कुछ अपनी जगह निरंतर चलते हुए तो कुछ लोग बहुत लम्बे समय तक अपनी जगह पर खड़े रहकर साधना करके तो कुछ अपने शरीर को दुःख पहुँचाकर मोक्ष प्राप्ति करने की नाकामयाब कोशिश करते हैं।

यह बात सच है कि यदि हम ऐसे किसी भी पूर्वाग्रह से ग्रसित हों, तो हम मसीही विश्वास को नहीं समझ सकते क्योंकि सभी धर्मों से अलग यही एक विश्वास है जो कि किसी भी प्रकार के भले कर्म के द्वारा मोक्ष होने की बात को नहीं मानता बल्कि सिर्फ परमेश्वर की कृपा से अपने विश्वास के द्वारा उद्धार की बात को ही मानता है।

अपने पुराने मनगढ़ंत विचारों के कारण कई लोग अपने मार्ग तो बनाते रहते हैं परन्तु यीशु मसीह को ‘विदेशी’ क़रार देते हैं और उनके प्रेम तथा बलिदान का तिरस्कार करते हैं। मैं यह बात समझ नहीं पाता कि वह ईश्वर, जिसने करोड़ों – अरबों किलोमीटर की लम्बाई-चौड़ाई वाले ब्रह्मांड की रचना की, वो इसी ब्रह्मांड के एक छोटे से सौरमंडल में नगण्य आकार के एक ग्रह पर कुछ हज़ार किलोमीटर की दूरी पर बसे एक छोटे से देश में अवतरित होने पर वह विदेशी कैसे हो जाता है।

आप किसी भी सम्प्रदाय अथवा विश्वास के मानने वाले क्यों न हों, आपने कर्मों के द्वारा मोक्ष के विषय में अवश्य सुना होगा – अगर इसी नाम से नहीं तो भी उसके रीतिरिवाजों से आप यह समझ सकते हैं। परंतु आज आप से मैं विनती करता हूँ कि आप अपने दिमाग को स्वतंत्र करें ताकि अनुग्रह (करूणा) के द्वारा उद्धार (मोक्ष) की बात को आप ठीक प्रकार से समझ सकें।

मैं समझता हूँ कि मसीहीयत में सम्पूर्ण मानवजाति का उद्धार शामिल है जो कि मुफ्त में उन सबको बांटा गया है जो प्रभु यीशु मसीह में व्यक्तिगत रूप से विश्वास करते हैं। प्रभु यीशु में विश्वास किये बिना कोई मोक्ष नहीं है।

परमेश्वर सभी को आमंत्रित करता है कि हम चखें और देखें कि वो कैसा भला परमेश्वर है। जिस तरह से मैं आपको बता रहा हूँ उस तरीके से उसे चखने के बावजूद यदि आप उसमें जीवन की भरपूरी न पाएँ तो आप इसे किसी भी कसौटी पर कसने या यहाँ तक कि छोड़ देने के लिए स्वतंत्र हैं। मैं सिर्फ आपको इस बात के लिए उत्साहित करना चाहता हूँ कि बिना जांच के आप इसे अस्वीकार न करें।

समझदार जीव होने के कारण यह न सिर्फ हमारा अधिकार है बल्कि ज़िम्मेदारी भी है कि हम उस ‘परमसत्य’ की खोजबीन करें जो हमारी परिस्थितियों, संस्कारों अथवा भावनाओं के कारण बदलता नहीं है। यदि परमेश्वर से हम मांगें तो वो हमें इस सत्य का अनुभव अवश्य कराएगा।

मैं इस समय यह बात भी बताना चाहता हूँ कि ऐसी कौन सी खास बातें हैं जो मसीही विश्वास को तथा बाइबल को बाकी सभी धर्मों से अलग करती है। वो बात यह है कि सिर्फ बाइबल और इसमें व्यक्त परमेश्वर ही हमें मुफ्त में पाप-क्षमा का दान देना चाहता है जिसका हमारे धर्म, जाति तथा संस्कार से कोई लेना देना नहीं है। हालांकि स्वयं परमेश्वर ने इसका बहुत बड़ा मूल्य चुकाया है।

