सोमवार, 28 जुलाई 2008

अध्याय 4 ::: पारिवारिक पृष्ठभूमि

मेरा जन्म 17 फरवरी 1977 को भारत के राजस्थान प्रदेश के जयपुर जिले में रैगर परिवार में हुआ था। मेरे दादाजी रेल विभाग में सेवारत थे। दादीजी के खराब स्वास्थ्य के कारण उन्होंने चालक पद से सफ़ाई निरीक्षक के तौर पर तबादला ले लिया।

अपने बचपन में हम जब भी गाँव जाते तो हमें बड़ा प्यार और आदर मिलता था। दादाजी को बच्चे ‘अंग्रेज बाबा’ के नाम से पुकारते थे।

दादाजी राधास्वामी सत्संगी थे और संतमत के मानने वाले थे। उनके साथ ही साथ, पूरे तौर पर न सही, परंतु आंशिक रूप से तो हम सभी इसी मत के अवलम्बी थे।


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संतमत का शाब्दिक अर्थ होता है – संतों का मत। संत का एक सामान्य अर्थ माना जाता है – ‘एक अच्छा व्यक्ति’ परंतु ऐतिहासिक तौर पर इस शब्द का इस्तेमाल मध्य सामयिक भारत के कवि गुरुओं के सम्बंध में किया जाता है।

तेरहवीं शताब्दी से लेकर आगे समय समय पर उत्तर तथा मध्य भारत में संत कवि आध्यात्म की नई नई शिक्षाएँ लेकर आते रहे। विभिन्न संत कवि जैसे कबीर, मीराबाई, नामदेव, तुकाराम आदि ने हिन्दू धर्म में प्रचलित जातिप्रथा के विरोध में आम बोलचाल की भाषा में तथा लोकभाषाओं में विभिन्न रचनाएँ की। आमतौर पर सभी संत कवियों कि शिक्षा, ईश्वर की खोज अपने ही अंदर भक्ति के द्वारा करने की रही है।

यूं तो मैं ईश्वर के हमारे अंदर होने की बात की बाइबल की दृष्टि से विवेचना करने की इच्छा रखता हूँ पर मैं अपनी विषयवस्तु से दूर नहीं जाना चाहता और इसलिए सिर्फ़ इतना कहूँगा कि बाइबल के अनुसार ईश्वर हमारे अंदर नहीं रहता। वह यह चाहता है कि हम अपने पापों से मन फिराकर उसको अपना प्रभु अंगीकार करें और उसे अपने जीवन में आमंत्रित करें। हमारे ऐसा करने पर वो हमारे शरीर रूपी मन्दिर में रहने लगता है। सामान्यतया ये साधना घरों में ही शान्त वातावरण में की जाती है। इसमें हर दिन 2.5 घन्टे की साधना को अच्छा माना जाता है।

उत्तर भारत में राधास्वामी सम्प्रदाय संतमत की विचारधारा के अनुयायी हैं। राधास्वामी सत्संगियों को सात्विक जीवन जीने की सलाह दी जाती है जिसमें मांस तथा मदिरा का सेवन और मूर्तिपूजा प्रतिबंधित है । सत्संगी को नाम के भजन की कमाई करने की शिक्षा दी जाती है जिसके द्वारा वे अपने मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकें।

इस मत में ऐसा सिखाया जाता है कि गुरू मोक्ष की मूल कड़ी हैं तथा उनके सानिध्य में ही चेले साधना के द्वारा ईश्वर का अनुभव कर सकते हैं। इतनी सारी शिक्षाओं को सीखने तथा मेहनत करने के बाद भी उद्धार का स्पष्ट आश्वासन कोई नहीं देता तथा सब गुरू महाराज की कृपा पर निर्भर करता है।

उनकी क़िताबों में बाइबल की आयतों का उल्लेख भी मिलता है। बाइबल के वचनों के ऐसे इस्तेमाल से मैं सहमत नहीं हूँ क्योंकि वे उसे उसके असली संदर्भ से बाहर लाकर उसका प्रयोग करते हैं जो कि तर्क-सम्मत नहीं है और ठीक भी नहीं। वे अलग अलग धर्मशास्त्रों के अंश अपनी विचारधारा के प्रसार के लिए उपयोग तो करते हैं पर इस मिश्रित ज्ञान के कारण वे उन सारे प्रश्नों के उत्तर देने में असमर्थ हैं जो मैंने पिछले अध्याय में लिखे हैं।

