सोमवार, 28 जुलाई 2008

पुस्तक परिचय

"प्रसिद्ध दार्शनिक, इतिहासकार और तर्कशास्त्री, बर्ट्रांड रसैल, जो अनेक दार्शनिक ग्रथों के लेखक रहे है तथा जो अपने नास्तिक विचारों के लिए जाने जाते हैं, उन्होंने कहा है – जब तक हम एक ईश्वर की कल्पना ना करें या उसके अस्तित्व को ना मान लें, तब तक जीवन के उद्देश्य के बारे में सोचना निरर्थक है।"

मेरा विश्वास है कि हमारे सृष्टिकर्ता ने हम सबकी सृष्टि किसी उद्देश्य के साथ की है। हम भी जब किसी चीज़ का निर्माण करते हैं तो उसके पीछे कुछ ना कुछ लक्ष्य और उसके इस्तेमाल के लिए कुछ योजना ज़रूर होती है। उसी प्रकार मेरा मानना है कि हमारे सृष्टिकर्ता ईश्वर ने हम में से हरेक के लिए एक योजना रखी है और हरेक के जीवन का एक उद्देश्य़ रखा है।

अनंत आशा से भरपूर, आशीषित तथा संतुष्ट जीवन जीने की कुंजी है – उस उद्देश्य को खोजना तथा उसको पूरा करना। मैं ऐसा हर दिन करता हूँ और हम साथ में इसे सीख सकते हैं।

एक समय मैं भी अपनी जिन्दगी के महत्वपूर्ण पहलुओं से अनजान था और एक भरपूर ज़िंदगी से महरूम था, पर आज मैं अपने जीवन को बहुत गहराई से, भरपूरी के साथ जी रहा हूँ। मेरे जीवन में मैं एक ऐसी शांति और आनंद का अनुभव करता हूँ जो मेरी समझ से बाहर है। मेरा पूरा विश्वास तथा मेरी अटूट आस्था ईश्वर में है जो कि मेरा परममित्र हो गया है और मेरे जीवन का अधिकार अपने हाथों में रखता है। वो मेरे सारे टेढ़े मेढ़े मार्गों को सीधा करता है, हर मुश्किल में मेरी सहायता करता है, अपनी आशीषें मुझे देता है और एक विजयी जीवन जीने में मेरी सहायता करता है।

मेरा जन्म हिंदू परिवार में हुआ था, इसलिए मेरी अपनी एक विचारधारा थी तथा जब मैंने पहली बार मसीही विश्वास (ईसाई धर्म नहीं) के बारे में सुना तो मेरे लिए यकायक इसमें विश्वास करना आसान नहीं था । मेरे मन में कई प्रश्न उठे थे जिनके उत्तर पाये बिना मेरे लिये इस मत पर विश्वास करना नामुमकिन था। स्वयं ईश्वर ने मेरे उन सभी सवालों का जवाब दिया जो मेरे विज्ञान प्रभावित तथा तर्क संचालित दिमाग में उठे थे।

मैं भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) से जुड़े व्यवसाय में कार्यरत हूँ तथा उपग्रह से प्राप्त चित्र कई बार अपने कार्य के दौरान देखता हूँ। मैने पाया है कि जो चीजें हम ऊँचाई से देख पाते हैं उनको समान धरातल पर रहते हुए देखना और समझना असंभव है। आज जब मैं जीवन को मानवीय दृष्टिकोण से ऊपर उठकर आत्मिक नज़र से देखता हूँ तो जीवन का एक अलग ही चित्र मुझे नज़र आता है। वही मैं आपको इस पुस्तक के द्वारा दिखाना चाहता हूँ।

बृजेश चोरोटिया
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विषय-सूची

अध्याय 1 ::: परिचय
अध्याय 2 ::: यह पुस्तक क्यों
अध्याय 3 ::: क्या आप तैयार हैं
अध्याय 4 ::: पारिवारिक पृष्ठभूमि
अध्याय 5 ::: ईश्वर से मिलन
अध्याय 6 ::: परिवर्तन
अध्याय 7 ::: उद्धार
अध्याय 8 ::: प्रार्थनाओं के उत्तर
अध्याय 9 ::: परमेश्वर की विश्वासयोग्यता
अध्याय 10 ::: आशीषें
अध्याय 11 ::: ईश्वरीय जीवन कैसे जीयें
अध्याय 12 ::: निष्कर्ष

प्रश्न और भ्रांतियाँ (FAQs)


कॉपीराइट सूचना

जीवन से साक्षात्कार
मुझे मोक्ष तथा सच्ची शांति कैसे मिली

कॉपीराइट © 2008, बृजेश चोरोटिया
पहला संस्करण 2008

इस पुस्तक में लिखे सभी बाइबल वचन, बाइबल सोसायटी ऑफ़ इंडिया द्वारा हिन्दी में प्रकाशित ‘पवित्र बाइबल’ (The Holy Bible, Hindi O.V. Re-edited, ISBN 81-221-2141-1) से लिये गये हैं।

सर्वाधिकार सुरक्षित
इस पुस्तक का कोई भी भाग तथ्यों को बदलकर किसी भी रूप में लेखक की लिखित अनुमति के बिना नहीं संचारित किया जा सकता है। तथ्यों को बदले बिना सुसमाचार प्रचार के उद्देश्य से इस क़िताब की फोटोकॉपी इत्यादि करने की अनुमति लेखक की ओर से इसी अधिकार सूचना में दी जाती है।

प्रकाशक:बृजेश चोरोटिया
अपनी प्रति सुरक्षित करने के लिये सम्पर्क करें - Chorotia@gmail.com
और जानने के लिये लॉगिन करें : www.aatmik-sandesh.com

अध्याय 1 ::: परिचय

जीवन!

जी हां; यह क़िताब जीवन के विषय में है। उनके बारे में जो जीवन को भरपूरी से जी रहे हैं और उनके विषय में जो इसे खो रहे हैं।

क्या आपको नहीं लगता कि आप जिन्दगी से कुछ और चाहते हैं?

क्या आपको ऐसा लगता है कि जीवन में कुछ तो कमी है? क्या आप अपनी जिन्दगी बेहतर जीना चाहते हैं – भरपूरी के साथ? उससे कहीं बेहतर, सफल और सार्थक, जैसी वो आज है!

अगर आपका उत्तर ‘हां’ है, तो मेरे साथ इस यात्रा में शामिल हो जाइये!

एक समय मैं भी अपनी जिन्दगी के महत्वपूर्ण पहलुओं से अनजान था और एक भरपूर ज़िंदगी से महरूम था, पर आज मैं अपने जीवन को बहुत गहराई से, भरपूरी के साथ जी रहा हूँ। मेरे जीवन में मैं एक ऐसी शांति और आनंद का अनुभव करता हूँ जो मेरी समझ से बाहर है। मेरा पूरा विश्वास तथा मेरी अटूट आस्था ईश्वर में है जो कि मेरा परममित्र हो गया है और मेरे जीवन का अधिकार अपने हाथों में रखता है। वो मेरे सारे टेढ़े मेढ़े मार्गों को सीधा करता है, हर मुश्किल में मेरी सहायता करता है, अपनी आशीषें मुझे देता है और एक विजयी जीवन जीने में मेरी सहायता करता है।

मैं ये सारी आशीषें आपके साथ बांटना चाहता हूँ।

***

मेरा विश्वास है कि हमारे सृष्टिकर्ता ने हम सबकी सृष्टि किसी उद्देश्य के साथ की है। हम भी जब किसी चीज़ का निर्माण करते हैं तो उसके पीछे कुछ ना कुछ लक्ष्य और उसके इस्तेमाल के लिए कुछ योजना ज़रूर होती है। उसी प्रकार मेरा मानना है कि हमारे सृष्टिकर्ता ईश्वर ने हम में से हरेक के लिए एक योजना रखी है और हरेक के जीवन का एक उद्देश्य़ रखा है।

अनंत आशा से भरपूर, आशीषित तथा संतुष्ट जीवन जीने की कुंजी है – उस उद्देश्य को खोजना तथा उसको पूरा करना। मैं ऐसा हर दिन करता हूँ और हम साथ में इसे सीख सकते हैं।

प्रसिद्ध दार्शनिक, इतिहासकार और तर्कशास्त्री, बर्ट्रांड रसैल, जो अनेक दार्शनिक ग्रथों के लेखक रहे है तथा जो अपने नास्तिक विचारों के लिए जाने जाते हैं, उन्होंने कहा है – जब तक हम एक ईश्वर की कल्पना ना करें या उसके अस्तित्व को ना मान लें (काल्पनिक ही सही), तब तक जीवन के उद्देश्य के बारे में सोचना निरर्थक है। दूसरे शब्दों में कहें तो जीवन के सही उद्देश्य के बारे में विचार करते समय एक ईश्वर का होना अवश्य है।

यह उसी तरह का सिद्धांत है जैसा हमने बचपन में स्कूल में सीखा था। गणित के सवाल (और प्रमेय अर्थात थ्योरम) हल करने के लिए हम किन्हीं बातों को मान लेते थे और उसी पूर्वधारणा के तहत अपने सवाल हल कर लेते थे।

किसी ने कभी इस बात पर प्रश्न नहीं किया कि हमने अपने सवाल कल्पना के आधार पर क्यों हल किये।

तो क्यों न हम ऐसा ही करें। यदि आप ईश्वर पर आस्था नहीं भी रखते तौभी हम कुछ देर के लिए इस बात को मान लेते हैं की ईश्वर है और हम में दिलचस्पी रखता है।

यदि आप ईश्वर में विश्वास तो करते हैं परंतु उसे व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते, यह ऐसा है जैसे सम्भवतया आप भारत के प्रधानमंत्री को जानते तो हैं, परंतु व्यक्तिगत तौर पर नहीं, तौभी हम कुछ देर के लिए इस बात को भी मान लेते हैं की ईश्वर हमसे व्यक्तिगत सम्बंध रखने में रूचि रखता है।

हम इसी अवधारणा के साथ आगे बढ़ते हैं। जैसे जैसे हम आगे चलेंगे, यदि आप विश्वास करें तो ईश्वर का अनुभव कर सकेंगे। आपका इस क़िताब को पढ़ने का निर्णय इस बात का संकेत है कि आपकी इच्छा ईश्वर को पाने की है। प्रभु आपको मनचाहा वरदान दें।

आप कौन हैं, आपने क्य़ा हाँसिल किया है, आप किन बातों में सफ़ल या निष्फ़ल रहे हैं, इन बातों से ईश्वर के प्रेम पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मैं आपको एक बात बताना चाहता हूँ कि हम अपनी सीमित बुद्धि और संकुचित दृष्टिकोण के कारण जीवन की एक बहुत छोटी और धुंधली तस्वीर देख सकते हैं, क्योंकि हमारी सोच का दायरा उन सभी बातों से बनता है जो कि हम अपने परिवार की परम्परा, हमारी संस्कृति, हमारा धर्म जिसमें हम पैदा हुए, हमारी परिस्थिति, हमारी शिक्षा तथा हमारे अनुभवों के कारण, सीखते हैं। परंतु हमारे सृष्टिकर्ता के पास इस जीवन की सम्पूर्ण तथा स्पष्ट तस्वीर है।

हमारी इस यात्रा के अंत तक आप ईश्वर की आपके बारे में योजना और उद्देश्य को समझ सकेंगे; और यदि आप उसे पूरा करने का निर्णय लेंगे तो शांति, आनंद तथा ईश्वर की आशीषों से भरपूर जीवन आपका होगा।

***

अपनी इस यात्रा को शुरू करने से पहले हम कुछ खास बातों को समझ लें जो इस क़िताब को सही तरीके से पढ़ने और ईश्वर से आशीष पाने में हमारी सहायता करेगी।

आइए, एक वैज्ञानिक डाक्टर का उदाहरण देखें-

मान लीजिए, किसी डाक्टर ने एक आम बीमारी का टीका या दवा का अविष्कार किया, जैसे की – सरदर्द या कुछ और, जो गम्भीर ना हो और जिससे हमें डर ना लगता हो; तो हममें से कितने लोग इस अविष्कार में रूचि लेंगे?

मेरे ख़्याल से ज़्यादा नहीं, या शायद कोई नहीं।

परंतु उसी वैज्ञानिक ने यदि कैंसर या एड्स जैसी गम्भीर तथा घातक बीमारी के टीके का निर्माण किया हो तो शायद सारी दुनिया की नज़रें उसी अविष्कार पर लग जाएँगी, खासतौर पर तब, जब यह बीमारी महामारी की तरह फ़ैल रही हो। हम ज़रूर अपने आपको और अपने परिवार को सुरक्षित करना चाहेंगे।

उसी प्रकार यदि हम इस यात्रा के महत्व को ना समझें, तो बहुत संभव है कि हम इस क़िताब को पढ़ने के उद्देश्य को भी खो दें। जीवन बहुत महत्वपूर्ण है और पाप घातक है। पाप कैंसर और एड्स से भी ज्यादा घातक बीमारी है – जो न सिर्फ़ इस जीवन का नाश करता है बल्कि मृत्यु के बाद के आत्मिक जीवन का भी नाश करता है।

मैं आपको सावधान करना चाहता हूँ और यह बताना चाहता हूँ की जीवन बहुत क़ीमती है – यह सिर्फ़ ईश्वर की ओर से मिलता है।

विचार कीजिए – आज की सबसे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान और तकनीक के बावज़ूद वैज्ञानिक जीवन पैदा नहीं कर सकते हैं और न ही किसी मृत व्यक्ति में जान फ़ूँक सकते हैं। यह सिर्फ़ ईश्वर का काम है।

शायद कोई मुझसे विवाद करना चाहे की वैज्ञानिकों ने डॉली भेड़ का क्लोन बनाया है। बिना किसी विवाद में पड़े, मैं सिर्फ़ इतना कहूँगा की जो क्लोन वैज्ञानिकों ने बनाया था उसमें भी आरम्भिक ऊत्तक या डी.एन.ए. पहले से जीवित भेड़ से उठाया गया था, जिसको ईश्वर ने ही रचा था।

मेरे एक प्रिय मित्र, जो कि सूक्ष्म-जैविकी (माइक्रोबायोलॉजी तथा बायोटैक्नोलॉजी) में विज्ञान अनुसंधान छात्र हैं, उनके साथ ईश्वर, सृष्टि, पाप तथा उद्धार के सम्बंध में बातचीत करते समय एक बार उन्होंने कहा की वह भी ईश्वर होने का दावा कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने अपने अनुसंधान के दौरान रसायनों के प्रयोगों से कुछ नए प्राणी-जीवों का निर्माण किया है।

जितने विद्वान वो हैं, मुझे इस बात में संदेह नहीं है कि उन्होंने ऐसा प्रयोग किया हो, परंतु मैं इस बात से आश्वस्त नहीं हूँ कि वो सफ़ल रहे होंगे। जितने लोग ऐसा दावा करते हैं, उन सभी से मैं एक सवाल करना चाहता हूँ तथा एक सुझाव देना चाहता हूँ।

मेरा प्रश्न है – ऐसे तमाम प्रयोगों के लिए ज़रूरी सामग्री (अर्थात रसायन इत्यादी) किसने बनाया – क्या वैज्ञानिकों ने या ईश्वर ने? मेरा सुझाव है – यदि आप ईश्वर में विश्वास नहीं करते, तो कोई बात नहीं, किसी दिन शायद करें – परंतु अपने आपको ईश्वर बनाने की या सच्चे ईश्वर का बहिष्कार करने की गलती भयंकर भूल कभी ना करें।

परमेश्वर आपसे प्रेम करता है, यदि आप इस बात को समझ नहीं सकते – तो सिर्फ़ विश्वास ही कर लीजिये। यूं भी, आत्मिक तथा आध्यात्मिक जीवन का सम्बंध समझ से नहीं बल्कि विश्वास से होता है।

मैं समझता हूँ की कोई भी वैज्ञानिक अपने पिता को पिता मानने से पहले डी.एन.ए. (DNA) टेस्ट नहीं कराते। वे भी अपनी माँ, परिजनों तथा अन्य परिचित लोगों की गवाही से यह बात मान लेते हैं। शायद ऐसी परीक्षा करने की बात का विचार भी उनके दिमाग में ना आता हो।

परमेश्वर पर विश्वास करना भी इसी तरह है। आपने उसको नहीं देखा तो क्या हुआ, जिन्होंने उसे देखा है, उसको महसूस किया है, उसके साथ चले हैं – उनकी गवाही पर विश्वास कीजिये। अपने जीवन में बहुत से काम हम विश्वास के द्वारा करते हैं। उन बातों को समझना और साबित करना मुश्किल या नामुमकिन हो सकता है। यहाँ तक कि हम इस बात की ज़रूरत भी नहीं समझते।

उदाहरण के लिए – क्या हम बस या टैक्सी में बैठने से पहले ड्राइवर का लाइसेंस देखते हैं कि वो बस चलाना जानता भी है या नहीं, या फिर क्या हम हवाईजहाज में बैठने से पहले पाइलट की हवाईजहाज उड़ाने की क्षमता को जानने की कोशिश करते हैं। कुर्सी पर बैठने से पहले क्या हम इस बात को जाँचते हैं कि वो हमारा बोझ संभाल सकती है या नहीं या फिर क्या हम सरदर्द की दवा लेने से पहले दवाइयों का रासायनिक विष्लेषण करते हैं? बैंक में पैसा जमा करने से हम अपने कड़े परिश्रम से कमाये पैसे को क्यों सुरक्षित समझते हैं? महीना भर काम करने से पहले हमारे पास क्या आशा होती है कि हमारी तनख़्वाह (सैलेरी) हमें मिल जाएगी? ये सभी काम हम विश्वास से ही तो करते हैं।

जब हम कार या बस में यात्रा करते हैं तब तो हम निशान, हॉर्डिंग तथा दिशा-निर्देशों को देखकर ये जान लेते हैं कि हम किस दिशा में जा रहे हैं और कहाँ तक पहुँचे हैं, परन्तु जब हम हवाईजहाज में यात्रा करते हैं, तो हमें ना तो दिशा-निर्देश दिखते हैं न कुछ और – सिर्फ़ बादल; और यदि और ऊँचाई पर चले जाएँ तो कुछ भी नहीं बल्कि गहरा नीला आकाश। फ़िर भी क्या हमें विश्वास नहीं रहता की हम अपने गंतव्य (लक्ष्य/ठिकाने) पर पहुँचेंगे?