फिर जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ कि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से (अर्थात परमेश्वर की कृपा से) हमारा उद्धार हुआ है और यह हमारे भले कामों के कारण नहीं है कि किसी भी रीति से इस पर घमण्ड कर सकें।

मेरा मानना है कि हमारा उद्धार (मोक्ष) हमारे कामों पर निर्भर नहीं करता है क्योंकि जितने भी भले काम हम करें वे सब परमेश्वर के अतिपवित्र और ऊँचे मापदण्ड के सामने धूल और खाक के समान हैं। हम ऐसे कोई काम नहीं कर सकते जिससे हम ईश्वर को प्रसन्न कर सकें कि वो हमारा उद्धार करे। और बाइबल के अनुसार तो हम रचे ही इसलिए गये हैं कि भले काम करें तो फिर उनके द्वारा हमें कोई विशेष योग्यता तो यूँ भी नहीं मिल सकती। बल्कि मन, विचार, स्वभाव तथा कर्मों से किये गए अपने जीवनभर के पापों के कारण हम वैसे ही उसके कोप तथा सज़ा के भागीदार हो गए हैं इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि उसके न्याय का समय आने से पहले ही हम उसे ढूंढें और और अपने पापों कि क्षमा प्राप्त करें।

हम में से हरेक को ईश्वर की अर्थात प्रभु यीशु की आवश्यकता है भले ही हम कोई भी क्यों न हों, किसी भी धर्म या जाति में पैदा हुए हों, कैसे भी हम रहते हों, हमारा सामाजिक स्तर कुछ भी क्यों न हो, हमने कुछ भी क्यों न किया हो और कुछ भी करने की योग्यता हम क्यों न रखते हों।


***

इसलिये कि सबने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं …

[रोमियों 3:23]

क्योंकि पाप की मज़दूरी तो मृत्यु है, परंतु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त जीवन है।

[रोमियों 6:23]

बाइबल के अनुसार इस धरती पर कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो निष्पाप हो और जिसने मन से, विचारों से, बोली से या कर्म से कोई पाप न किया हो और इसलिए हम सभी परमेश्वर की महिमा से दूर हैं। और हम सभी को पापों की क़ीमत चुकाने की ज़रूरत है क्योंकि पाप लेकर कोई भी स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर सकता।

कई धर्म तथा मत, न्याय की इस बात को समझते हैं कि सभी को अपने जीवन का लेखा देने के लिए परमेश्वर के न्याय सिंहासन के सम्मुख खड़ा होना है और परमेश्वर के न्याय के अनुसार ही हम स्वर्ग अथवा नर्क में जाएँगे।

बाइबल के अनुसार वे लोग जो प्रभु यीशु के आने का सुसमाचार नहीं सुन सके और इस दुनिया से मानव शरीर छोड़कर चले गये, उनका न्याय परमेश्वर के उचित निर्णय के अनुसार होगा परंतु जिन्होनें परमेश्वर की करूणा का समाचार सुनकर भी उसका तिरस्कार किया है वे पहले ही से अपने ऊपर दण्ड ले आए। सिर्फ वे, जिन्होनें यीशु मसीह पर विश्वास किया है और उनको अपना मालिक/प्रभु मान लिया है उनके खिलाफ दण्ड की आज्ञा नहीं रही और वे सनातन परमेश्वर के साथ हमेंशा का जीवन बिताने के अधिकारी हो गए हैं।

यह परमसत्य है। इसे समझना और अपने जीवन में प्रमुख स्थान देना ज़रूरी है। इसे तोड़ा-मरोड़ा, झुठलाया अथवा नकारा नहीं जाना चाहिए।

हम न तो अपने व्यक्तिगत पापों के, और न ही किसी दूसरे के पापों की क़ीमत चु्काने के योग्य हैं क्योंकि हम सभी बराबर के पापी हैं और परमेश्वर के प्रति उत्तरदायी हैं।

तो फिर कौन इन पापों की क़ीमत चुका सकता है?