कुल मिलाकर ये पंथ भी और धर्मों की भांति कर्मों के द्वारा उद्धार कमाने की शिक्षा देता है जो कि मेरी समझ में नामुमकिन है। कम से कम आज तक मुझे एक भी व्यक्ति नहीं मिला जिसने अपनी सभी इंद्रियों पर नियंत्रण कर लिया हो तथा जिसे उद्धार का पूरा आश्वासन हो जैसा कि मुझे यीशु मसीह में है।
यूं वे सच्चाई के काफ़ी करीब लगते हैं और नैतिक जीवन जीने के लिये उनकी शिक्षाएँ अच्छी भी हैं परंतु उद्धार कराने की सामर्थ नहीं रखती जो कि सिर्फ़ परमेश्वर के द्वारा संभव है।


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मैं सोचता था कि या तो अपनी समझ की कमी के कारण दादाजी जो कि पिछले 40 वर्षों से राधास्वामी विश्वास में थे, मेरी जिज्ञासाओं को पूरा नहीं कर पाए। बाद में अपनी खोज में मैंने पाया कि उनके पास असल में सत्य की पूरी जानकारी ही नहीं थी क्योंकि उनके पास सच्चा परमेश्वर नहीं था। उनका राधास्वामी विश्वास हमारे परिवार में कोई बड़ी आत्मिक उन्नति नहीं लेकर आया। पापा बचपन में कुछ इतवार को हमें सत्संग में लेकर जाया करते थे। बाद में हमारा सत्संग में जाना बंद हो गया क्योंकि वो इस मत की शराब ना पीने की मूल शर्त को ही पूरा नहीं कर पा रहे थे। अन्ततः हम इस विश्वास में मज़बूत नहीं हुए।

इस मत के विश्वासी होने का प्रभाव ये हुआ कि हमारे घर में मूर्तिपूजा नहीं होती थी। मैं यदा कदा अपने दोस्तों के साथ मंदिर चला जाता था।

इन सब बातों का दुष्प्रभाव ये हुआ कि मैं ईश्वर के बारे में लापरवाह हो गया था। भजन और साधना वैसे भी मेरे लिए बहुत मुश्किल थी और मूर्तियों में मेरा विश्वास था ही नहीं। सो कुल मिलाकर परमेश्वर के विषय में बेपरवाह हो गया जैसे कि कोई ईश्वर हो ही नहीं। मैं विश्वासहीन और ईश्वररहित इंसान बन गया था।

दादाजी राधास्वामी सत्संग में तब तक जाते रहे थे जब तक कि यीशु मसीह ने उनके जीवन के आखिरी साल में उनको छू नहीं लिया। हमारे संपूर्ण घराने में ज्यादातर लोग जो राधास्वामी सत्संग में विश्वास करते हैं और सबका जो झुकाव आध्यात्म की तरफ़ है, उसका श्रेय मैं फिर भी दादाजी को ही देना चाहता हूँ।


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पापा हमें अपने बचपन की कई बातें बताया करते थे। उन्होंने बताया कि उन्होंने बचपन में कुछ अंग्रेजों को देखा और कुछ तो उनके मित्र भी बन गए थे। उन्होंने ये भी बताया कि कैसे उन्होंने ईसाई मित्रों के साथ शराब पीना भी सीखा था।

मुझे उन्होंने कभी यह बताने का मौका नहीं दिया कि ईसाई परिवार में ही पैदा हो जाने से कोई व्यक्ति मसीही नहीं हो जाता अपितु अपने पापमय स्वभाव को क्रूसित कर मसीह में नया जन्म लेने पर ही कोई व्यक्ति असली मसीही संतान हो सकता है।