जब हम पाइलट पर भरोसा कर सकते हैं, तो परमेश्वर पर क्यों नहीं?

इस भौतिक दुनिया में, हम एक कहावत अक्सर सुनते हैं – विश्वास, देखने से होता है – परंतु आत्मिक दुनिया में – देखना, विश्वास से होता है। परमेश्वर को सिर्फ़ विश्वास से ही देखा जा सकता है। यदि आप उसे देखना चाहते हैं तो विश्वास कीजिए की वो है और उन्हें मिलता है जो पूरे मन तथा विश्वास से सही जगह उसको खोजने की इच्छा रखते हैं।

इन सब बातों के कहने से मेरा मतलब यह है कि – जिस प्रकार व्यक्तिगत गवाहियाँ आज भी दुनियाभर में ज़्यादातर अदालतों में मुक़दमों को सुलझाने तथा निर्णय लेने में इस्तेमाल होती हैं – उसी प्रकार यह क़िताब मेरी गवाही है कि किस प्रकार परमेश्वर ने मेरे जीवन में बड़ा परिवर्तन किया है। मैंने पूरा प्रयास किया है कि सब बातें सच्चाई के साथ बता सकूँ कि कैसे परमेश्वर ने मेरा जीवन सार्थक बना दिया है।

मैं अपने जीवन का खुला चित्र आपके सामने रखना चाहता हूँ – कि मैं कौन था, किस प्रकार ईश्वर से मेरी मुलाक़ात हुई, किस प्रकार उसने मेरा जीवन परिवर्तन किया, कैसे उसने पाप की मेरी बड़ी समस्या का निवारण किया, किस प्रकार उसने मुझे शैतान की गुलामी से स्वतंत्र किया और किस प्रकार वो हर पल मेरे साथ रहकर आशीषित जीवन जीने में मेरी सहायता करता है।

***

आइए, इस यात्रा के लिए हम कुछ नियम बना लें, ताकि इस यात्रा का पूरा लाभ उठा सकें। आप इनमें से कुछ या सारे नियमों को तोड़ना चाहें तो मैं आपको रोकूंगा नहीं, परंतु तब आप इस क़िताब के पढ़ने का उद्देश्य खो देंगे। हम निम्नलिखित नियमों का पालन करेंगे:
1. हम बाइबल को परमेश्वर का पवित्र तथा जीवित वचन समझेंगे, चाहे आपस में हमारे कितने भी वैचारिक (या धार्मिक भी) मतभेद क्यों न हों।
2. जहां भी बाइबल के वचन इस क़िताब में लिखे हैं उन्हें हम ऊँची आवाज़ में पूरी निष्ठा के साथ पढ़ेंगे और उस पर कुछ देर विचार करेंगे कि परमेश्वर हमसे क्या कहना चाहता है। संभव है की ऐसा करके आप परमेश्वर की मीठी महीन आवाज़ को सुन सकें। उसके बाद (बिना पढ़े और बिना विचार किए नहीं) आप अपने निष्कर्ष निकाल सकते हैं।
3. शायद आपने ईश्वर को उस तरह से ना पहचाना हो, जैसे मैं आपको बता रहा हूँ; फ़िर भी आप उसे जीवित मानेंगे, ठीक उसी तरह जैसे आप जीवित हैं। शुरू में शायद ये थोड़ा अज़ीब लगे, पर आप उससे वैसे ही बात कर सकते हैं जैसे किसी भी दूसरे जीवित व्यक्ति से करते हैं। उसकी बातें सुनने के लिए हमें बाइबल से पढ़ने की ज़रूरत पड़ती है क्योंकि परमेश्वर आत्मा है और शारीरिक कानों से उसकी आवाज़ सुनना मुश्किल है (परंतु नामुमकिन फ़िर भी नहीं)।
4. हम इस बात को आधार लेकर आगे चलते हैं कि आप सच में ईश्वर को जानना और पहचानना चाहते हैं और आप इसके लिये सभी वो बातें पूरा करेंगे जो ज़रूरी हैं। मेरा मानना है कि यदि आप नम्रता और दीनता के साथ प्रभु के सम्मुख आएँगे तो वो आपको निराश नहीं करेंगे।
5. इस क़िताब में दी गई सभी जानकारीयों तथा विवरणों को आप मेरे व्यक्तिगत अनुभव की दृष्टि से देखेंगे।
6. बाइबल से पढें और विचार करें


***

इस समय, जब आप इस क़िताब को पढ़ते हैं, तो मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि वो आपके हरेक प्रश्न का उत्तर दे जो आपके दिमाग में वर्षों से रहे होंगे। मुक्तिदाता, शांतिदाता परमेश्वर आपके साथ रहे। आइए हम साथ में प्रार्थना करें -

हमारे सृष्टिकर्ता परमेश्वर, हम मानते हैं और विश्वास करते हैं कि आप ही ने सारी सृष्टि की रचना की है। सूरज, चाँद, तारों और सारे ग्रहों अर्थात पूरे ब्रहमांड के रचनाकार आप हैं। धरती और इसमें दिखनेवाली हरेक वस्तु को आपने सृजा है। हम आपके आभारी हैं कि आपने हमें यह पुस्तक दी है। जब हम इसको पढ़ते हैं, हमें अपना अनुग्रह दीजिए ताकि हम परमसत्य को जान सकें। हमारी सहायता करें ताकि हम आपसे उद्धार पा सकें। हमारे व्यक्तिगत पापों को क्षमा कर दीजिए और अपने पवित्र आत्मा से भर दीजिये और हमारी आत्मिक आँखों को खोल दीजिये ताकि हम आपको देख सकें और सारे शारीरिक तथा आत्मिक बंधनों से छूट जाएँ। आमीन

अध्याय 2 ::: यह पुस्तक क्यों

“कुछ लोग ऐसा मानते हैं और कहते भी हैं कि ईश्वर, नर्क तथा उद्धार इत्यादि कमज़ोर लोगों द्वारा गढ़े हुए विचार हैं जो जीवन की कठिन परिस्थितियों से लड़ने की हिम्मत नहीं रखते और इन बातों का सहारा लेते हैं। पर मेरे विचार में, हम में से हरेक को परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करना ही चाहिए, चाहे हम किसी भी धर्म के अवलम्बी क्यों न हों।”

क्या आपको आश्चर्य हो रहा है कि जब इतनी सारी क़िताबें, शायद लाखों, पहले ही ईश्वर तथा विश्वास के विषय में लिखी जा चुकी हैं तो फ़िर एक और क़िताब की क्या ज़रूरत है?

मेरे पास इस बात का उत्तर है। किताब से बढ़कर, यह मेरे जीवन में घटी घटनाओं का लिखित वर्णन है जो मुझे हरदम याद दिलाएगी कि परमेश्वर ने मेरे लिए क्या किया है। मेरे इन अनुभवों से न सिर्फ मैं बल्कि अन्य लोग भी परमेश्वर की सामर्थ को देख सकते हैं ताकि उसमें विश्वास कर सकें।

कुछ लोग ईश्वर को किसी के अनुभव की दृष्टि से समझना पसंद नहीं करते क्योंकि किसी के भी अनुभव को नकारना या उसकी जाँच करना, असम्भव नहीं भी, तो मुश्किल ज़रूर है। लेकिन मेरे सारे अनुसंधान तथा खोज से मुझे यह मालूम हुआ कि हम ईश्वर को समझ (सीख) नहीं सकते पर उसके प्रेम का अनुभव कर सकते हैं और उसकी सर्वव्याप्त उपस्थिति को महसूस कर सकते हैं।

इसका मतलब यह नहीं है की वो है ही नहीं, या काल्पनिक है। नहीं ऐसा नहीं है, परंतु उसके स्वरूप को समझाना कठिन है। इसे सिर्फ़ विश्वास से समझा जा सकता है।

यदि आप उन लोगों में से एक हैं जो अनुभव से नहीं बल्कि सिद्धांत और ज्ञान से उसे जानना चाहते हैं, तो शायद यह क़िताब आपके लिए ना हो; फ़िर भी मैं आपसे आग्रह करूँगा कि इसे आप पूरा पढें; इससे आपको पता चलेगा, कि परमेश्वर अपने लोगों के जीवन में क्या क्या करता है और कैसे वो जीवन परिवर्तन करता है। क्या पता, कल को यह आपका भी अनुभव साबित हो।



***

परमेश्वर ने मुझे प्रेरणा दी की मैं अपनी गवाही को लिखूँ ताकि ऐसा न हो की मैं खास और ज़रूरी बातों को भूल जाऊं। तब मैंने एक पन्ने की गवाही लिखकर इंटरनेट पर डाली। उसको पढ़ने के बाद एक बहन ने कहा कि सच में प्रभु के मेरे जीवन में किए बड़े कामों की गवाही को पढ़कर उनका उत्साहवर्धन हुआ था और उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि मैं इसे और विस्तार से लिखूँ। उस बहन के कहने पर मैंने इसे 3 पन्नों में लिखा। उसके बाद जब मैं अपनी पत्नी सहित गिडियन्स सेवा का भाग बना और उन्हें मालूम हुआ कि जो पहली बाइबल मुझे दी गई थी वो एक गिडियन बाइबल थी तो संस्था के अगुवा लोगों ने मुझे इसे और विस्तृत रूप से लिखने को कहा ताकि सेवकों को उत्साहित किया जा सके। मैं इस बात का जीवंत उदाहरण था कि जब किसी को परमेश्वर का वचन दिया जाता है तो उससे कैसा अनूठा काम होता है। मैंने अपनी गवाही को और विस्तृत रूप में लिखा।

इसके बाद मेरा ऐसा कोई विचार नहीं था कि मैं इसे एक क़िताब के रूप में लिखूँ।



***

कुछ दिनों पहले मैंने एक कहानी सुनी जिसने मुझे इस क़िताब (मेरी विस्तृत ग़वाही) को लिखने के लिए प्रेरित किय़ा। इसके पीछे परमेश्वर ने जो उद्देश्य मुझे दिया है वो ये है कि वो सभी लोग जो उसी धर्म में पैदा हुए हैं, जिसमें मैं भी हुआ और जो अपने सृष्टिकर्ता परमेश्वर से दूर होकर अंधकार में भटकते हुए ईश्वर की खोज कर रहे हैं पर उससे कोसों दूर हैं (परंतु वो उनके इतना नज़दीक है, फ़िर भी वे उसे देख नहीं सकते), उसको जान सकें और उसे पा सकें।

कहानी जो मैंने सुनी, वो एक जवान लड़के संजय (परिवर्तित नाम – असली नाम ब्रायन) के विषय में थी। वह 17 वर्ष की उम्र में एक सड़क दु्र्घटना में मारा गया। इसे एक सत्य घटना भी माना जाता रहा है। जोशुआ हेरिस द्वारा लिखी गई पुस्तक (आई किस्ड डेटिंग गुडबाय) में एक कहानी में संजय अपनी असामयिक मृत्यु से पहले एक लेख लिखता है।

उस लेख में संजय ने लिखा कि उसने एक स्वप्न देखा जिसमें एक विशाल कमरा था। उसकी दीवारों पर चारों तरफ़ दराज़ें लगी थीं, जैसे की बैंक के लॉकर में या पुस्तकालय (लाइब्रेरी) में, जहां पुस्तकालय में उपलब्ध सभी क़िताबों की सूची, लेखक तथा क़िताब के नाम से लगी होती है। उस कमरे में इन फ़ाइलों का जैसे अंबार सा लगा था।

जैसे वो पास गया, पहली दराज़ जो उसने देखी, उसपर लिखा था – ‘लड़कियां जिन्हें मैं चाहता था‘। उसने उसे खोला और सूची-पत्रों (कार्ड) को पढ़ने लगा। उसे यह देखकर बड़ा झटका लगा कि वो उन नामों को जानता था। वो जल्दी जल्दी सभी दराज़ों को खोल खोल के देखने लगा। उस निर्जीव कमरे में उसके जीवन की सभी छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बातों का पूरा कच्चा चिट्ठा मौजूद था; यहां तक कि उन बातों का भी ज़िक्र था जिन्हें वो कभी का भुला चुका था।

एक एक कर खोल कर देखते समय कुछ अच्छी तो कुछ बुरी बातें, कुछ गौरवान्वित करने वाली तो कुछ शर्मिंदा करने वाली बातें सामने आने लगीं। अपने लेख में संजय लिखता है कि कुछ बातें तो उसे इतना शर्मिन्दा कर रहीं थीं कि वो इधर उधर देख लेता था कि कोई उसे देख तो नहीं रहा।

वो आगे लिखता है - ‘दोस्त’ नामक दराज़ में जो फ़ाइलें थीं उनमें से एक थी – “दोस्त: जिन्हें मैंने धोखा दिया”। उस फ़ाइल के सभी पन्ने सच्चाई से मेरी दास्तां बयान कर रहे थे।

उसने आगे लिखा है की सभी पन्नों पर अलग अलग शीर्षक (टाइटल) लिखे थे। उसके आश्चर्य का कहीं ठिकाना नहीं था क्योंकि उसके जीवन की हरेक बात इन फ़ाइलों में लिखीं थी। हरेक पन्ने पर अंत में उसका नाम तथा हस्ताक्षर अंकित थे।


इस तरह उसके जीवन के हर क्षेत्र के शीर्षक से फ़ाइलें तथा पन्ने (सूची-पत्र) वहां थे – क़िताबें जो मैंने पढ़ीं, झूठ जो मैंने बोले, सहायता जो मैंने की, चुटकुले जिनपर मैं हँसा इत्यादि।

अन्ततः उसको एक फ़ाइल मिली – ‘हवसपूर्ण विचार’ ।

वो लिखता है कि एक सिहरन उसके सारे शरीर में दौड़ गई। यह फ़ाइल कुछ ज्यादा ही मोटी थी। उसने थोड़ा सा फ़ाइल को बाहर निकालकर पढ़ने की कोशिश की लेकिन उसमें दी गई बारीक जानकारियों को देखकर वो हक्का बक्का रह गया। वो सोच रहा था कि कौन है जो उसके बारे में इतना कुछ जानता है।