सिर्फ ऐसा एक व्यक्ति जिसने कभी पाप न किया हो और जो पवित्र कहलाने की श्रेणी में आता हो। वह व्यक्ति जो हमारे पापों की क़ीमत चुकाने के लिए प्राण देने तक भी तैयार हो (क्योंकि पाप की मज़दूरी तो मृत्यु है) और बदले में जो हमसे कुछ न मांगे क्योंकि हमारे पास उसे देने योग्य कुछ भी नहीं है।

ऐसा दयावन्त, प्रेमी तथा भला व्यक्ति जो परमपवित्र भी हो, स्वयं परमेश्वर के अलावा कौन हो सकता है?

मैं इसे एक उदाहरण के द्वारा समझाने की कोशिश करता हूँ। मान लीजिए की एक पिता अपने नासमझ पुत्र के साथ एक महंगी दुकान से सजावट के लिए कुछ कलाकृति लेने गया और गलती से बेटे ने दुकान में रखी एक बेशक़ीमती कलाकृति तोड़ दी।

तो आप क्या सोचते हैं कि दुकानदार उनको बिना क़ीमत चुकाए जाने देगा? बिलकुल नहीं।

तो क्या पुत्र उसकी क़ीमत चुका सकता है जबकि वो कुछ कमाता भी नहीं है? नहीं।

लेकिन किसी को तो चुकाना ही पड़ेगा। या तो पुत्र, या पिता या स्वयं दुकानदार नुकसान को सह ले और उन्हें जाने दे। परंतु कोई दुकानदार ऐसा तो नहीं करता है। तो क्या पिता अपने बेटे को छोड़कर चला जाए क्योंकि उसके बेटे ने एक ऐसी गलती की जिसकी वो क़ीमत चुकाने के योग्य नहीं है।

नहीं।

तो ऐसे में एक ही रास्ता है कि पिता ही अपने बेटे की गलती की क़ीमत चुकाए और वो सहर्ष ऐसा करता है क्योंकि वो अपने बेटे से प्यार करता है। भले ही उसे अपने बेटे की इस गलती की कितनी भी भारी क़ीमत क्यों न चुकानी पड़े।

तो फिर क्या पिता हमेंशा अपने पुत्र को उस गलती की और अपने बलिदान की याद दिलाता रहता है? नहीं, अपितु एक अच्छा पिता यह चाहता है कि उसका पुत्र फिर से भविष्य में ऐसी गलती न करे और ऐसा ही वह उसे सिखाता भी है।

सोचिए, परमेश्वर अपने बच्चों से जिनको उसने बनाया, कितना प्यार करता है? तो क्या वो हमें हमारे पापों के बोझ तले तड़पता छोड़ सकता है जहां हमारा विनाश हो जाए? कभी नहीं, परमेश्वर हमें छुड़ाता है क्योंकि वो हमसे प्रेम करता है। उसने हमें पैदा किया है और वो हमारा स्वर्गीय पिता है। वो न सिर्फ हमारे पापों को क्षमा करता है बल्कि हमारे सारे पुराने पापों को क्षमा करने के बाद हमेंशा के लिए भुला भी देता है। उसके बाद वो हमसे अपेक्षा करता है कि उसके प्रेम तथा सामर्थ्य को पहचानते हुए हम एक पवित्र जीवन जीएँ ताकि इस दुनिया के बाद हम अनंत जीवन पिता परमेश्वर के साथ बिता सकें।

हम लोग उपरोक्त उदाहरण को नहीं समझ सकते यदि हम कर्मों के द्वारा मोक्ष पाने में विश्वास करते रहे हों। कर्मों वाली व्यवस्था परमेश्वर के न्यायी स्वरूप को नहीं समझा सकती है।

मेरे साथ एक और उदाहरण को देखिए जिससे पहला उदाहरण और स्पष्ट हो जाएगा और कर्मों द्वारा उद्धार न हो पाने की बात की सच्चाई और गहराई से समझ आएगी।