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हमारे मूर्तिपूजक नहीं होने का एक सकारात्मक प्रभाव यह हुआ कि हमारा पालन पोषण काफ़ी खुले विचारों के साथ हुआ और इसलिए हम किसी भी विचारधारा या विश्वास को जानने, उसपर विचार करने तथा यदि हम चाहें तो उसका पालन करने के लिए स्वतंत्र थे। मैं इसे सकारात्मक इसलिए मानता हूँ क्योंकि बाइबल से मैंने सीखा है कि जीवित परमेश्वर मूर्तिपूजा से प्रसन्न नहीं होता बल्कि नाराज होता है । बाइबल बताती है कि हम उस अनदेखे परमेश्वर की अनश्वर महिमा को अपनी कल्पनाओं के द्वारा नश्वर चीजों में परिवर्तित करने की कोशिश करते हैं, जो कि ठीक नहीं है।

न जाने क्यों आमतौर पर तो हम किसी व्यक्ति के देह छोड़ देने के बाद ही उसकी तस्वीर अथवा मूर्ति पर माल्यार्पण करते हैं पर अपनी श्रद्धा से अभिभूत होकर ईश्वर की मूर्ति अथवा तस्वीर पर माला तथा फ़ूल चढ़ाते हैं। क्या परमेश्वर जीवित नहीं है?

बाइबल कहती है:

“तुम मूरतों की ओर न फिरना, और देवताओं की प्रतिमाएँ ढालकर न बना लेना;मैं तुम्हारा परमेश्वर यहोवा हूँ।”

[लैव्यव्यवस्था 19:4]

“तुम अपने लिये मूरतें न बनाना, और न कोई खुदी हुई मूर्ति या लाट अपने लिये खड़ी करना, और न अपने देश में दण्डवत् करने के लिये नक्काशीदार पत्थर स्थापित करना; क्योंकि मैं तुम्हारा परमेश्वर यहोवा हूँ।”

[लैव्यव्यवस्था 26:1]

मैं यह बात अपने गले नहीं उतार पाता हूँ कि हम कैसे अपने सृष्टिकर्ता का निर्माण कर सकते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि उन्हें विश्वास करने के लिए किसी मूर्ति या तस्वीर को देखने की जरूरत पड़ती है। वो लोग जो ऐसा कहते हैं वे बताएँ कि हवा के अस्तित्व में विश्वास करने से पहले क्या उन्होंने हवा का चित्र देखा था। बिजली के अस्तित्व का पता हमें उसकी तस्वीर देखकर चलता है या तब जब बिजली के प्रभाव से पंखा चलता है? जब हम दुनियावी चीजों में बिना देखे विश्वास कर लेते हैं तो परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए हमें मूर्ति अथवा तस्वीर की क्या ज़रूरत है?


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जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, पापा ने कुछ दोस्तों के साथ बीयर पीने से शराब पीने की शुरूआत की थी। फ़िर जैसे जैसे नशे की आदत और ज़रूरत बढ़ती गई, बीयर पीछे छूट गई और शराब हावी होती चली गई। हालांकि उन्होंने अच्छा जीवन जीने की भरपूर कोशिश की परंतु कुछ हद तक ही सफ़ल हो सके। इससे मुझे यह यकीन हो गया कि अपने प्रयासों से अच्छा जीवन जीना दुश्वर है।

पापा ने हमें बताया कि उन्होनें अपने जीवन में कभी बुरे तो कभी अच्छे समय देखे। उन्होंने बहुत सी ऐसी बातें बताईं जो उन पर गुज़री थीं – जैसे उन्होंने रेल्वे स्टेशन पर सामान बेचा और अपनी पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए ट्यूशन पढ़ाया। उनकी माताजी (हमारी दादीजी) हमेंशा बहुत बीमार रहती थीं इसलिए बचपन से उन्होंने बहुत दुःख भी उठाए। बहुत सी बातें ऐसी थीं जिनके कारण उनका मन कड़वा हो गया था जिसके फ़लस्वरूप उनका स्वभाव काफ़ी कड़क और गुस्सैल हो गया था, और शायद इसी कारण वो किसी की सुनते भी नहीं थे।

पापा धार्मिक स्वभाव के व्यक्ति नहीं थे, कम से कम मैं तो ऐसा ही समझता हूँ; परंतु वो सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन में बढ़ चढ़कर भाग लेते थे तथा पिछड़ी जातियों के उत्थान के लिए अथक प्रयास करते रहते थे।