वो आगे कहता है – “सिर्फ़ एक विचार मेरे मन में कौंध रहा था – कोई इस फ़ाइल को कभी ना देखे – यहाँ तक कि कोई भी कभी इस कमरे को न देखे, मुझे यह सब नष्ट करना है।”

पागलों की तरह वह उस फ़ाइल को फ़ाड़ने की कोशिश करने लगा। आश्चर्य की बात यह थी की वह एक भी पन्ना फ़ाड़ नहीं सका, वो पन्ने जैसे स्टील के बने थे। वो अपना सिर पकड़कर दीवार के सहारे खड़ा होकर सोचने लगा की इस घड़ी में वो क्या करे। उसने एक दीर्घ सांस ली – जैसे कह रहा हो “क्या मेरे बस में कुछ भी नहीं”। वह बहुत निराश हो चला था।

वो नीचे बैठ गया जैसे उसके घुटनों में जान न हो और ज़ोर ज़ोर से रोने लगा। उसे अपने आप पर शर्म आ रही थी। वो फ़ाइलें उसकी आंखों के सामने घूम रही थीं। बस यही विचार बार बार आ रहा था कि कोई कभी भी इस कमरे के बारे में ना जाने – हो सके तो इस कमरे को हमेंशा के लिए ताला लगाकर चाबी कहीं छुपा दे।

इतने में उसने देखा कि यीशु मसीह ने उस कमरे में प्रवेश किया और हरेक फ़ाइल को पढ़ने लगे। संजय आगे लिखता है कि उसने यीशु मसीह की आँखों में बहुत वेदना देखी – इतना दुखः जितना खुद उसे भी नहीं था। वो हरेक पन्ने पर संजय की जगह अपने हस्ताक्षर करने लगे।

प्रभु को हस्ताक्षर करते देख संजय बेतहाशा उन पन्नों को देखने लगा और प्रभु यीशु को हस्ताक्षर करने से रोकने लगा। वह बोल रहा था - नहीं, नहीं, आपका नाम वहां नहीं होना चाहिए। पर सारे पन्नों पर यीशु मसीह के हस्ताक्षर थे, पता नहीं प्रभु ने यह कैसे किया। वो हस्ताक्षर इतने गहरे थे कि संजय का नाम कहीं दिखता ही नहीं था। वे प्रभु यीशु के लहू से लिखे थे। प्रभु यीशु ने हरेक पन्ने पर, जो संजय के पापों के लेख थे, एक एक कर अपने हस्ताक्षर कर सारे पापों का ज़िम्मा अपने ऊपर ले लिया।

संजय पापमुक्त हो गया था क्योंकि यीशु ने उसके सारे पाप क्षमा कर दिए थे।


***

जब मैंने पहली बार इस कहानी को सुना था तो मेरी आँखों से आंसू निकल पड़े थे। इस कहानी ने मुझे इस क़िताब को लिखने के लिए प्रेरित किया क्योंकि मुझे यह अहसास हुआ कि यह सिर्फ़ संजय कि कहानी नहीं है बल्कि यह हम में से किसी की भी कहानी हो सकती है।

सोचिए. क्या यह आपकी कहानी नहीं हो सकती है?

ज़रा सोचिए, आपने अपने जीवन में क्या क्या किया है जो आप सबसे छुपाना चाहेंगे। आपकी असफ़लताएँ, आपकी गलतियां, वो सारे ग़लत विचार जो आपने अपने माता-पिता और भाई-बहन के बारे में किए। वो समय जब आपने अपने सबसे अच्छे मित्रों की आलोचना की, वो समय जब आपने किसी लड़के अथवा लड़की को व्यभिचार के लिए लुभाने की कोशिश की, आपके कामुकतापूर्ण विचार, वो पुस्तकें और कहानियां जो आपने पढ़ीं, वो चुनाव जो आपने किए, वो झूठ जो आपने बोले, वो लोग जिनको आपने सताया, यह सूची का़फी लम्बी हो सकती है।

यदि आप अपने आप से सत्य बोल सकते हैं तो आप जानेंगे कि जो मैंने कहा वो एक सच्चाई है। आप इस यात्रा में मुझपर आपकी अगुवाई करने के लिए विश्वास कर सकते हैं।



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विश्वास आत्मिक जीवन का आधार है, और जो ईश्वर को जानना चाहे, उसे इस बात पर विश्वास करना चाहिए कि बाइबल परमेश्वर का वचन है जिसके द्वारा परमेश्वर अपने आपको मानवजाति पर प्रकट करना चाहता है। मैं कई तर्कों और सबूतों के आधार पर यह साबित करने की कोशिश कर सकता हूँ की बाइबल परमेश्वर का जीवित वचन है – परंतु फ़िर भी विश्वास के बिना आप इसे समझ नहीं सकते।

इतने पर भी यदि आप बाइबल पर विश्वास नहीं करते, तो भी एक बार को सोचिये – क्या हो यदि बाइबल ही एकमात्र सच्चाई हो। अग़र बाइबल ही परमसत्य है तो आप इसपर अविश्वास करके कहां जाएँगे? और यदि बाइबल में लिखी बातें सच हैं तो आप अपना अनंतकाल का जीवन कहां बिताएँगे।

बाइबल में सुसमाचारों1 में ऐसा लिखा है -

“कुछ ढका नहीं, जो खोला न जाएगा; और न कुछ छिपा है, जो जाना न जाएगा। इसलिए जो कुछ तुम ने अन्धेरे में कहा है, वह उजाले में सुना जाएगा; और जो तुम ने कोठरियों में कानों-कान कहा है, वह छत पर से प्रचार किया जाएगा।”

[लूका 12:2, 3]

1[मत्ती, मरकुस, लूका तथा युहन्ना रचित सभी सुसमाचार परमेश्वर के मानव रूप में मनुष्यजाति के पाप क्षमा करने के लिए एक उद्धारकर्ता के स्वरूप में आने की खुशखबरी है। यह मत्ती, मरकुस, लूका तथा युहन्ना नामक चेलों की नज़र से तथा पवित्र आत्मा की प्रेरणा से यीशु मसीह के आने की तथा उनके द्वारा किए गए पवित्र बलिदान का विवरण है जो हमें परमेश्वर के असीमित प्रेम तथा दया के बारे में बताते हैं]

संजय के स्वप्न को हम एक ईश्वरीय दृष्टांत के रूप में देख सकते हैं। हम में से हरेक को इस दुनिया को छोड़ने के बाद न्याय सिंहासन के सामने खड़ा होना पड़ेगा। क्या आप उस पवित्र परमेश्वर के सामने खड़े हो सकेंगे?

कदापि नहीं। जब तक आपके पापों का लेखा मिट ना जाए जैसे कि वो कभी थे ही नहीं, तब तक आप स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते और न ही परमेश्वर से नज़रें मिला सकते हैं।

यीशु मसीह इस पापमय दुनिया में इसलिये आए थे, ताकि क्रूस पर अपने प्राणों का बलिदान कर हमें पापमुक्त करें। प्रभु यीशु ने अपना रक्त बहाकर हमारे पापों को धोकर साफ़ किया है और हमें मृत्यु के बन्धनों से मुक्त किया हैं। इसे हम विश्वास द्वारा अनुभव कर सकते हैं।

मैं यह खुशखबरी सबको सुनाना चाहता हूँ और यह पुस्तक इस दिशा में मेरा एक कदम है। आप इस बात निम्न दृष्टांत के द्वारा समझ सकते हैं।

कल्पना कीजिए कि मैं एक गरीब आदमी था और मुझे एक ऐसी बीमारी हो गई जिसका इलाज मेरे शहर में उपलब्ध नहीं था। मुझे बताया गया कि दूसरे देश में एक चिकित्सक (डॉक्टर) था जो मेरी बीमारी का इलाज कर सकता था। तो क्या मैं उस चिकित्सक से सिर्फ इसलिये इलाज नहीं करवाता क्योंकि वो मेरे देश में नहीं रहता? मैं तो तैयार था मगर मेरे पास इतने पैसे नहीं थे। फ़िर भी मैंने उससे बात की और उसने अपने खर्चे पर आकर मेरे घर में मेरा इलाज किया। मुझे कहीं जाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। वो मेरी परिस्थिति को समझता था और इसीलिए उसने मुझसे कुछ फ़ीस भी नहीं ली।

क्या ये मेरी कृतघ्नता नहीं होगी कि मैं अपने दिल की गहराई से उसका धन्यवाद ना करूँ?

क्या आप मुझे स्वार्थी नहीं कहेंगे यदि मैं अपने चारों और उन लोगों को देखूं जो उसी बीमारी से ग्रसित हैं जिसमें कभी मैं भी था, और फिर भी चुपचाप रहूं? क्या आप को यदि उस बीमारी से छुटकारा मिला होता और आप अपने परिजनों तथा मित्रजनों को उस बीमारी में दुखः पाते देखते, तो क्या आप उस डॉक्टर का पता उन सबको न बताते?

हम सब ‘पाप’ की गंभीर बीमारी से ग्रसित हैं जो अन्ततः आत्मिक मृत्यु को लाती है जो कि कुछ और नहीं बल्कि हमेंशा के लिए ईश्वर से अलगाव और नर्क की आग में जलना है। प्रभु यीशु हमें इससे छुटकारा दिला सकते हैं। आप मेरी बात पर यक़ीन करें या न करें – परन्तु यही सच्चाई है।


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कुछ लोग ऐसा मानते हैं और कहते भी हैं कि ईश्वर, नर्क तथा उद्धार इत्यादि कमज़ोर लोगों द्वारा गढ़े हुए विचार हैं जो जीवन की कठिन परिस्थितियों से लड़ने की हिम्मत नहीं रखते और इन बातों का सहारा लेते हैं।

यदि ईश्वर को मैंने व्यक्तिगत रूप से अनुभव के द्वारा नहीं जाना होता तो मैं भी ऐसे ही लोगों में शामिल होता। लेकिन अपने जीवंत अनुभव के द्वारा मैं जानता हूँ कि परमेश्वर एक सच्चाई है, यीशु मसीह परमेश्वर के पुत्र हैं, पवित्र आत्मा जीवित हैं जो हमें हर दिन जीने की सामर्थ देते हैं।

किसी का भी अविश्वास इस सच्चाई को बदल नहीं सकता।

यदि मैं कहूं कि मैं ‘कार’ नामक किसी वस्तु में विश्वास नहीं करता और इसी विश्वास (या कार में अविश्वास) के साथ यदि सड़क के बीचों-बीच चलता रहूँ तो सामने से तेज गति से आती कार से मैं अपने आप को बचा नहीं सकता और न ही उस दुर्घटना के परिणाम से।

मेरे विचार में, इंडोनेशिया में आए सूनामी, अमरीका में आए कतरीना तथा ओमान में आए गोनू समुद्री चक्रवातीय तूफ़ानों में सबसे ज़्यादा नुकसान उठाने वाले (यहाँ तक कि जान गवाँने वाले) लोग वो ही थे जिन्होनें या तो इन चेतावनियों पर यकीन नहीं किया या समय रहते सुरक्षित जगहों पर शरण नहीं ली। जो सबसे कम प्रभावित हुए वो वे लोग थे जिन्होनें चेतावनी पर विश्वास किया और सही समय पर सुरक्षित स्थानों पर चले गए।

ईश्वर, स्वर्ग, नर्क, पाप, मृत्यु तथा उद्धार सभी सच हैं – तथ्य हैं। हालांकि हम इन पर विश्वास करने या ना करने के लिए स्वतंत्र हैं परंतु जो विश्वास नहीं करते उनको ईश्वर के न्याय के दिन के लिए कोई आशा नहीं होती। परमेश्वर का वचन तथा उसके सेवक समय समय पर लोगों को इनके विषय में चेतावनी देते रहे हैं। कलीसिया (चर्च) पिछले 2000 वर्षों से इस दुनिया को पाप तथा मृत्यु के खतरे से आगाह करती रही है और मनुष्य के लिए परमेश्वर की आवश्यकता तथा उसके प्रेम के बारे में बताती रही है – क्या आप चेतावनी पर ध्यान देकर अपने आपको अनंतकाल के लिए सुरक्षित करना नहीं चाहेंगे?

परमेश्वर विद्यमान है। जो लोग इस बात को नहीं मानते (नास्तिक) वे या तो इस बात का विरोध करते हैं या वो सिर्फ़ सच्चाई से मुँह मोड़कर और अपनी आँखें बंद किए रहते हैं। यदि हम इस ब्रह्मांड की विशालता को देखें, सारे ग्रहों को, चाँद-सितारों को और धरती में के सारे सुव्यवस्थित (नियमशील) प्राकृतिक प्रकियाओं को देखें तो हम किसी भी तरह ईश्वर के अस्तित्व को नकार नहीं सकते। हम अवश्य ही यह जान लेंगे कि यह सब ज़रूर एक समझदार और अति विद्वान सृष्टिकर्ता के द्वारा रचा गया है जो जीवित है और जो कि इस प्रकृति का भाग कतई नहीं हो सकता। मेरे विचार में ईश्वर के ना होने का प्रमाण ढूंढना ज़्यादा मुश्किल है।

इस बात में कोई संदेह नहीं कि हम में से हरेक को परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करना ही चाहिए, चाहे हम किसी भी धर्म के अवलम्बी क्यों न हों। परमेश्वर धर्म की परवाह नहीं करता क्योंकि धर्म परमेश्वर के द्वारा नहीं अपितु मनुष्य के द्वारा ईश्वर के बारे में बनाये गये विचार तथा उसे पाने के तौरतरीके और रीतिरिवाज हैं। धर्म की तो भले ही नहीं पर परमेश्वर हमारी परवाह ज़रूर करता है क्योंकि उसे हम से प्रेम है।


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मैं इसी सच्चाई के बारे में सबको बताना चाहता हूँ, चाहे वो किसी भी धर्म, जाति अथवा विचारधारा के मानने वाले क्यों न हों। उन सभी लोगों तक पहुंचने के लिए, जिन तक मैं व्यक्तिगत रूप से नहीं पहुँच सकता, मैंने अपने अनुभव इस पुस्तक में लिखे हैं ताकि परमेश्वर की महिमा हो।

इस धरती पर जो जीवन हम बिताते हैं वो एक बहुत ही सीमित समय के लिए है जो कि अनंत जीवन की तुलना में कुछ भी नहीं है। यह इस प्रकार है जैसे कि यहाँ से लेकर चाँद अथवा सूरज तक खींची गई एक रेखा पर, जो कि अनंत जीवन के समान मानी जा सकती है, एक बिंदु भर अंकित कर दिया जाए तो वो इस धरती पर हमारे मानवीय जीवन का समय होगा। हम इस बिंदु जितने जीवन के लिए तो सब कुछ करते हैं पर अनंत जीवन के लिए कुछ नहीं। वह परमेश्वर जो हमारे शरीर में इतनी नसें लगा सकता है जो कि लम्बाई में जोड़ने पर धरती के तीन चक्कर काट सकती है तो क्या वो अपनी सामर्थ्य से हमारा उद्धार नहीं कर सकता? क्या उसे हमारे कर्मों की ज़रूरत है, पर धर्म में हम ऐसा ही करते हैं।

इस क़िताब को लिखने का उद्देश्य यह नहीं है कि मैं किसी धर्म विशेष या पंथ की आलोचना करूँ, परंतु ये कि परमेश्वर द्वारा मेरे जीवन में किए गए विस्मयकारक कामों का बयान करूँ। मैं आपको उत्साहित करना चाहता हूँ कि आप भी सच्चे ईश्वर में विश्वास करें, उसके प्रेम का अनुभव करें, उसकी सामर्थ में चलें और उसकी महिमा को अपने जीवन में काम करते देखें।

अध्याय 3 ::: क्या आप तैयार हैं

"सामान्यतया हम अपने धर्म का चुनाव नहीं करते हैं बल्कि यह हमारे जन्म के साथ ही तय हो जाता है कि हमारा धर्म क्या होगा ठीक उसी प्रकार जैसे जन्म के साथ ही हमारा लिंग भी तय हो जाता है। हमें इनमें से किसी को भी बदलने की ज़रूरत नहीं है, हालांकि कुछ लोग ऐसा करते हैं। धर्म हमें जीवन जीने की नैतिक बातें तो सिखा सकता है पर मोक्ष नहीं दिला सकता, उसके लिये हमें ईश्वर के साथ आत्मिक संबंध बनाना पड़ता है। क्या आप इसके लिये तैयार हैं?"