एक हत्यारे की कल्पना कीजिए जो कि किसी की हत्या के आरोप में न्यायाधीश के सामने लाया गया। यदि वो कहे कि अपनी जिंदगीभर वह भले काम करता रहा है, उसने समय पर पूरा कर चुकाया, सभी नियमों तथा कानूनों का पालन किया, सामाजिक कार्यों के लिए चंदा दिया और तमाम तरह के भले काम किये और अन्ततः वह इस दलील के चलते यह कहे कि उसे बाइज़्ज़त बरी कर दिया जाए क्योंकि उसने एक सही कारण से बदला लेने के लिये एक हत्या की।

तो क्या आप सोचते हैं कि जज साहब को उस हत्यारे को छोड़ देना चाहिए? हरग़िज़ नहीं।

मेरे विचार में आप ज़रूर सोच रहे होंगे कि भले काम अपनी जगह हैं परंतु कानून तोड़ने की और हत्या जैसा जुर्म करने की सज़ा तो उसे मिलनी ही चाहिए।

यदि न्यायाधीश उसे छोड़ दे तो क्या हम उस न्यायाधीश को पक्षपाती अथवा गलत नहीं ठहराएँगे?

तो फिर हम इस बात को कैसे मान लेते हैं कि हम जीवनभर जो पाप करते रहते हैं उनके बदले भले काम कर हम उनका पलटा परमेश्वर को दे सकते हैं। क्या आपको लगता है कि परमेश्वर का न्याय हमारे न्याय से भी निम्न स्तर का है?

परमेश्वर निष्पक्ष न्यायी है। वह कभी न तो अन्याय करता है और न ही वह कभी पक्षपात करता है। वह तो परमपवित्र है। हम ही पापी हैं, और यह बात समझ लीजिए कि जो भी पाप हम करते हैं वे सभी परमेश्वर के समक्ष रहते हैं और परमेश्वर सभी पापों को बराबर समझता है। उसके लिए कोई पाप छोटा या बड़ा नहीं होता, वो तो सभी पापों से घृणा करता है। सोचिए कि हम सब कितने गुनाहगार हैं और सज़ा के हकदार हैं।

अपने अपने जीवन में हम सभी अलग अलग तरह के गलत काम करते हैं जिससे हमारा अनंत जीवन हमसे खोता चला जाता है। आप क्या करते हैं वो उससे अलग हो सकता है जो मैं करता हूँ पर अन्ततः सभी पाप हमें आत्मिक मृत्यु (परमेश्वर से हमेंशा के लिए अलगाव) की ओर खींचते चले जाते हैं।

यदि हम अपने जीवन में किये विचारों तथा कर्मों की ओर देखें और पाप की ओर अपने स्वभावगत झुकाव पर विचार करें तो हम पाएँगे कि हम पापी हैं और इसलिये हमें हमारे पापों की सज़ा मिलनी चाहिए। तौभी, पहले दिए उदाहरण के पिता की तरह प्रभु यीशु मसीह ने अपना रक्त बहाकर हमारे पापों की क़ीमत चुका दी ताकि हमें पाप तथा मृत्यु के बंधनों से छुड़ाकर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश दिलाएँ।


***

परमेश्वर की करूणा से हम तक पहुँचे ‘मोक्ष के सुसमाचार’ का तिरस्कार करना भी एक पाप है। यदि इस क़िताब को पढ़ते समय किसी भी समय में आपको ऐसा अहसास हुआ है कि परमेश्वर आपको आपके पापों की क्षमा मांगने के लिए प्रेरित कर रहा है, तो अपना दिल कड़ा मत कीजिए बल्कि तुरंत अपने पापों की क्षमा माँगकर क्षमा प्राप्त कीजिए ताकि आप परमेश्वर की छत्रछाया में अपना जीवन बिता सकें।

यदि अब तक आपने अपना मन नहीं बनाया है तो फिर आगे पढ़िए ताकि आप जान सकें कि जीवित परमेश्वर किस प्रकार प्रार्थनाओं के उत्तर देता है।