उन्होंने हम तीनों बच्चों के लिए काफ़ी बड़े बड़े लक्ष्य लिए और बहुत हद तक उनको पूरा भी किया। मेरी उच्च शिक्षा उसी का एक परिणाम है। वो मेरे लिए कई मायने में प्रेरणास्रोत रहे हैं। उन्होंने मुझे हमेंशा ऊँचा लक्ष्य रखने तथा उसे पाने के लिए निरंतर कार्यशील रहने के लिए उत्साहित किया।

पापा ने अपनी पहली नौकरी भारतीय सेना के अभियांत्रिकी विभाग (मिलिटरी इंजीनियरिंग सर्विसेज) में की थी। बाद में वो भारतीय स्टेट बैंक में आ गए तथा जीवनपर्यंत उसी में सेवारत रहे। वो कर्मचारी संगठन के नेता भी थे और अपने ओजस्वी भाषणों से, नेतृत्व के स्वाभाविक गुणों के कारण लोगों के मन में जगह बनाने में सक्षम रहे थे।


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मेरी मम्मी एक सरल औरत हैं। वो हमेंशा से ग्रहिणी ही रही हैं और कम से कम पैसे में घर चलाने की उनकी दक्षता देखते ही बनती है। मैंने हमेंशा उनको घर की ज़रूरतों के लिए अपनी इच्छाओं को दबाते देखा है। वो हमसे इतना प्यार करती हैं कि हमारे खातिर उन्होंने सारी शारीरिक व मानसिक प्रताड़नाओं को भी सह लिया ताकि हमारे उज्जवल भविष्य से किसी प्रकार का समझौता न हो।

मैंने हमेंशा से उनको धार्मिक प्रवृति का ही पाया है। पहले वो बड़ी आस्था से राधास्वामी साधना में लगी रहती थीं। अपने जीवन की परेशानियों का हल ढूंढने के लिए ऐसी शक्ति को ढूंढती थी जो उनकी परेशानियों से उन्हें निज़ात दिला सके। उनको सच्ची शांति सिर्फ़ प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता मान लेने के बाद ही मिली।

मेरे एक भाई और एक बहन भी है। भाई का नाम पंकज है तथा बहन का नाम हेमा है। और कुछ हो न हो, हम तीनों में एक बात काफ़ी लम्बे समय तक एकसमान रही है (कम से कम यीशु मसीह को अपना प्रभु मान लेने तक) – कि हम तीनों ही का गुस्से पर काबू नहीं था। प्रभु में विश्वास कर लेने के बाद से हमारे विश्वास के अनुसार हमारे व्यवहार में परिवर्तन आ गया है।

हम तीनों में से कोई भी पढ़ने में बहुत होशियार तो नहीं ही रहे फ़िर भी हेमा और पंकज ने बचपन से बहुत अच्छे परिणाम दिखाए थे। बचपन में, हेमा जयपुर के सबसे प्रतिष्टित विद्यालयों में से एक, जयपुर की MGD पब्लिक स्कूल में पढ़ती थी जो कि पापा के अथक प्रयासों का एक परिणाम था, तथा पंकज को भी पिलानी के प्रतिष्ठित विद्यालय, बिड़ला पब्लिक स्कूल में प्रवेश मिल गया था परन्तु किसी नेता की किसी दूसरे विद्यार्थी की सिफ़ारिश के कारण उसका एडमिशन रद्द कर दिया गया। जैसे भी हो, मुश्किल परिस्थितियों से जूझते हुए सभी ने अच्छा मुकाम हाँसिल कर ही लिया है और प्रभु से प्रेम करते हुए अपने अपने तरीके से जीवन बसर कर रहे हैं।

आज मैं जानता हूँ कि वे सब किसी ना किसी रूप में मेरे लिए आशीष का मूल रहे हैं और सभी ने मुझे कुछ न कुछ प्रेरणा दी है।


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परिवार में मुसीबतें

पापा हमसे बहुत प्यार करते थे। वो हमें अच्छा खिलाने-पिलाने में तथा बेहतरीन कपड़े पहनाने में रुचि रखते थे। मेरे दसवीं कक्षा में आने तक मेरे कपड़े पापा ही सिलते थे। मैं आज तक यह समझ नहीं पाता हूँ कि इतना प्यार करने वाले हमारे पिता बाद में कैसे हमसे इतना दूर होते चले गए कि हमारे प्यार को और उनके प्यार की हमारी ज़रूरत को समझ ही नहीं सके।