अपनी जिन्दगी के इक्कीस वर्ष मैंने बिना सुख-शांति के गुज़ार दिए। मैं अपने परिजनों के साथ दुःखों में जीवन व्यतीत करता रहा। मैं मुट्ठी में से निकलती रेत के समान अपना जीवन खोता जा रहा था।

21 वर्ष की उम्र में मैंने जाना कि केवल ईश्वर ही आनंदित, शांतिमय और अनंत जीवन का स्रोत है। वह हमें ऐसी शांति और आनंद देता है जो हमारी परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करते बल्कि ये दुःख की कठिन घड़ी में और भी ज्यादा उभर आते हैं। वो निराशा के समय में आत्मविश्वास और आशा का संचार करता है।

यीशु मसीह को अपने उद्धारकर्ता प्रभु के रूप में जान लेने के बाद मैंने इस बात पर गहन विचार किया कि सच्ची शांति तथा आशीष का अनुभव करने में मुझे इतने वर्ष क्यों लगे।

अपनी सारी खोज तथा विचार के बाद मैंने यह निष्कर्ष निकाला कि प्रभु यीशु को जानने से पहले मैं परमेश्वर के समीप ही नहीं जाता था और न ही उसके बारे में कुछ सोचता था। मैं बस जीवन से या तो संघर्ष करता जा रहा था या सभी बातों को ऐसे लेने लगा था जैसे वे मेरी नियति थी, जैसे कई लोग कहते थे – मेरी किस्मत।

सच्ची शांति और खुशी सिर्फ़ परमेश्वर की ओर से आती हैं। इन्हें धन, सम्पत्ति, संबंधों, यौन सहवास, प्रसिद्धि इत्यादि दुनिया की अन्यान्य चीज़ों में खोजने के बजाय यदि आप परमेश्वर की चाहत करें तो वो आपके जीवन में सुख-शांति व आनन्द की भरपूरी देगा।

किसी भी व्यक्ति के लिए, जो सच में परमेश्वर से भेंट करना चाहता हो, उसे कुछ प्रश्नों के उत्तर खोजने की ज़रूरत पड़ेगी। संभवतया, पहले कुछ सवाल ‘कौन’ से शुरू होंगे, जैसे -

मैं कौन हूँ?

ईश्वर कौन है?

सृष्टि का रचनाकार कौन है?

मेरे पापों का न्याय कौन करेगा?

कौन मुझे मेरे पापों से छुड़ा सकता है?

दुसरे तरह के सवालों में ‘क्या’ की श्रेणी आती है -

पाप क्या है?

मेरे पापों का परिणाम क्या है?

मैं ईश्वर को पाने के लिए क्या करूँ?

मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है?

मृत्यु के बाद क्या होता है?

स्वर्ग और नर्क क्या होता है?

सच्चाई की खोज के दौरान अगले प्रश्नों की श्रेणी ‘क्यों’ वाली होगी-

मैं क्यों मानता हूँ कि कोई ईश्वर है?

मुझे उससे मिलने की इच्छा क्यों होती है?

परमेश्वर ने मुझे और सारी मानवजाति को क्यों बनाया?
हम पाप क्यों करते हैं?

दुनिया में बीमारियां और दुःख क्यों होते हैं?

हमें मृत्यु क्यों आती है?

आखिरी प्रश्नों की माला ‘कैसे’ वाले सवालों से पूरी होती है।


अपने आप से आप ये सवाल करें और देखें कि आपको क्या उत्तर मिलते हैं?

इस सारी सृष्टि का निर्माण कैसे हुआ?

मेरी रचना कैसे हुई?

मेरे पाप कैसे क्षमा हो सकते हैं?

मैं ईश्वर से कैसे मिल सकता हूँ?

मैं कैसे आशीषित, शांतिमय तथा सार्थक जीवन जी सकता हूँ?

हमें सत्य की प्राप्ति के लिये इन सारे और शायद कुछ और सवालों के उत्तर खोजने की ज़रूरत पड़ेगी। यदि हम ऐसा कर सकें तो कुछ रुकावटें तो स्वतः ही हट जाएँगी। मैं आपको इन सवालों के हल ढूंढने के लिए प्रेरित करना चाहता हूँ।


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यीशु मसीह के बारे में प्रथमतया सुनने के तुरंत बाद जो पहला काम मैंने किया वो ये था कि मैंने ईश्वर, धर्म तथा मोक्ष के बारे में अपने सारे ज्ञान को जो कि हिन्दू शास्त्रों, सन्तमत, अम्बेड़करवाद की क़िताबें तथा बौध धर्म और राधास्वामी सत्संग के ग्रंथों को पढ़कर अथवा सत्संगों में जाकर मैंने सीखा था, उन सबको मैंने उपरोक्त प्रश्नों की कसौटी पर कसा और पाया कि ये सभी एक समान बातें करते हैं परंतु मेरे सारे सवालों का उत्तर देने में असमर्थ हैं।

अपने इन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए मैंने बाइबल को भी पढ़ा। मैंने पाया कि बाइबल तो शुरू ही इन प्रश्नों के उत्तर के रूप में होती है। बाइबल का प्रथम अध्याय इस बात को खोलकर बताता है कि कैसे परमेश्वर ने सृष्टि का निर्माण किया। बाइबल आगे यह बताती है कि कैसे और किस उद्देश्य के साथ परमेश्वर ने प्रथम नर और नारी (आदम तथा हव्वा) की सृष्टि की और फ़िर कैसे उन्होंने परमेश्वर की नज़र में पहला पाप किया और दुःख, मृत्यु तथा बीमारियों के श्राप को अपने ऊपर ले लिया।

बाइबल स्पष्ट रीति से सभी बातों का खुलासा करती है कि क्यों हम पाप करते हैं, क्यों हम जीवन में अलग अलग समस्याओं का सामना करते हैं। बाइबल ये भी बताती है कि परमेश्वर ने मानव की सृष्टि विशेष तरीके से इस उद्देश्य के साथ की कि वो उसके साथ संगति करे और अपनी स्वतंत्र इच्छा से उससे प्यार करे, यही कारण है कि क्यों सिर्फ़ मनुष्य ही ईश्वर को पाने की इच्छा रखता है परंतु जानवर नहीं और यह ही इस बात का भी कारण है कि क्यों मानव ईश्वर को पाने के लिए अलग अलग धर्म के रूप में नए नए तरीके इज़ाद करता है।

बाइबल हमें परमेश्वर के स्वभाव तथा हमारे प्रति उसकी योजनाओं का भी उल्लेख करती है। बाइबल में मेरे सभी प्रश्नों का सुस्पष्ट जवाब मिला। और गौरतलब बात ये है कि बाइबल का अनुवाद विश्व की बहुत सी भाषाओं में तथा भारत की बहुत सी स्थानीय भाषाओं में हो चुका है। आप इस पुस्तक में लिखी बातों को परमेश्वर के वचन से जांच सकते हैं। आप आज ही बाइबल की एक प्रति लेकर ऊपर बताये सभी सवालों के उत्तर पा सकते हैं। यह एक अनोखी पुस्तक है जो जीवन देती है। जब हम परमेश्वर की आवाज़ सुनना चाहते हैं तो यह हमसे जीवंत रूप में बात करती है।

बाइबल परमेश्वर का जीवित वचन है जो कि पवित्र आत्मा की प्रेरणा से लिखा गया। यह अपने आप में एक पूरा पुस्तकालय है जो कि ऐसी 66 क़िताबों का संकलन है जो कि 40 अलग अलग लेखकों के द्वारा, जो कि अलग अलग व्यक्तित्व के स्वामी थे तथा जीवन क्षेत्रों से संबंध रखते थे (जैसे कोई गडरिया, कोई राजा, कोई वैद्य और कोई चुंगी लेने वाला और कोई मछुआरा), तथा जो कि 1500 वर्षों के समयकाल में 3 अलग अलग महाद्वीपों (अफ़्रीका, एशिया और युरोप) में 3 अलग अलग भाषाओं में लिखी गईं। इतने विविध कारकों के होते हुए भी सभी क़िताबें परमेश्वर के प्रेम के एक ही विषय के बारे में बात करती हैं और जिनमें किसी प्रकार का विरोधाभास नहीं हैं।

क्या ये आश्चर्यचकित करने वाली बात नहीं है?

ये सभी तथ्य इस बात को साबित करने के लिए काफ़ी हैं कि बाइबल परमेश्वर द्वारा रचित ग्रंथ है। यदि आप इस बात पर विश्वास नहीं करते तो मैं आपको एक नम्र चुनौती देता हूँ कि आप इस दुनिया के किसी भी पुस्तकालय से ऐसी 66 क़िताबों को ढूंढें जो 40 लेखकों के द्वारा (जो कि विभिन्न श्रेणी के लोग हों) 3 विभिन्न महाद्वीपों में 1500 वर्षों के समयकाल में लिखी गई हों जो कि एक ही विषयवस्तु का विवरण हो और उनमें आपस में किसी भी तरह का कोई विरोधाभास न हो। मैं समझता हूँ कि आप इस चुनौती को पूरा नहीं कर पाएँगे।

ईश्वर के मेरे अनुभव के निचोड़ में मैं आपसे सिर्फ़ एक ही बात कह सकता हूँ – हम परमेश्वर को अपनी सीमित बुद्धि से जान नहीं सकते, तौभी परमेश्वर के लिए ऐसी कोई बाधा नहीं जिसे पारकर वह हमें ढूंढ ना सके या अपने आप को हम पर प्रकट ना कर सके। इसीलिए प्रभु यीशु मसीह इस दुनिया में इंसान बनकर आए। वह कोई परदेसी नहीं है बल्कि हमारा सृष्टिकर्ता परमेश्वर है जिसे पाने की आकांक्षा और प्रार्थना हम जीवनभर करते रहे हैं। हालांकि हम उसे समझ नहीं सकते परंतु विश्वास के द्वारा उसका अनुभव ज़रूर कर सकते हैं।

मैं आपको पापों की क्षमा तथा अनंत जीवन की आशा पाने के लिए दो तरीके बता सकता हूँ। पहला ये कि आप विश्वास करें कि यीशु मसीह परमेश्वर के पुत्र हैं जो आपके व्यक्तिगत पापों की क्षमा कराने तथा स्वर्ग के द्वार आपके लिए खोलने के लिए मानव रूप में आए। यह विश्वास करने के बाद आप उनको अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करें और उन्हें अपने जीवन का सम्पूर्ण अधिकार दे दें। अन्यथा दूसरा तरीका यह है कि इस विषय में आप पूरी खोज करें और सारे निष्कर्ष निकालने के बाद जब आप पाएँ कि यीशु मसीह ही सच्चा परमेश्वर है (जो कि मेरा विश्वास है कि ऐसा ही होगा) जो आपसे प्रेम करता है और जो आपके पापों को क्षमा कर सकता है तो फ़िर उसपर विश्वास करें और प्रार्थना के द्वारा उसे अपने जीवन का स्वामी बनाएँ।

मेरे विचार में, यदि आप पूरा विश्वास कर सकते हैं तो पहला तरीका अच्छा है अन्यथा आप दूसरे तरीके पर विचार करें।


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मेरे व्यक्तिगत जीवन में, मैं परमेश्वर को पाने की अथवा उसे ढूंढने की कोई इच्छा नहीं रखता था, फ़िर भी अपने असीम प्रेम के कारण परमेश्वर ने मुझसे भेंट की तथा मुझे सच्चाई का मार्ग दिखाया ताकि मैं आशीषित तथा सार्थक जीवन जी सकूँ।

मेरा जन्म हिन्दू परिवार में हुआ था। हम लोग इस धर्म की पालना मूर्तिपूजा के द्वारा नहीं करते थे, बल्कि हम मौन साधना तथा सत्संग पद्धति में विश्वास करते थे। जैसा हमें सिखाया गया था उसके अलावा हम ईश्वर के बारे में किसी भी और तरीके से नहीं सोचना जानते थे।

सामान्यतया हम अपने धर्म का चुनाव नहीं करते हैं बल्कि यह हमारे जन्म के साथ ही तय हो जाता है कि हमारा धर्म क्या होगा ठीक उसी प्रकार जैसे जन्म के साथ ही हमारा लिंग भी तय हो जाता है। हमें इनमें से किसी को भी बदलने की ज़रूरत नहीं है, हालांकि कुछ लोग ऐसा करते हैं। हम स्वाभाविक तौर पर ही अपने अपने धर्म का पालन करने लगते हैं और इसी कारण कई बार हम अपने आप को उसी धर्मविशेष की सीमाओं में ऐसे बांध लेते हैं कि सच्चाई की खोज करने तथा उसे स्वीकार करने में हमें असुविधा होती है, खासतौर पर तब, जब सत्य हमें किसी और ही धर्मग्रंथ और विश्वास की ओर संकेत करता है।

मैंने धर्म-परिवर्तन नहीं किया, और न ही धर्म ने मेरा जीवन परिवर्तन किया; इसलिए मैं किसी धर्म में विश्वास नहीं करता और इसीलिए किसी भी धर्म की पैरवी नहीं करूँगा। मैं समझता हूँ कि धर्म हमें अपने रीतिरिवाजों में बांधता है जबकि परमेश्वर हमें स्वतंत्रता देता है। बाइबल के अनुसार उसने हमें यहां तक स्वतंत्रता दी कि हम स्वयं इस बात का चुनाव करें कि हम उससे प्रेम करना चाहते हैं या उसका तिरस्कार। मैं आपको आश्वस्त करना चाहता हूँ कि मैं धर्म के विषय में बात नहीं करूँगा न ही किसी बात को मानने के लिए आपको बाध्य करूँगा इसलिए आप बिना किसी संकोच के इस पुस्तक को पढ़ सकते हैं।

हाँ, मैं बीच बीच में आपको आत्ममंथन के लिए उत्साहित ज़रूर करता रहूँगा। मैं आपसे नम्र निवेदन करता हूँ कि आप भी अपने पूर्वाग्रहों को छोड़कर परमेश्वर को नये तरीके से देखने का प्रयास करें।

चाहे आप किसी भी सम्प्रदाय के मानने वाले क्यों न हों, रोमन कैथोलिक, मुस्लिम, हिंदू, ईसाई (जिसने नये जन्म का अनुभव नहीं किया), अथवा किसी भी और मत को मानने वाले, सच्चाई ये है कि ईश्वर ने किसी धर्म का प्रतिपादन नहीं किया इसलिए धर्म के विषय में सोचना अथवा विवाद करना व्यर्थ है। मेरे विचार में परमेश्वर को तथा अनंत जीवन को पाना तभी संभव है जब कि हम उसके साथ एक प्रेम संबंध स्थापित करें। हम सभी हाड़-मांस के इंसान है और सांसारिक रूप से शरीर में जन्मे हैं, परन्तु परमेश्वर के साथ संबंध बनाने और उसमें जीवन व्यतीत करने के लिए हमें आत्मिक जन्म लेना आवश्यक है। परमेश्वर आत्मा है और हम उससे आत्मिक तौर पर ही सम्बंध रख सकते हैं।


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मैं मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुआ और पला बढ़ा। मैंने वो सब कुछ किया जो अपनी बढ़ती उम्र में शायद हरेक लड़का करता है। मैंने गलतियां भी की और अपनी समझ में अच्छे काम भी किये। अपने जीवन में मैंने खुशी के क्षण भी देखे और दुःख की घड़ियां भी बिताईं। जीवन निरंतर अपनी गति से एकसमान चलता जा रहा था जब तक कि य़ीशु मसीह से मेरा साक्षात्कार नहीं हुआ जो कि स्वयं हमारे जीवन के लेख का लेखक है। जीवित परमेश्वर को जान लेने से मेरा जीवन समूल परिवर्तित हो गया। उसने अपनी चुनी हुई एक बेटी के द्वारा अपने आप को मुझ पर प्रकाशित किया।