वो शराब के विषय में किसी के सुझावों को नहीं सुनते थे। धीरे धीरे वो पूरी तरह से शराब के चंगुल में फ़ँसते चले गए और सभी से अपने सम्बंध खराब कर बैठे। उनके परम मित्र, परमार अंकल, तँवर अंकल, खान अंकल, सब उनको समझाकर थक चुके थे।

हर शाम को पापा शराब के नशे में धुत्त लौटते थे और घर में घुसने के साथ ही मारपीट शुरू कर देते थे। उनको गुस्सा होने के लिए किसी सही कारण की ज़रूरत नहीं होती थी। बाद में वो समय भी आ गया जब वो सबके सामने मम्मी और हम सब बच्चों को पीटने लगे। हम उनकी इस आदत से बहुत शर्मिंदा होते थे पर कोई रास्ता भी नहीं था, वो इस आदत के खिलाफ़ कुछ भी सुनने को ही तैयार नहीं थे।

सन 1990 और उसके बाद, रात-ब-रात हमें अपना घर छोड़कर किसी पड़ोसी के घर शरण लेना एक आम बात हो गई थी। कभी कभी तो दिसम्बर-जनवरी की सर्द रातों में, पूरी पूरी रात हमें ठंड में खड़े खड़े पापा के बड़बडाने को समझते हुए भी गुज़ारनी पड़ती थीं।

हर शाम को हमारा दिल बैठने लगता था। हम मनाते रहते थे कि शायद आज पापा शराब पीकर ना आएँ पर हमारी दिल की इच्छा शायद ही कभी पूरी होती हो। कभी अग़र ये आस पूरी हो भी जाती थी तो खुशी ज़्यादा देर टिकती नहीं थी क्योंकि तरोताज़ा होकर सबसे पहला काम वो ये ही करते थे कि स्कूटर निकालकर शराब खरीदने चल देते थे और हमारा दिल फ़िर मुँह को आने लगता था कि आज क्या होगा। पूरी रात आराम से निकालना हमारे लिए एक चुनौती होता था। हम लोग शारीरिक और मानसिक तौर पर प्रताड़ित हो रहे थे, मम्मी इस सब में सबसे ज्यादा पिसती थीं।

इस रोज के चलन से हम बहुत दुःखी हो चुके थे और इसका प्रभाव हमारी पढ़ाई पर भी पड़ने लगा। पाप हमेंशा हमें पढ़ते देखना चाहते थे, और हम सिर्फ़ उनको दिखाने के लिए क़िताबें लिए बैठे रहते थे। शाम को पढ़ाई में हमारा मन नहीं लगता था। मैं दसवीं कक्षा में दूसरी श्रेणी से पास हुआ, 11वीं में एक विषय में फ़ेल हुआ और 12वीं में पूरी तरह फ़ेल हो गया।

एक स्थाई वैचारिक द्वंद हमारे परिवार में पैदा हो गया था। जब भी मैं पापा को शराब पीना बंद करने के लिए बोलता था, वो कहते, “मैं इसलिए पीता हूँ क्योंकि तुम अच्छे परिणाम नहीं लाते।” और मैं कहता, “मैं अच्छे परिणाम नहीं ला सकता क्योंकि मुझे पढ़ने के लिए अच्छा वातावरण नहीं मिलता...।” यीशु मसीह में उद्धार पाने के बाद स्वयं पापा ने ही ये गवाही दी कि शायद उन्होनें कुछ लाखों रुपयों की शराब तो पी ही डाली होगी।

हम अपने पापा से ही डरने लगे थे, और हमारे पास कोई आशा नहीं थी। हमारे और उनके बीच में एक दरार आ रही थी जो बढ़ती ही जा रही थी। हम अन्दर से टूट रहे थे – आत्मिक, भावनात्मक और धन के तौर पर भी। सच में जब तक प्रभु यीशु हमको नहीं मिले, हम आशाहीन रहे और तिल तिल कर मरते रहे।