कई बार हम ऐसा सोचते हैं कि हम ईश्वर की खोज करते हैं परन्तु सच्चाई इसके विपरीत है। परमेश्वर हमसे प्यार करता है और उसका यह प्रेम हम पर इसी रीति से प्रकट हुआ है कि जब हम पाप ही में थे तभी मसीह हमारे खातिर मानवरूप में आया ताकि हमें हमारे पापों से छुटकारा दिलाए तथा परमेश्वर के साथ, जो कि हमारी जड़ है और जिसके बिना हम सूखते जा रहे हैं, हमारा मेल कराये। उसने हमारे जैसा साधारण परन्तु पापरहित जीवन जीया, हमारे लिए कांटों और कोड़ों की मार को सह लिया, हमारे पापों की कीमत चुकाने के लिए क्रूस पर अपने प्राण त्याग दिए तथा तीसरे दिन जी उठकर 40 दिन तक अपने चेलों के साथ रहा और फ़िर जीवित स्वर्ग में उठा लिया गया। अब वो पिता परमेश्वर के दाहिनी ओर बैठा है और हमारे निमित्त वकालत करता है। मैंने इस संदेश पर विश्वास किया है और इसलिए मेरे पास अनंत जीवन है तथा परमेश्वर में संपू्र्ण आशा है।

ये क़िताब आपके हाथ में है यह इस बात का संकेत कि परमेश्वर आपमें रुचि रखता है और अपनी योजना आप पर प्रकट करना चाहता है। क्या आप उससे आशीष पाने के लिए तैयार हैं? क्या आपने परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से जानने का निर्णय कर लिया है? मैं प्रार्थना करता हूँ कि परमेश्वर आपको इस क़िताब के पढ़ने पर आशीष दें।

अध्याय 4 ::: पारिवारिक पृष्ठभूमि

मेरा जन्म 17 फरवरी 1977 को भारत के राजस्थान प्रदेश के जयपुर जिले में रैगर परिवार में हुआ था। मेरे दादाजी रेल विभाग में सेवारत थे। दादीजी के खराब स्वास्थ्य के कारण उन्होंने चालक पद से सफ़ाई निरीक्षक के तौर पर तबादला ले लिया।

अपने बचपन में हम जब भी गाँव जाते तो हमें बड़ा प्यार और आदर मिलता था। दादाजी को बच्चे ‘अंग्रेज बाबा’ के नाम से पुकारते थे।

दादाजी राधास्वामी सत्संगी थे और संतमत के मानने वाले थे। उनके साथ ही साथ, पूरे तौर पर न सही, परंतु आंशिक रूप से तो हम सभी इसी मत के अवलम्बी थे।


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संतमत का शाब्दिक अर्थ होता है – संतों का मत। संत का एक सामान्य अर्थ माना जाता है – ‘एक अच्छा व्यक्ति’ परंतु ऐतिहासिक तौर पर इस शब्द का इस्तेमाल मध्य सामयिक भारत के कवि गुरुओं के सम्बंध में किया जाता है।

तेरहवीं शताब्दी से लेकर आगे समय समय पर उत्तर तथा मध्य भारत में संत कवि आध्यात्म की नई नई शिक्षाएँ लेकर आते रहे। विभिन्न संत कवि जैसे कबीर, मीराबाई, नामदेव, तुकाराम आदि ने हिन्दू धर्म में प्रचलित जातिप्रथा के विरोध में आम बोलचाल की भाषा में तथा लोकभाषाओं में विभिन्न रचनाएँ की। आमतौर पर सभी संत कवियों कि शिक्षा, ईश्वर की खोज अपने ही अंदर भक्ति के द्वारा करने की रही है।

यूं तो मैं ईश्वर के हमारे अंदर होने की बात की बाइबल की दृष्टि से विवेचना करने की इच्छा रखता हूँ पर मैं अपनी विषयवस्तु से दूर नहीं जाना चाहता और इसलिए सिर्फ़ इतना कहूँगा कि बाइबल के अनुसार ईश्वर हमारे अंदर नहीं रहता। वह यह चाहता है कि हम अपने पापों से मन फिराकर उसको अपना प्रभु अंगीकार करें और उसे अपने जीवन में आमंत्रित करें। हमारे ऐसा करने पर वो हमारे शरीर रूपी मन्दिर में रहने लगता है। सामान्यतया ये साधना घरों में ही शान्त वातावरण में की जाती है। इसमें हर दिन 2.5 घन्टे की साधना को अच्छा माना जाता है।

उत्तर भारत में राधास्वामी सम्प्रदाय संतमत की विचारधारा के अनुयायी हैं। राधास्वामी सत्संगियों को सात्विक जीवन जीने की सलाह दी जाती है जिसमें मांस तथा मदिरा का सेवन और मूर्तिपूजा प्रतिबंधित है । सत्संगी को नाम के भजन की कमाई करने की शिक्षा दी जाती है जिसके द्वारा वे अपने मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकें।

इस मत में ऐसा सिखाया जाता है कि गुरू मोक्ष की मूल कड़ी हैं तथा उनके सानिध्य में ही चेले साधना के द्वारा ईश्वर का अनुभव कर सकते हैं। इतनी सारी शिक्षाओं को सीखने तथा मेहनत करने के बाद भी उद्धार का स्पष्ट आश्वासन कोई नहीं देता तथा सब गुरू महाराज की कृपा पर निर्भर करता है।

उनकी क़िताबों में बाइबल की आयतों का उल्लेख भी मिलता है। बाइबल के वचनों के ऐसे इस्तेमाल से मैं सहमत नहीं हूँ क्योंकि वे उसे उसके असली संदर्भ से बाहर लाकर उसका प्रयोग करते हैं जो कि तर्क-सम्मत नहीं है और ठीक भी नहीं। वे अलग अलग धर्मशास्त्रों के अंश अपनी विचारधारा के प्रसार के लिए उपयोग तो करते हैं पर इस मिश्रित ज्ञान के कारण वे उन सारे प्रश्नों के उत्तर देने में असमर्थ हैं जो मैंने पिछले अध्याय में लिखे हैं।

कुल मिलाकर ये पंथ भी और धर्मों की भांति कर्मों के द्वारा उद्धार कमाने की शिक्षा देता है जो कि मेरी समझ में नामुमकिन है। कम से कम आज तक मुझे एक भी व्यक्ति नहीं मिला जिसने अपनी सभी इंद्रियों पर नियंत्रण कर लिया हो तथा जिसे उद्धार का पूरा आश्वासन हो जैसा कि मुझे यीशु मसीह में है।
यूं वे सच्चाई के काफ़ी करीब लगते हैं और नैतिक जीवन जीने के लिये उनकी शिक्षाएँ अच्छी भी हैं परंतु उद्धार कराने की सामर्थ नहीं रखती जो कि सिर्फ़ परमेश्वर के द्वारा संभव है।


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मैं सोचता था कि या तो अपनी समझ की कमी के कारण दादाजी जो कि पिछले 40 वर्षों से राधास्वामी विश्वास में थे, मेरी जिज्ञासाओं को पूरा नहीं कर पाए। बाद में अपनी खोज में मैंने पाया कि उनके पास असल में सत्य की पूरी जानकारी ही नहीं थी क्योंकि उनके पास सच्चा परमेश्वर नहीं था। उनका राधास्वामी विश्वास हमारे परिवार में कोई बड़ी आत्मिक उन्नति नहीं लेकर आया। पापा बचपन में कुछ इतवार को हमें सत्संग में लेकर जाया करते थे। बाद में हमारा सत्संग में जाना बंद हो गया क्योंकि वो इस मत की शराब ना पीने की मूल शर्त को ही पूरा नहीं कर पा रहे थे। अन्ततः हम इस विश्वास में मज़बूत नहीं हुए।

इस मत के विश्वासी होने का प्रभाव ये हुआ कि हमारे घर में मूर्तिपूजा नहीं होती थी। मैं यदा कदा अपने दोस्तों के साथ मंदिर चला जाता था।

इन सब बातों का दुष्प्रभाव ये हुआ कि मैं ईश्वर के बारे में लापरवाह हो गया था। भजन और साधना वैसे भी मेरे लिए बहुत मुश्किल थी और मूर्तियों में मेरा विश्वास था ही नहीं। सो कुल मिलाकर परमेश्वर के विषय में बेपरवाह हो गया जैसे कि कोई ईश्वर हो ही नहीं। मैं विश्वासहीन और ईश्वररहित इंसान बन गया था।

दादाजी राधास्वामी सत्संग में तब तक जाते रहे थे जब तक कि यीशु मसीह ने उनके जीवन के आखिरी साल में उनको छू नहीं लिया। हमारे संपूर्ण घराने में ज्यादातर लोग जो राधास्वामी सत्संग में विश्वास करते हैं और सबका जो झुकाव आध्यात्म की तरफ़ है, उसका श्रेय मैं फिर भी दादाजी को ही देना चाहता हूँ।


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पापा हमें अपने बचपन की कई बातें बताया करते थे। उन्होंने बताया कि उन्होंने बचपन में कुछ अंग्रेजों को देखा और कुछ तो उनके मित्र भी बन गए थे। उन्होंने ये भी बताया कि कैसे उन्होंने ईसाई मित्रों के साथ शराब पीना भी सीखा था।

मुझे उन्होंने कभी यह बताने का मौका नहीं दिया कि ईसाई परिवार में ही पैदा हो जाने से कोई व्यक्ति मसीही नहीं हो जाता अपितु अपने पापमय स्वभाव को क्रूसित कर मसीह में नया जन्म लेने पर ही कोई व्यक्ति असली मसीही संतान हो सकता है।


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हमारे मूर्तिपूजक नहीं होने का एक सकारात्मक प्रभाव यह हुआ कि हमारा पालन पोषण काफ़ी खुले विचारों के साथ हुआ और इसलिए हम किसी भी विचारधारा या विश्वास को जानने, उसपर विचार करने तथा यदि हम चाहें तो उसका पालन करने के लिए स्वतंत्र थे। मैं इसे सकारात्मक इसलिए मानता हूँ क्योंकि बाइबल से मैंने सीखा है कि जीवित परमेश्वर मूर्तिपूजा से प्रसन्न नहीं होता बल्कि नाराज होता है । बाइबल बताती है कि हम उस अनदेखे परमेश्वर की अनश्वर महिमा को अपनी कल्पनाओं के द्वारा नश्वर चीजों में परिवर्तित करने की कोशिश करते हैं, जो कि ठीक नहीं है।

न जाने क्यों आमतौर पर तो हम किसी व्यक्ति के देह छोड़ देने के बाद ही उसकी तस्वीर अथवा मूर्ति पर माल्यार्पण करते हैं पर अपनी श्रद्धा से अभिभूत होकर ईश्वर की मूर्ति अथवा तस्वीर पर माला तथा फ़ूल चढ़ाते हैं। क्या परमेश्वर जीवित नहीं है?

बाइबल कहती है:

“तुम मूरतों की ओर न फिरना, और देवताओं की प्रतिमाएँ ढालकर न बना लेना;मैं तुम्हारा परमेश्वर यहोवा हूँ।”

[लैव्यव्यवस्था 19:4]

“तुम अपने लिये मूरतें न बनाना, और न कोई खुदी हुई मूर्ति या लाट अपने लिये खड़ी करना, और न अपने देश में दण्डवत् करने के लिये नक्काशीदार पत्थर स्थापित करना; क्योंकि मैं तुम्हारा परमेश्वर यहोवा हूँ।”

[लैव्यव्यवस्था 26:1]

मैं यह बात अपने गले नहीं उतार पाता हूँ कि हम कैसे अपने सृष्टिकर्ता का निर्माण कर सकते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि उन्हें विश्वास करने के लिए किसी मूर्ति या तस्वीर को देखने की जरूरत पड़ती है। वो लोग जो ऐसा कहते हैं वे बताएँ कि हवा के अस्तित्व में विश्वास करने से पहले क्या उन्होंने हवा का चित्र देखा था। बिजली के अस्तित्व का पता हमें उसकी तस्वीर देखकर चलता है या तब जब बिजली के प्रभाव से पंखा चलता है? जब हम दुनियावी चीजों में बिना देखे विश्वास कर लेते हैं तो परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए हमें मूर्ति अथवा तस्वीर की क्या ज़रूरत है?


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जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, पापा ने कुछ दोस्तों के साथ बीयर पीने से शराब पीने की शुरूआत की थी। फ़िर जैसे जैसे नशे की आदत और ज़रूरत बढ़ती गई, बीयर पीछे छूट गई और शराब हावी होती चली गई। हालांकि उन्होंने अच्छा जीवन जीने की भरपूर कोशिश की परंतु कुछ हद तक ही सफ़ल हो सके। इससे मुझे यह यकीन हो गया कि अपने प्रयासों से अच्छा जीवन जीना दुश्वर है।

पापा ने हमें बताया कि उन्होनें अपने जीवन में कभी बुरे तो कभी अच्छे समय देखे। उन्होंने बहुत सी ऐसी बातें बताईं जो उन पर गुज़री थीं – जैसे उन्होंने रेल्वे स्टेशन पर सामान बेचा और अपनी पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए ट्यूशन पढ़ाया। उनकी माताजी (हमारी दादीजी) हमेंशा बहुत बीमार रहती थीं इसलिए बचपन से उन्होंने बहुत दुःख भी उठाए। बहुत सी बातें ऐसी थीं जिनके कारण उनका मन कड़वा हो गया था जिसके फ़लस्वरूप उनका स्वभाव काफ़ी कड़क और गुस्सैल हो गया था, और शायद इसी कारण वो किसी की सुनते भी नहीं थे।

पापा धार्मिक स्वभाव के व्यक्ति नहीं थे, कम से कम मैं तो ऐसा ही समझता हूँ; परंतु वो सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन में बढ़ चढ़कर भाग लेते थे तथा पिछड़ी जातियों के उत्थान के लिए अथक प्रयास करते रहते थे।

उन्होंने हम तीनों बच्चों के लिए काफ़ी बड़े बड़े लक्ष्य लिए और बहुत हद तक उनको पूरा भी किया। मेरी उच्च शिक्षा उसी का एक परिणाम है। वो मेरे लिए कई मायने में प्रेरणास्रोत रहे हैं। उन्होंने मुझे हमेंशा ऊँचा लक्ष्य रखने तथा उसे पाने के लिए निरंतर कार्यशील रहने के लिए उत्साहित किया।

पापा ने अपनी पहली नौकरी भारतीय सेना के अभियांत्रिकी विभाग (मिलिटरी इंजीनियरिंग सर्विसेज) में की थी। बाद में वो भारतीय स्टेट बैंक में आ गए तथा जीवनपर्यंत उसी में सेवारत रहे। वो कर्मचारी संगठन के नेता भी थे और अपने ओजस्वी भाषणों से, नेतृत्व के स्वाभाविक गुणों के कारण लोगों के मन में जगह बनाने में सक्षम रहे थे।


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मेरी मम्मी एक सरल औरत हैं। वो हमेंशा से ग्रहिणी ही रही हैं और कम से कम पैसे में घर चलाने की उनकी दक्षता देखते ही बनती है। मैंने हमेंशा उनको घर की ज़रूरतों के लिए अपनी इच्छाओं को दबाते देखा है। वो हमसे इतना प्यार करती हैं कि हमारे खातिर उन्होंने सारी शारीरिक व मानसिक प्रताड़नाओं को भी सह लिया ताकि हमारे उज्जवल भविष्य से किसी प्रकार का समझौता न हो।

मैंने हमेंशा से उनको धार्मिक प्रवृति का ही पाया है। पहले वो बड़ी आस्था से राधास्वामी साधना में लगी रहती थीं। अपने जीवन की परेशानियों का हल ढूंढने के लिए ऐसी शक्ति को ढूंढती थी जो उनकी परेशानियों से उन्हें निज़ात दिला सके। उनको सच्ची शांति सिर्फ़ प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता मान लेने के बाद ही मिली।

मेरे एक भाई और एक बहन भी है। भाई का नाम पंकज है तथा बहन का नाम हेमा है। और कुछ हो न हो, हम तीनों में एक बात काफ़ी लम्बे समय तक एकसमान रही है (कम से कम यीशु मसीह को अपना प्रभु मान लेने तक) – कि हम तीनों ही का गुस्से पर काबू नहीं था। प्रभु में विश्वास कर लेने के बाद से हमारे विश्वास के अनुसार हमारे व्यवहार में परिवर्तन आ गया है।

हम तीनों में से कोई भी पढ़ने में बहुत होशियार तो नहीं ही रहे फ़िर भी हेमा और पंकज ने बचपन से बहुत अच्छे परिणाम दिखाए थे। बचपन में, हेमा जयपुर के सबसे प्रतिष्टित विद्यालयों में से एक, जयपुर की MGD पब्लिक स्कूल में पढ़ती थी जो कि पापा के अथक प्रयासों का एक परिणाम था, तथा पंकज को भी पिलानी के प्रतिष्ठित विद्यालय, बिड़ला पब्लिक स्कूल में प्रवेश मिल गया था परन्तु किसी नेता की किसी दूसरे विद्यार्थी की सिफ़ारिश के कारण उसका एडमिशन रद्द कर दिया गया। जैसे भी हो, मुश्किल परिस्थितियों से जूझते हुए सभी ने अच्छा मुकाम हाँसिल कर ही लिया है और प्रभु से प्रेम करते हुए अपने अपने तरीके से जीवन बसर कर रहे हैं।

आज मैं जानता हूँ कि वे सब किसी ना किसी रूप में मेरे लिए आशीष का मूल रहे हैं और सभी ने मुझे कुछ न कुछ प्रेरणा दी है।


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परिवार में मुसीबतें

पापा हमसे बहुत प्यार करते थे। वो हमें अच्छा खिलाने-पिलाने में तथा बेहतरीन कपड़े पहनाने में रुचि रखते थे। मेरे दसवीं कक्षा में आने तक मेरे कपड़े पापा ही सिलते थे। मैं आज तक यह समझ नहीं पाता हूँ कि इतना प्यार करने वाले हमारे पिता बाद में कैसे हमसे इतना दूर होते चले गए कि हमारे प्यार को और उनके प्यार की हमारी ज़रूरत को समझ ही नहीं सके।

वो शराब के विषय में किसी के सुझावों को नहीं सुनते थे। धीरे धीरे वो पूरी तरह से शराब के चंगुल में फ़ँसते चले गए और सभी से अपने सम्बंध खराब कर बैठे। उनके परम मित्र, परमार अंकल, तँवर अंकल, खान अंकल, सब उनको समझाकर थक चुके थे।

हर शाम को पापा शराब के नशे में धुत्त लौटते थे और घर में घुसने के साथ ही मारपीट शुरू कर देते थे। उनको गुस्सा होने के लिए किसी सही कारण की ज़रूरत नहीं होती थी। बाद में वो समय भी आ गया जब वो सबके सामने मम्मी और हम सब बच्चों को पीटने लगे। हम उनकी इस आदत से बहुत शर्मिंदा होते थे पर कोई रास्ता भी नहीं था, वो इस आदत के खिलाफ़ कुछ भी सुनने को ही तैयार नहीं थे।

सन 1990 और उसके बाद, रात-ब-रात हमें अपना घर छोड़कर किसी पड़ोसी के घर शरण लेना एक आम बात हो गई थी। कभी कभी तो दिसम्बर-जनवरी की सर्द रातों में, पूरी पूरी रात हमें ठंड में खड़े खड़े पापा के बड़बडाने को समझते हुए भी गुज़ारनी पड़ती थीं।

हर शाम को हमारा दिल बैठने लगता था। हम मनाते रहते थे कि शायद आज पापा शराब पीकर ना आएँ पर हमारी दिल की इच्छा शायद ही कभी पूरी होती हो। कभी अग़र ये आस पूरी हो भी जाती थी तो खुशी ज़्यादा देर टिकती नहीं थी क्योंकि तरोताज़ा होकर सबसे पहला काम वो ये ही करते थे कि स्कूटर निकालकर शराब खरीदने चल देते थे और हमारा दिल फ़िर मुँह को आने लगता था कि आज क्या होगा। पूरी रात आराम से निकालना हमारे लिए एक चुनौती होता था। हम लोग शारीरिक और मानसिक तौर पर प्रताड़ित हो रहे थे, मम्मी इस सब में सबसे ज्यादा पिसती थीं।

इस रोज के चलन से हम बहुत दुःखी हो चुके थे और इसका प्रभाव हमारी पढ़ाई पर भी पड़ने लगा। पाप हमेंशा हमें पढ़ते देखना चाहते थे, और हम सिर्फ़ उनको दिखाने के लिए क़िताबें लिए बैठे रहते थे। शाम को पढ़ाई में हमारा मन नहीं लगता था। मैं दसवीं कक्षा में दूसरी श्रेणी से पास हुआ, 11वीं में एक विषय में फ़ेल हुआ और 12वीं में पूरी तरह फ़ेल हो गया।

एक स्थाई वैचारिक द्वंद हमारे परिवार में पैदा हो गया था। जब भी मैं पापा को शराब पीना बंद करने के लिए बोलता था, वो कहते, “मैं इसलिए पीता हूँ क्योंकि तुम अच्छे परिणाम नहीं लाते।” और मैं कहता, “मैं अच्छे परिणाम नहीं ला सकता क्योंकि मुझे पढ़ने के लिए अच्छा वातावरण नहीं मिलता...।” यीशु मसीह में उद्धार पाने के बाद स्वयं पापा ने ही ये गवाही दी कि शायद उन्होनें कुछ लाखों रुपयों की शराब तो पी ही डाली होगी।

हम अपने पापा से ही डरने लगे थे, और हमारे पास कोई आशा नहीं थी। हमारे और उनके बीच में एक दरार आ रही थी जो बढ़ती ही जा रही थी। हम अन्दर से टूट रहे थे – आत्मिक, भावनात्मक और धन के तौर पर भी। सच में जब तक प्रभु यीशु हमको नहीं मिले, हम आशाहीन रहे और तिल तिल कर मरते रहे।

आज मैं इस बात को समझता हूँ और जानता भी हूँ कि शैतान हमारे परिवार का नाश करने की कोशिश कर रहा था ताकि हम ईश्वर से दूर बने रहें और सच्ची खुशी से वंचित रहें। प्रभु यीशु ने इस बारे में चेताते हुए कहा है कि शैतान तो एक झूठा है जो लूटने, घात करने और नाश करने के लिए ही आता है। वो काफ़ी हद तक इस में सफल भी हो गया था।

शराब मानवजाति पर एक बहुत बड़ा श्राप है और यह बहुत से परिवारों को तोड़ रही है। परमेश्वर की रचना को नाश करने के लिए शैतान के सबसे खतरनाक हथियारों में से यह एक है। ये सिर्फ़ हमारे परिवार की कथा नहीं है बल्कि शायद आपके परिवार, या रिश्तेदारी या पड़ोस में भी ऐसा ही कुछ घट रहा हो। आप उन्हें न सिर्फ़ सांत्वना दे सकते हैं बल्कि परमेश्वर में आशा भी दे सकते हैं।
जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि हमारे परिवार पर एक श्राप था जो की अभी टूटना था, पर हमें पता नहीं था – कैसे...।


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बाल्यकाल से जवानी तक का सफ़र


मेरे बचपन में जब भी कभी मुझे स्कूल पहुंचने में देरी होने लगती थी तो मार पड़ने के डर से मैं अपने राधास्वामी गुरूजी को याद कर प्रार्थना करने लगता था कि वो मुझे सज़ा से बचा लें। मैं उनसे अपने पापा की शराब की आदत छुड़ाने के लिए भी प्रार्थना करता था। मेरी लगभग सभी प्रार्थनाएँ अनुत्तर चली जाती थीं।

मैंने अपने मन में यह ठान लिया कि कोई ईश्वर है ही नहीं। जैसे जैसे मैं उम्र में बढ़ता गया, ईश्वर से और दूर होता चला गया। मेरे लिए संकट में कोई सहायता नहीं थी, कठिन परिस्थितियों में कोई आशा नहीं थी। ऊपर से सब रिश्तेदार मुझे कहते थे कि मैं पापा को कुछ समझाता नहीं – जो कि जले पर नमक का काम करता था। मैं अपनी पूरी कोशिश कर रहा था पर हमेंशा असफ़ल हो जाता था। कोई हमारा दुःख नहीं समझता था।

मैं अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में बात करूँ तो मैं यही कहूँगा कि मैं अपने परिवार से, खासतौर पर अपनी मम्मी से और अपने भाई-बहन से मैं बहुत प्यार करता था। फ़िर भी हेमा और पंकज को बहुत सताता भी था। मैं बिलकुल भी दयालु स्वभाव का व्यक्ति नहीं था और अपने स्वार्थ के लिए उनको परेशानी में भी डाल देता था।

इस बारे में मुझे एक किस्सा याद है जब मैंने पंकज को पतंग लाने के लिए वो पैसे दिये जो मैंने रसोई से उठा लिए थे जहाँ मम्मी अकस्मात जरूरतों के लिए खुले पैसे रख देती थी। जब मम्मी ने उसे पतंग लिए आते देखा तो वो आगबबूला हो गईं और पूछने लगी कि उसे वो पैसे कहाँ से मिले। जवाब ना मिलने पर मम्मी ने उसे बहुत पीटा। मैं वहीं था पर मैंने अपनी गलती होते हुए भी सच बोलकर उसे पिटने से नहीं बचाया और अपने खातिर उसे परेशानी में डाल दिया।

दूसरा किस्सा तब का है जब मैं 8वीं कक्षा में था और पंकज शायद तीसरी या चौथी कक्षा में रहा होगा। हम लोग गूजर की थड़ी नाम की जगह पर रहते थे। मालवीय नगर स्थित हमारे स्कूल से घर तक की कुल दूरी करीब 8-10 किलोमीटर होगी। यातायात के सुलभ साधन न होने के कारण सुबह तो पापा हमें छोड़ देते थे पर वापस आते समय कई बार हम पैदल ही आ जाते थे। उसके पीछे मेरा दूसरा उद्देश्य अपने जेबखर्च के लिए पैसे बचाना भी होता था।

इस सड़क पर भारी वाहनों (ट्रक) की आवाजाही बहुत रहती थी। पैदल चलते समय मैं पंकज का पूरा ख़्याल रखता था और उसे काल्पनिक फ़िल्मी कहानियां भी सुनाता था ताकि उसे दूरी का भान न हो।

परन्तु मैं एक बात में बहुत दुष्टता दिखाता था। पैदल चलते समय जब मैं थकने लगता था तो तेज़ चलकर मैं थोड़ा आगे जाकर बैठ जाया करता था और जब वो मुझतक पहुँचकर बैठने की कोशिश करता तो मैं घर पहुंचने में देर होने के डर से उसे चलते रहने के लिए बाध्य करता था। इस बात को सोचकर मैं आज बहुत आश्चर्चचकित होता हूँ कि मैं ऐसा क्यों किया करता था, यकीनन ऐसी दुष्टता करने से मुझे कभी कोई लाभ नहीं हुआ था।

मैं अपने बड़े होने का नाजायज़ फ़ायदा उठाता था और अपने भाई-बहन से लड़ता था। ज़्यादातर तो मैं ही उन्हें पीटा करता था। खासतौर पर हेमा अपने अड़ियल स्वभाव के कारण कुछ ज्यादा ही पिटती थी। मेरी बुरी आदतों के कारण वे दोनों मुझे पसंद नहीं किया करते थे। मैं समझ नहीं पाता था कि वो ऐसा क्यों करते थे क्योंकि मैं मन से तो उनसे बहुत प्यार करता था। मैं यह समझ ही नहीं सका कि मुझे अन्तर्मन से ही नहीं अपितु बाहर भी प्रेम दिखाने की ज़रूरत है क्योंकि वे मेरे मन में नहीं झांक सकते थे।


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अपनी किशोरावस्था में मैं बहुत दबाया गया, इसलिए आक्रोश मेरे अंदर जमा होता चला गया और जवान होने पर मैं इसे कहीं न कहीं निकालना चाहता था। इसलिए मैं लड़ाई झगड़ों में पड़ने लगा।

मेरे पास बहुत सी ऐसी मीठी यादें नहीं है जिनको याद कर मेरा मन गुदगुदाने लगे। मैं पढ़ाई में असफ़ल था, बिगड़ा हुआ बच्चा था, गंदा भाई था, परिवार पर बोझ था। हर तरफ़ से हार, असफ़लता और दुख ने मेरा दामन थाम रखा था।

इसके अलावा सबसे आखिर में अगर मैं कुछ लिखना चाहूं तो वो मेरा चरित्र है। शायद कुछ कामों के विषय में तो लोग जानते भी हों जो मैंने अपने जीवन में किये परंतु उनसे अलग ऐसे काम भी थे जो सिर्फ़ मैं या मेरा ईश्वर जानता है। बहुत से पाप तो मैंने बस कल्पना में किए थे। बाइबल पढ़ने के बाद मुझे पता चला कि परमेश्वर हमें हमारे विचारों में किए गए पापों के लिए भी उत्तरदाई ठहराता है क्योंकि वो हमारे मस्तिष्क से गुजरने वाले हर विचार को भी जांचने वाला परमेश्वर है। वासनामयी विचारों पर मंथन करना, गंदी फ़िल्में देखना, लड़कियों पर फ़िकरे कसना, सस्ता साहित्य पढ़ना आदि मेरे किशोरावस्था से जवानी तक के वे पाप थे जिन्हें बहुत कम लोग जानते हैं।

ये बड़े दुःख की बात है कि शारीरिक संबंधों से जुड़े पाप जवान लोगों पर अपना शिकंजा जकड़ लेते हैं कि चाह कर भी वे इसमें से अपनी सामर्थ्य से तो बाहर नहीं ही आ पाते हैं।

ऐसे पाप करते समय मेरा मुख्य बहाना ये होता था कि सभी ऐसा करते हैं तो इसमें कौन सी बड़ी बात है। शायद कई लोग इन बंधनों में बंधे हैं परन्तु इसका अंगीकार करने की हिम्मत उनमें नहीं है। सिर्फ वे लोग जो पवित्र आत्मा के द्वारा प्रेरित किए जाते हैं वे उसका अंगीकार तो करते ही हैं साथ ही साथ क्षमा मांगकर आगे का जीवन प्रभु के साथ चलाते हैं।

अध्याय 5 ::: ईश्वर से मिलन

परमेश्वर की मेरे जीवन में तैयारी


स्कूल की पढ़ाई के बाद, 1995 में मैं कॉलेज गया। कॉलेज की पढ़ाई के पहले साल में मुझे 55% अंक मिले। द्वितीय वर्ष में मैंने कॉलेज के चुनावों में नामांकन पत्र भरा, चुनाव लड़ा और हार गया। इस वर्ष में मेरे 45% अंक ही आए। मैं अंधकारमय भविष्य की ओर अग्रसर था।

कॉलेज के दिनों में छात्रावास (हॉस्टल) में रहने वाले छात्र बसों में किराया नहीं देते थे। हालांकि मैं हॉस्टल में नहीं रहता था परन्तु फ़िर भी उनके नाम से मुफ़्त में सफ़र किया करता था। बस वाले छात्रावास के नाम से डरते थे इसलिए पैसा नहीं मांगते थे। फ़िर भी यदि किसी ने मांग ही लिए तो मैं उनको डराने की कोशिश करता था और मारपीट भी कर लेता था।

एक बार मैनें एक बस वाले से किराए के मामले में हुई नोक-झोंक को इतना बढ़ा दिया कि हमने बहुत से वाहनों को रोका, क्षति पहुंचाई, चालकों और सहचालकों को पीटा और यहाँ तक कि एक बस को आग लगाने की भी कोशिश की। इसके कारण निजी बसों की बहुत बड़ी हड़ताल हो गई। कई बस वाले हथियार लेकर मुझे ढूंढते थे कि मुझे सबक सिखाएँ। मैं बहुत डर गया था। मुझे कई दिनों तक छुपना पड़ा ताकि बात ठंडी हो जाए। मैं अकेले कहीं नहीं जाता था और बस में तो कतई भी नहीं। पापा ने अपना स्कूटर मुझे दे दिया था। मैं स्कूटर में अपनी सुरक्षा के लिए हथियार रखता था कि कुछ अनहोनी हो तो संभाल सकूँ।

ऐसी कुछ घटनाओं के अतिरिक्त ज्यादातर लड़ाईयां मेरी अपनी नहीं होती थीं बल्कि मैं दूसरों के लिए लड़ता था। मैं सोचता था कि दूसरों की सहायता करने से ही शायद मुझे शांति मिले, पर मेरी इस आदत ने कभी कभी मुझे बहुत शर्मिंदा भी किया।