आज मैं इस बात को समझता हूँ और जानता भी हूँ कि शैतान हमारे परिवार का नाश करने की कोशिश कर रहा था ताकि हम ईश्वर से दूर बने रहें और सच्ची खुशी से वंचित रहें। प्रभु यीशु ने इस बारे में चेताते हुए कहा है कि शैतान तो एक झूठा है जो लूटने, घात करने और नाश करने के लिए ही आता है। वो काफ़ी हद तक इस में सफल भी हो गया था।

शराब मानवजाति पर एक बहुत बड़ा श्राप है और यह बहुत से परिवारों को तोड़ रही है। परमेश्वर की रचना को नाश करने के लिए शैतान के सबसे खतरनाक हथियारों में से यह एक है। ये सिर्फ़ हमारे परिवार की कथा नहीं है बल्कि शायद आपके परिवार, या रिश्तेदारी या पड़ोस में भी ऐसा ही कुछ घट रहा हो। आप उन्हें न सिर्फ़ सांत्वना दे सकते हैं बल्कि परमेश्वर में आशा भी दे सकते हैं।
जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि हमारे परिवार पर एक श्राप था जो की अभी टूटना था, पर हमें पता नहीं था – कैसे...।


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बाल्यकाल से जवानी तक का सफ़र


मेरे बचपन में जब भी कभी मुझे स्कूल पहुंचने में देरी होने लगती थी तो मार पड़ने के डर से मैं अपने राधास्वामी गुरूजी को याद कर प्रार्थना करने लगता था कि वो मुझे सज़ा से बचा लें। मैं उनसे अपने पापा की शराब की आदत छुड़ाने के लिए भी प्रार्थना करता था। मेरी लगभग सभी प्रार्थनाएँ अनुत्तर चली जाती थीं।

मैंने अपने मन में यह ठान लिया कि कोई ईश्वर है ही नहीं। जैसे जैसे मैं उम्र में बढ़ता गया, ईश्वर से और दूर होता चला गया। मेरे लिए संकट में कोई सहायता नहीं थी, कठिन परिस्थितियों में कोई आशा नहीं थी। ऊपर से सब रिश्तेदार मुझे कहते थे कि मैं पापा को कुछ समझाता नहीं – जो कि जले पर नमक का काम करता था। मैं अपनी पूरी कोशिश कर रहा था पर हमेंशा असफ़ल हो जाता था। कोई हमारा दुःख नहीं समझता था।

मैं अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में बात करूँ तो मैं यही कहूँगा कि मैं अपने परिवार से, खासतौर पर अपनी मम्मी से और अपने भाई-बहन से मैं बहुत प्यार करता था। फ़िर भी हेमा और पंकज को बहुत सताता भी था। मैं बिलकुल भी दयालु स्वभाव का व्यक्ति नहीं था और अपने स्वार्थ के लिए उनको परेशानी में भी डाल देता था।

इस बारे में मुझे एक किस्सा याद है जब मैंने पंकज को पतंग लाने के लिए वो पैसे दिये जो मैंने रसोई से उठा लिए थे जहाँ मम्मी अकस्मात जरूरतों के लिए खुले पैसे रख देती थी। जब मम्मी ने उसे पतंग लिए आते देखा तो वो आगबबूला हो गईं और पूछने लगी कि उसे वो पैसे कहाँ से मिले। जवाब ना मिलने पर मम्मी ने उसे बहुत पीटा। मैं वहीं था पर मैंने अपनी गलती होते हुए भी सच बोलकर उसे पिटने से नहीं बचाया और अपने खातिर उसे परेशानी में डाल दिया।

दूसरा किस्सा तब का है जब मैं 8वीं कक्षा में था और पंकज शायद तीसरी या चौथी कक्षा में रहा होगा। हम लोग गूजर की थड़ी नाम की जगह पर रहते थे। मालवीय नगर स्थित हमारे स्कूल से घर तक की कुल दूरी करीब 8-10 किलोमीटर होगी। यातायात के सुलभ साधन न होने के कारण सुबह तो पापा हमें छोड़ देते थे पर वापस आते समय कई बार हम पैदल ही आ जाते थे। उसके पीछे मेरा दूसरा उद्देश्य अपने जेबखर्च के लिए पैसे बचाना भी होता था।