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जब मैं विज्ञान स्नातक की कॉलेज की पढाई के तीसरे वर्ष में आया तो एक अंजान ताकत ने मुझे अपने बीते जीवन का अवलोकन करने तथा भविष्य के लिए एक उद्देश्य ढूंढने के लिए प्रेरित किया। जब मैंने यह विचार किया तो पाया कि मैं पूरी तौर पर एक असफ़ल जीवन जी रहा था जिसका कोई स्वर्णिम भविष्य नहीं हो सकता था।

मेरी स्नातक की पढा़ई के दो वर्षों का औसत 50% ही आ रहा था।

ईश्वर के बारे में न तो मैं विचार करता था और न ही उसका कोई भय मेरे मन में था। ‘मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है’, बस यही सवाल मेरे मन-मस्तिष्क में घूमता रहता था।

पहली बार मेरे जीवन में ऐसा समय आया था कि मैं इस तरह की असमंजस की स्थिति में पड़ा था। मैं एक अच्छी जिन्दगी जीना चाहता था और अपनी मम्मी तथा भाई-बहन को खुशमयी जीवन देना चाहता था, उनके चेहरे पर खुशी की झलक देखना चाहता था, पर जैसा जीवन मैं जी रहा था, उससे यह कतई संभव ही नहीं था। मुझे अपने आप पर शर्म भी आती थी।

उस अंजान सामर्थ्य की अगुवाई में मैंने अपने आप ही तीसरे वर्ष में 84% अंक लाने का निर्णय लिया। आप सोचेंगे की जो गिरते पड़ते पास होता हो वो ऐसे सपने कैसे ले सकता था, मैं भी ऐसा ही सोचता था। यह एक ऐसा पहाड़ था जिसे मैं अपने आप से नहीं हिला सकता था, तौभी उस अंजान ताकत के चलाए मैं मेहनत करने लगा और आश्चर्य की बात ये हुई कि आधे साल में ही मैंने लगभग सब पढ़ाई पूरी कर ली। मैं अपनी कक्षा के सबसे कुशाग्र छात्रों की भी मदद करने लगा और मेरे कुछ सहपाठियों ने तो ट्यूशन जाना ही बंद कर दिया। मैं उनकी मदद करने में सक्षम हो गया था। मैं नहीं जानता था कि कौन मेरे लिए यह सब कर रहा था पर यह बात सच है कि मेरा जीवन बदलने लगा था। आज मैं भलीभांति जानता हूँ कि परमेश्वर मेरे जीवन में एक बड़े परिवर्तन की तैयारी कर रहा था।


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मुझे सुसमाचार सुनाया गया

स्नातक पढ़ाई के तीसरे वर्ष में, भौतिकी के कुछ सवालों के लिए मैंने एक ट्यूशन पढ़ना शुरू किया। उसी ट्यूशन में मेरी मुलाकात रश्मि से हुई। मैं तो उससे दोस्ती करना चाहता था परंतु परमेश्वर की योजना कुछ और ही थी।

लड़की जो मेरे लिए एक कमज़ोरी थी उसे ही परमेश्वर ने अपनी महिमा प्रकट करने के लिए इस्तेमाल किया।

एक बार हमारे ट्यूटर चाहते थे कि हम सब अतिरिक्त कक्षा के लिए इतवार की सुबह आ जाएँ पर रश्मि बिलकुल तैयार ही नहीं थी। बहुत समझाने पर वो 1:00 बजे के बाद आने को तैयार हुई। मैंने जब उससे इसका कारण जानना चाहा कि उसके जीवन में परीक्षा की तैयारी से बढ़कर ऐसा क्या था कि वो आने को तैयार नहीं थी, तब उसने बड़े स्पष्ट शब्दों में बताया, “मैं चर्च जाती हूँ और किसी भी कारण से उसे छोड़ नहीं सकती।”

मैंने फ़िर पूछा, “तुम तो हिंदू हो, फ़िर चर्च क्यों जाती हो?” और उसका जवाब था कि वो एक जीवित परमेश्वर को जान गई थी जो कि उससे प्यार करता था, जिसने उसके पापों को क्षमा कर दिया था तथा उसे उद्धार (मोक्ष का आश्वासन) दिया था। इनमें से कोई भी बात मेरे दिमाग में नहीं घुस पाईं। मुझे यह सारी बातें बड़ी भारी लग रही था और मैं सोच रहा था – कौन इस उम्र में यह सब बातें करता है।

उसने बताया कि परमेश्वर ने इंसान को बनाया ही इसलिए कि उसके साथ संगति करे, इसीलिए, यद्यपि पाप के कारण इंसान आज परमेश्वर से दूर है तौभी उसे पाने के लिए अलग अलग तरीके से प्रयास करता रहता है। उसने और भी बताया कि हम अपने सृजनहार अनश्वर परमेश्वर की सृष्टि अपने नश्वर हाथों नहीं कर सकते। किसी ने ईश्वर को नहीं देखा और इसीलिए उसकी सही तस्वीर या मूर्ति बना पाना असंभव है। उसका तर्क काफ़ी शक्तिशाली था, मेरे पास उसका कोई तोड़ भी नहीं था।

उसने मुझे बताया कि कैसे परमेश्वर ने इस पूरी दुनिया से, बिना किसी जातिगत तथा धर्मगत भेदभाव के, इतना प्रेम किया कि अपना इकलौता पुत्र दे दिया और यह भी कि कि कैसे यीशु मसीह ने पापरहित होते हुए भी हमारे पापों की क्षमा के लिए अपने प्राण देकर हमारे सभी पापों की कीमत चुका दी।

कई बार यह विचार हमारे मन में आ सकता है कि कैसे कोई हमारे पापों के लिए हमारे जन्म से भी पहले उसकी कीमत चुका सकता है। और यह भी की पापों की क़ीमत चुकाने के लिए किसी को मरने की क्या ज़रूरत है और वह भी स्वयं ईश्वर को। तो इसके उत्तर में यहां सारांश में मैं यह कह सकता हूँ कि बाइबल के अनुसार सबने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं और पापों से छुटकारा पाए बिना स्वर्ग में प्रवेश नहीं मिल सकता। पाप की मज़दूरी अर्थात क़ीमत मृत्यु (परमेश्वर से आत्मिक अलगाव) है। सभी को यह क़ीमत चुकानी ही पड़ेगी। क्योंकि हम लोग इस योग्य नहीं कि इस क़ीमत को चुका सकें इसलिए परमेश्वर ने अपने आपको मानवरूप (प्रभु यीशु) में दिया जिसने हमारे पापों के लिए 2000 साल पहले ही कीमत चुका दी। इसे हम बीमा की तरह देख सकते हैं जो हम पहले से करते हैं परंतु यह लागू तब ही होता है जब हम किसी दुर्घटना का सामना करते हैं।

अगले दिन उसने मुझे एक गिडियन बाइबल उपहार स्वरूप भेंट की। मैं नास्तिक नहीं था इसलिए उस किताब को फ़ेंका नहीं पर अपने घर में रख लिया। कई महीनों तक मैंने उसे कभी नहीं पढ़ा। इस दौरान हमारी मित्रता बढ़ती चली गई और हमने आने वाली परीक्षाओं की तैयारी साथ में करना शुरू कर दिया।

एक बार उसने मुझे चर्च (कलीसिया) आने के लिए आमंत्रित किया। पहली बात तो ये कि मैं चर्च की आराधना पद्धति नहीं जानता था, और दूसरी ये कि फ़िल्मों को देखकर चर्च की जो तस्वीर मेरे दिमाग में बनी हुई थी उससे बाहर आ पाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था। मैंने अपनी पुरज़ोर कोशिश की कि मैं वहाँ न जाऊं पर उसके आग्रह के आगे मेरी एक न चली और आखिरकार मैं उसके साथ जाने के लिए तैयार हो गया।

पहली बार चर्च जाने का मेरा अनुभव सच में अविस्मरणीय रहा। यह चर्च कतई भी वैसा नहीं था जैसा मैंने सोचा था। मैं सोचता था कि चर्च का मतलब एक अंग्रेजों के जमाने की पुरानी इमारत जिसमें एक चर्च फ़ादर हो जो कि बड़े शान्त मगर रोबदार शब्दों में बेंचों पर बैठे लोगों को कुछ सिखा रहे हों या फ़िर एक छोटे से जालीदार कमरे में किसी के पापों का अंगीकार सुन रहे हों।

लेकिन यहाँ जो मैंने देखा वो ये था कि एक घर जैसी इमारत थी जिसके एक बड़े हॉल के बाहर बहुत से चप्पल-जूते बाहर उतरे हुए थे। अंदर जाकर मैंने देखा कि कुछ बुजुर्ग लोग कुर्सियों पर बैठे थे पर बाकि सब लोग जमीन पर बिछी हुई दरी पर बैठे थे। एक सरसरी नज़र से देखने पर मैंने पाया कि मेरी कल्पना के उलट सभी औरतें और लड़कियां सलवार सूट या साड़ी पहने थीं और सभी ने अपने सिर चुन्नी या साड़ी के पहलू से ढँक रखे थे। एक बड़ी सी गीत मंडली के बजाय 2-3 जवान लड़के-लड़की आराधना के गीत गिटार और अन्य बाजों के साथ गा रहे थे। पूरी सभा जैसे ईश्वर की वंदना में खोई हुई थी। मेरी कल्पनाओं के विपरीत चर्च के पास्टर ने एक बड़े से सफ़ेद चोगे के बजाय साधारण पतलून-कमीज पहन रखी थी और वो ही सबको परमेश्वर की आराधना करने को प्रेरित कर रहे थे।

यह सब कुछ अभिभूत कर देने वाला दृश्य था। मैं इसे देखते हुए अपने ही विचारों में मग्न था कि तभी आराधना का समय खत्म हो गया और पास्टर ने प्रार्थना का समय घोषित किया। उन्होंने कहा कि जैसे परमेश्वर का पवित्र आत्मा अगुवाई करे और बोझ दे वैसे ही सब लोग अपनी जगह से उठकर दूसरे लोगों के लिए दुआ करें। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था – क्यों लोग एकाएक अपनी जगह छोड़कर अलग अलग व्यक्ति के पास जाकर प्रार्थना करने लगे। मैंने यह सब देखकर अपनी आखें बंद कर ली क्योंकि एक तो मैं नया था और यह सब नहीं जानता था, और दूसरे कोई और भी मुझे नहीं जानता था और मुझे कुछ करने की ज़रूरत नहीं थी। तभी मैं एक आवाज़ को सुनकर चौंक गया। एक बुज़ुर्ग व्यक्ति मेरे पास खड़े थे।

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस व्यक्ति को मेरे लिए कहां से अगुवाई और बोझ मिला क्योंकि मैं तो पहली बार आया था। ये पवित्र आत्मा कौन है जो मुझे जानता है और मेरे लिये बोझ देता है?

उन बुजुर्ग व्यक्ति का नाम ज़ेवियर था। उनके पूछने पर मैंने अपना नाम बताया। उन्होंने फ़िर पूछा कि क्या मुझे किसी विशेष विषय में प्रार्थना कराने की इच्छा थी। मुझे इस तरह की प्रार्थना के बारे में कुछ पता नहीं था तो मैंने बस अपने पापा की शराब की आदत छूट जाने के लिए दुआ करने को कहा। ज़ेवियर अंकल ने मेरे लिए ऐसी वेदना और प्रेम के साथ प्रार्थना की जैसे कि वो मेरे परिवार के भाग हों और हमारे दुख से रोज गुजरते हों। उनकी दुआ में बहुत अधिकार झलक रहा था जैसे कोई बच्चा अपने पिता से अधिकार के साथ कुछ मांगता है। मैंने पहली बार मसीही प्रेम देखा।

जब हम चर्च से बाहर निकल रहे थे तो रश्मि ने मुझे पास्टर से मिलाया। पास्टर ने एक बात बोली जो मेरे अंदर बैठ गई, उन्होंने कहा, “बृजेश, हम किसी धर्म में विश्वास नहीं करते, बल्कि हम परमेश्वर के साथ एक जीवित संबंध में विश्वास करते हैं।” उन्होंने आगे बताया कि परमेश्वर हमारा स्वर्ग में विराजमान पिता है जिसने हमें पैदा किया है और वो हम में रुचि रखता है। वो हमें व्यक्तिगत संबंध बनाने के लिए बुलाता है ताकि हम उसके साथ हमेंशा के लिए एक हो जाएँ।


***

रश्मि दिल्ली की रहने वाली थी। जयपुर में वो सिर्फ़ पढ़ाई के लिए आई हुई थी। एक दिन उसने पूछा कि क्या वो मेरे घर में कुछ दिन रह सकती थी, क्योंकि उसे रहने की समस्या हो गई थी। मैंने मम्मी से पूछा और उन्होंने सकारात्मक जवाब देते हुए कहा कि वो हमारे घर में मेरी बहन के साथ उसके कमरे में रह सकती थी।

अब हम ज़्यादा समय साथ बिताने लगे। मैं बड़ी गहराई से उसको जांच रहा था और हर बात में प्रभु से उसके प्रेम, जीवन तथा व्यवहार में शुद्धता और परमेश्वर में उसकी आशा को देखकर बड़ा आश्चर्यचकित होता था। मैंने उससे सवाल पूछना शुरू किया और वो बड़े धीरज के साथ मेरी सब जिज्ञासाओं को शान्त करती रही। उसने मुझे प्रार्थना करना सिखाया और आराधना के नए नए गीत और भजन सिखाए। मैंने उसके साथ बाइबल पढ़ना शुरू किया। शुरूआत में मैं बाइबल को समझ नहीं पाता था पर उसने मुझे यह भी सिखाया कि मैं बाइबल को कैसे पढ़ूं।

बाद में रश्मि ने और भी कई बातें मुझे बताईं जैसे कि यदि हम परमेश्वर में विश्वास करें और उससे प्रार्थना करें तो वो ज़रूर उत्तर देगा। उसने यह भी बताया कि बाइबल परमेश्वर का वचन है जिससे वो हमसे बात करता है। उसने यह भी बताया कि बाइबल के वचन हमारी आत्मा का भोजन है जिसके बिना हमारी आत्मा कमज़ोर हो जाती है और पाप में गिर सकती है इसलिए इसमें से रोज़ पढ़ना ज़रूरी है। उसने ज़ोर देकर फिर से इस बात को समझाया कि परमेश्वर ने मानव रूप में जन्म लिया, उसने अपने जीवन में कभी पाप नहीं किया फिर भी हमारे पापों के लिए क्रूस पर अपने प्राण त्याग दिये। ऐसा और कौन ईश्वर या गुरू है जिसने हमारे लिए अपने प्राण दिये हों? उसने कहा कि यदि मैं इस बात पर विश्वास करूँ तो मेरा मोक्ष उसी समय हो जाएगा और मैं स्वर्ग में प्रवेश करने का अधिकार पा लूँगा उसने बताया कि ये सिर्फ विश्वास की बात है जो शायद हमारे ज्ञान के द्वारा हमें समझ न आ सके।

तब से मैं बाइबल को एक भूखे व्यक्ति की तरह खाने लगा और प्रभु मुझसे वचनों के द्वारा बातें करने लगे। परमेश्वर ने मेरी अगुवाई करना शुरू कर दिया और आध्यात्म के तथा सफल जीवन के भेद बताना शुरू कर दिया। तीतुस 3:5, 1युहन्ना 1:10, मरकुस 16:16 तथा युहन्ना 3:16, 17 मेरी प्रिय आयतें बन गईं हैं जिन्होंने मेरा जीवन हमेंशा के लिए बदल दिया है।

रश्मि, प्रभु में मेरी बहन, मेरे जीवन में परमेश्वर की एक दूत बनकर आई। उसके काम, उसकी बातें और जीवन जीने का उसका तरीका मुझे प्रभावित कर गया। उसका परमेश्वर से अगाढ़ प्रेम मुझे उसके श्रोत को जानने के लिए प्रेरित करते रहे। उसने उस ‘अनजानी ताकत’ को जानने में पूरी सहायता की।

वो अनजानी ताकत अब मुझे मालूम हो गई थी की वो प्रभु यीशु थे। परमेश्वर को मैं अपने व्यक्तिगत ईश्वर और अपने उद्धारकर्ता के रूप में जान गया था।