इस सड़क पर भारी वाहनों (ट्रक) की आवाजाही बहुत रहती थी। पैदल चलते समय मैं पंकज का पूरा ख़्याल रखता था और उसे काल्पनिक फ़िल्मी कहानियां भी सुनाता था ताकि उसे दूरी का भान न हो।

परन्तु मैं एक बात में बहुत दुष्टता दिखाता था। पैदल चलते समय जब मैं थकने लगता था तो तेज़ चलकर मैं थोड़ा आगे जाकर बैठ जाया करता था और जब वो मुझतक पहुँचकर बैठने की कोशिश करता तो मैं घर पहुंचने में देर होने के डर से उसे चलते रहने के लिए बाध्य करता था। इस बात को सोचकर मैं आज बहुत आश्चर्चचकित होता हूँ कि मैं ऐसा क्यों किया करता था, यकीनन ऐसी दुष्टता करने से मुझे कभी कोई लाभ नहीं हुआ था।

मैं अपने बड़े होने का नाजायज़ फ़ायदा उठाता था और अपने भाई-बहन से लड़ता था। ज़्यादातर तो मैं ही उन्हें पीटा करता था। खासतौर पर हेमा अपने अड़ियल स्वभाव के कारण कुछ ज्यादा ही पिटती थी। मेरी बुरी आदतों के कारण वे दोनों मुझे पसंद नहीं किया करते थे। मैं समझ नहीं पाता था कि वो ऐसा क्यों करते थे क्योंकि मैं मन से तो उनसे बहुत प्यार करता था। मैं यह समझ ही नहीं सका कि मुझे अन्तर्मन से ही नहीं अपितु बाहर भी प्रेम दिखाने की ज़रूरत है क्योंकि वे मेरे मन में नहीं झांक सकते थे।


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अपनी किशोरावस्था में मैं बहुत दबाया गया, इसलिए आक्रोश मेरे अंदर जमा होता चला गया और जवान होने पर मैं इसे कहीं न कहीं निकालना चाहता था। इसलिए मैं लड़ाई झगड़ों में पड़ने लगा।

मेरे पास बहुत सी ऐसी मीठी यादें नहीं है जिनको याद कर मेरा मन गुदगुदाने लगे। मैं पढ़ाई में असफ़ल था, बिगड़ा हुआ बच्चा था, गंदा भाई था, परिवार पर बोझ था। हर तरफ़ से हार, असफ़लता और दुख ने मेरा दामन थाम रखा था।

इसके अलावा सबसे आखिर में अगर मैं कुछ लिखना चाहूं तो वो मेरा चरित्र है। शायद कुछ कामों के विषय में तो लोग जानते भी हों जो मैंने अपने जीवन में किये परंतु उनसे अलग ऐसे काम भी थे जो सिर्फ़ मैं या मेरा ईश्वर जानता है। बहुत से पाप तो मैंने बस कल्पना में किए थे। बाइबल पढ़ने के बाद मुझे पता चला कि परमेश्वर हमें हमारे विचारों में किए गए पापों के लिए भी उत्तरदाई ठहराता है क्योंकि वो हमारे मस्तिष्क से गुजरने वाले हर विचार को भी जांचने वाला परमेश्वर है। वासनामयी विचारों पर मंथन करना, गंदी फ़िल्में देखना, लड़कियों पर फ़िकरे कसना, सस्ता साहित्य पढ़ना आदि मेरे किशोरावस्था से जवानी तक के वे पाप थे जिन्हें बहुत कम लोग जानते हैं।

ये बड़े दुःख की बात है कि शारीरिक संबंधों से जुड़े पाप जवान लोगों पर अपना शिकंजा जकड़ लेते हैं कि चाह कर भी वे इसमें से अपनी सामर्थ्य से तो बाहर नहीं ही आ पाते हैं।

ऐसे पाप करते समय मेरा मुख्य बहाना ये होता था कि सभी ऐसा करते हैं तो इसमें कौन सी बड़ी बात है। शायद कई लोग इन बंधनों में बंधे हैं परन्तु इसका अंगीकार करने की हिम्मत उनमें नहीं है। सिर्फ वे लोग जो पवित्र आत्मा के द्वारा प्रेरित किए जाते हैं वे उसका अंगीकार तो करते ही हैं साथ ही साथ क्षमा मांगकर आगे का जीवन प्रभु के साथ चलाते हैं।