अध्याय 6 ::: परिवर्तन

परिवर्तन की एक प्रार्थना, जो बचपन से मैंने सीखी थी वो इस प्रकार है -

असतो मा सदगमया,
तमसो मा ज्योतिर्गमया,
मृत्योर्मां अमृतं गमया।।


ये प्रार्थना मैंने बचपन में अपने स्कूल की डायरी में कई बार पढ़ी थी जिसका अर्थ इस प्रकार लिखा था – हे ईश्वर, मुझे असत्य (झूठ) से सत्य की ओर, तमस (अंधेरे) से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से जीवन की ओर लेकर जाएँ। इस अर्थ को मैंने कई बार पढ़ा था परंतु फ़िर भी इसका उत्तर मेरे पास नहीं था।
“मैं आपको यह बताना चाहता हूँ कि उद्धार (मोक्ष) व्यक्तिगत होता है। न तो हमारे पूर्वाग्रहों (पुराने रूढ़ीवादी विचारों) और न ही हमारे किन्हीं सम्बंधों के कारण हमें अपने आपको परमात्मा से मिलन करने से रोकना चाहिए। परमेश्वर हमसे प्रेम करता हैं और हम में से हरेक को पापों से मुक्ति दिलाना चाहता हैं।”

इस प्रार्थना का उत्तर मुझे तब ही मिला जब मैंने यीशु मसीह को जाना। प्रभु यीशु को जानने के बाद मुझे पता चला कि उनके नाम में की गई हमारी हरेक प्रार्थना परमेश्वर जरूर सुनता है और उनका उत्तर भी देता है – उसकी अपरम्पार दया में ‘हाँ’, या उसकी असीमित बुद्धि और ज्ञान में हमारे भले-बुरे को जानते हुए ‘नहीं’। सच्चे परमेश्वर के नाम से की गई कोई भी हमारी प्रार्थना व्यर्थ नहीं जाती।

यदि उपरोक्त प्रार्थना सच्चे मन से, सच्चे परमेश्वर से की गई हो तो इस प्रार्थना का उत्तर मिलना आवश्यक है । परमेश्वर मानवजाति से प्रेम करता है इसलिए उपनिषद की इस प्रार्थना का जवाब, परमेश्वर के वचन, बाइबल में मिलता है-

“...मार्ग और सत्य और जीवन मैं ही हूँ; बिना मेरे द्वारा कोई परमेश्वर तक नहीं पहुँच सकता”

[युहन्ना 14:6]

“मैं तुमसे सच सच कहता हूँ, जो मेरा वचन सुनकर मेरे भेजने वाले पर विश्वास करता है, अनन्त जीवन उसका है; और उस पर दण्ड की आज्ञा नहीं होती परन्तु वह मृत्यु से पार होकर जीवन में प्रवेश कर चुका है।”

[युहन्ना 5:24]

“यीशु ने फिर लोगों से कहा, “जगत की ज्योति मैं हूँ; जो मेरे पीछे हो लेगा वह अन्धकार में न चलेगा, परन्तु जीवन की ज्योति पाएगा।”

[युहन्ना 8:12]

एक और प्रार्थना के विषय में मैं आपको बताता हूँ – गायत्री मंत्र।


ॐ भूर्भुवः स्वः
तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो देवस्य धीमहि
धियो योनः प्रचोदयात्।


जिसका मतलब (भावार्थ) होता है – ओ बृहमांड के सृष्टिकर्ता परमेश्वर, हम आपकी असीम महिमा पर ध्यान धरते हैं। ऐसा होने दे कि आपकी वैभवमयी सामर्थ्य हमारी बुद्धि को प्रकाशित करे, हमारे पापों को क्षमा करे तथा सही मार्ग में हमारा पथ प्रदर्शन करें।

सदियों से मानव सत्य, शांति तथा सार्थक जीवन की खोज करता रहा है। यही खोज इस प्रार्थना के रूप में इस मंत्र में निकलती है, परंतु साथ ही ये बात समझने की भी ज़रूरत है कि यह प्रार्थना सृष्टिकर्ता परमेश्वर से की गई है, इसलिये इसका उत्तर सिर्फ़ जीवित अमूर्त प्रेमी सृष्टिकर्ता परमेश्वर की ओर से ही आ सकता है।

यदि इस प्रार्थना को ही हम गौर से देखें तो हम समझ सकते हैं कि बाइबल में इस प्रार्थना का भी उत्तर है –

यह प्रार्थना सृष्टिकर्ता परमेश्वर से है – और सच में हमें हमारे रचनाकार परमेश्वर से ही दुआ करनी चाहिए। बाइबल बताती है कि सच्चा सृष्टिकर्ता ईश्वर कौन है – यीशु मसीह। (युहन्ना 1:1, 1:3, 1:14)
यह प्रार्थना बुद्धि प्राप्ति, सत्य प्रकाशन, पाप क्षमा तथा सत्य मार्ग दिखाने के लिये है – य़ीशु मसीह ने कहा कि सत्य, मार्ग और जीवन वो खुद हैं (युहन्ना 14:6) जो परमेश्वर के पुत्र हैं, खुद ज्योति हैं (युहन्ना 8:12) जो कि मानव रूप में धरती पर आए ताकि हमें स्वयं अपना प्रकाश दें, हमारे पापों की क्षमा करें और हमारे लिए शांति तथा उद्धार का मार्ग प्रशस्त करें (युहन्ना 3:16,17)।


***


जैसा मैंने पहले बताया है कि प्रभु यीशु के बारे में बताए जाने पर तुरंत ही मैंने उन पर विश्वास नहीं कर लिया और इससे पहले कि मैं प्रभु यीशु को परमेश्वर का पुत्र और बाइबल को परमेश्वर का एकमात्र सत्य वचन मान लेता, मैंने इसे और सभी उन शास्त्रों को जो मैंने तब तक पढ़े थे, पहले बताए सारे सवालों की कसौटी पर कसा। मैंने गीता, रामायण तथा महाभारत को अपनी पाठ्य-पुस्तकों के रूप में पढ़ा था। पाठ्यपुस्तकों में ही संतमत के बारे में मैंने पढ़ा था तथा कबीर, रहीम तथा मीरा के दोहों का भी अध्ययन किया था। मैंने ओशो रजनीश का साहित्य पढ़ा था। मैंने दादीजी को पढ़कर सुनाते हुए राधास्वामी सत्संग के साहित्य का अध्ययन किया था और अपनी एक दादी (पापा की बुआ) से ओम शांति विश्वास के बारे में सुना था तथा पापा के उत्साहित करने पर डॉक्टर अम्बेड़कर के जातिवाद तथा धर्म के बारे में व्यक्त विचारों को भी पढ़ा था।

इन सब जानकारियों को एक ही कसौटी पर कसने के बाद मैंने यह निष्कर्ष निकाले कि-
@ सभी धर्म ईश्वर के बारे में बताने की कोशिश करते हैं और जीवन जीने के नैतिक मार्ग बताते हैं।
@ सभी धर्म भले काम करने तथा स्वार्थी अभिलाषाओं से दूर रहकर मोक्ष कमाने की शिक्षा देते हैं।
@ सभी धर्म ईश्वर को ऐसे देखते हैं जैसे की वो बहुत दूर हो तथा उस तक पहुँचना बहुत मुश्किल हो और यह भी कि उसे प्रसन्न करना दुष्कर कार्य हो।

यह सब बातें जानते हुए जब मैंने बाइबल पढ़ना शुरू किया तो मैंने इसमें अलग तरह की बातें पाईं जो कि ईश्वर के बारे में मेरे पुराने विचारों से बिलकुल भिन्न थीं जो मैंने बचपन से सीखी थीं।


यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानंधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यमहम

परित्राणायसाधुनां विनाशाय च दुष्कृताम,
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।


संस्कृत भाषा के ऊपर लिखे वाक्यांशों (श्लोकों) में यह बात सुस्पष्ट तौर पर झलकती है कि जब जब धरती पर धर्म की हानि होती है तो हर युग में पापियों का विनाश करने तथा साधु (धार्मिक) लोगों का उद्धार कर धर्म की संस्थापना करने के लिए ईश्वर किसी न किसी रूप में अवतार लेते हैं।

इस बात ने मुझे यह जानने के लिए और प्रेरित किया कि कौन पापी है और कौन साधु। और क्या परमेश्वर सच में पापियों का नाश कर देते हैं; क्योंकि अगर ऐसा है तो फि़र किसका उद्धार हो सकता है। सबसे ज्यादा तो मैं अपने आप के लिए चिंतित था कि मेरा क्या होगा, क्योंकि मैं इस बात को साफ़ तौर पर जानता था कि मैंने अपने जीवन में पाप किए थे और अगर ईश्वर सच में पापियों का नाश करने के लिए ही आते हैं तो फ़िर मेरा तो नाश होना निश्चित था। एक मायने में मेरा इस आत्ममंथन में पड़ना अच्छा भी था क्योंकि मोक्ष (उद्धार) एक व्यक्तिगत अनुभव है।

मुझे बचपन से सिखाया गया था कि पाप और पुण्य इंसान के लेखे में लिखे जाते हैं और इन्हीं के आधार पर उसका अगला जन्म निश्चित होता है। इसका मतलब यह है कि हमें जीवन भर पुण्य (अर्थात सुकर्म या अच्छे काम) करने चाहिए ताकि वो हमारे बुरे कामों से ज्यादा हों ताकि अगले जन्म में हमें अच्छी योनि मिले। सिर्फ़ वे लोग जिनके सुकर्म उनके दुष्कर्मों से मात्रा तथा गुणवत्ता में कहीं अधिक हों, वे ही मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। ये भी तभी संभव है जब आप किसी धार्मिक गुरू की शरण में जाएँ।

मुझे सिखाया गया था कि मैं पाप और पुण्य कर्मों में अन्तर को समझूं और हमेंशा सदकर्म करूँ। मैंने देखा कि सभी इसमें असफल ही होते थे। मैं भी असफल रहा था। इसलिए मैं यह मान लेने के लिए बाध्य हुआ कि कर्मों के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति असंभव है।

बाइबल के अनुसार कोई भी धर्मी नहीं है, एक भी नहीं (रोमियों 3:23) और इसलिए हमारी अपनी समझ और सामर्थ्य के अनुसार हम ईश्वर को रिझा नहीं सकते कि वो हमारा उद्धार करे। परमेश्वर के पवित्रता के मापदण्ड इतने ऊँचे हैं कि उन तक पहुँचना मनुष्य के लिए असंभव है। जिस प्रकार एक व्यक्ति जो कि लम्बाई में आधा इंच छोटा हो वह सेना में भर्ती होने में उतना ही असफल होता है जितना की एक छह इंच छोटा व्यक्ति; ठीक उसी प्रकार परमेश्वर की नज़र में हम सब बराबर के पापी हैं और अपने कर्मों से उसे पाने में हम सभी असफल रहते हैं। हमें उसकी दया तथा करूणा की ज़रूरत है।

जब मैंने बाइबल को पढ़ा तो मैंने पाया कि बाइबल का पाप को समझने का तरीका अलग था। इस विकट समस्या से निजात पाने का बाइबल का तरीका भी उन तरीकों से अलग था जो कि मुझे पहले से मालूम थे। यह देखने में तो आसान लगता है पर समझने में मुश्किल है। इसमें कहा गया है कि हम सब पापी हैं और परमेश्वर के कोप (क्रोध) के भागी हैं। फिर भी हमारे कर्मों के कारण नहीं बल्कि अपने असीम अनुग्रह (करूणा) के कारण उसने स्वयं हमारे पापों की क्षमा के लिए अपने पुत्र य़ीशु मसीह को बलिदानस्वरूप दे दिया कि हमारे पापों का निवारण करे। हमें सिर्फ इस बलिदान में विश्वास करने की ज़रूरत है।

दूसरी बात जो मैंने सीखी वो ये थी कि जन्म-मरण का कोई चौरासी लाख योनियों का चक्र नहीं है बल्कि सिर्फ एक मानव जीवन है जिसके बाद न्याय का होना और फिर अनंत जीवन का निर्णय होना निश्चित है। यह अनंत जीवन स्वर्ग में हो या नर्क में, यह न्याय के बाद ही सुनिश्चित होगा। एक अनोखी बात बाइबल से मुझे पता चली कि हमारे अनन्त जीवन का निर्णय हमारे ही हाथों में है। हम परमेश्वर की करूणा को तिरस्कार या स्वीकार कर अपनी नियति स्वयं लिखते हैं। यदि हम इसे स्वीकार करते हैं और प्रभु यीशु में विश्वास करते हैं तो तुरंत ही हमारे नाम जीवन की किताब में लिखे जाते हैं और दण्ड कि आज्ञा हम पर से खत्म हो जाती है।

मैं तो पूरी तौर पर इस बात को दिल से जानता था कि मैं पापी था और मेरे पूर्वज्ञान के अनुसार मेरे लिए मोक्ष का कोई रास्ता भी नहीं था। अपने धर्म के अनुसार मेरे पास पाप-क्षमा की कोई आशा नहीं थी। बाइबल में जो मैंने पढ़ा इसने मुझे बहुत बल दिया -

“क्योंकि परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उसने अपना एकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे वह नष्ट न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए। परमेश्वर ने अपने पुत्र को जगत में इसलिए नहीं भेजा कि जगत पर दण्ड की आज्ञा दे, परन्तु इसलिए कि जगत उसके द्वारा उद्धार पाए।”


[युहन्ना 3:16, 17]

मैंने यह भी महसूस किया कि हमें भजन, साधना, पूजा, तीर्थ इत्यादि के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति करने के बारे में सिखाया तो जाता है परंतु सभी धर्मों में इन सब बातों को निरंतर करते चले जाने का सिर्फ एक खुला रास्ता है जिसमें मोक्ष-प्राप्ति का कोई आश्वासन नहीं है। इस बारे में जब मैंने बाइबल को पढ़ा तो मैंने मोक्ष प्राप्ति का एक अलग तरीका पाया।

“तो उसने हमारा उद्धार किया; और यह धर्म के कामों के कारण नहीं, जो हम ने आप किये, पर अपनी दया के अनुसार नए जन्म के स्नान और पवित्र आत्मा के हमें नया बनाने के द्वारा हुआ।


[तीतुस 3:5]

और फिर इफिसियों 2:8,9 में -


“क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है; और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन परमेश्वर का दान है, और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे।”

परमेश्वर ने बाइबल के द्वारा मुझे सिखाया कि मुझे एक उद्धारकर्ता की ज़रूरत थी जो मुझे मेरे पापों के परिणाम से (अर्थात सनातन जीवन में परमेश्वर से दूर नर्क में रहना जहाँ निरंतर दुःख और दर्द ही है), बचा सके। हालांकि नर्क मानवजाति के लिए नहीं बल्कि उन दुष्ट आत्माओं के लिए बनाया गया जो कि परमेश्वर के विरोध में खड़ी होती हैं फिर भी वे लोग जो उपद्रवी होकर परमेश्वर की आज्ञा तोड़ते हैं तथा उसकी करूणा का तिरस्कार करते हैं वे अभिमानी लोग भी उस आग की झील में डाले जाते हैं (जिसे हम नर्क के रूप में जानते हैं)।

मैं समझ गया था कि मेरे पापों की क्षमा के लिए मुझे परमेश्वर की करूणा की ज़रूरत थी। पर ‘कैसे’ यह सवाल अभी भी खड़ा था। इस विषय में मैंने बाइबल में पढ़ा –

“यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है।”

इसी विषय पर बाइबल युहन्ना 1:1-18 में और भी बहुत सी बातें करती हैं जिनमें से 12वीं आयत ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींच लिया -

“…परंतु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर की संतान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं…”

और रोमियो 10:10 –

"क्योंकि धार्मिकता के लिए मन से विश्वास किया जाता है, और उद्धार के लिये मुँह से अंगीकार किया जाता है।”

उपरोक्त वचनों से मैंने सीखा कि मुझे अपने पापों से पश्चाताप कर परमेश्वर से माफी माँगनी थी, प्रभु यीशु को अपने जीवन में उचित सर्वोच्च स्थान देना था और अपने दिल से विश्वास तथा मुख से अंगीकार करना था कि वो परमेश्वर का पुत्र है और मेरे पापों की कीमत उसने चुका दी है, इसके बाद मैं परमेश्वर की संतान होकर जीवन जी सकता था। अब मेरी समझ में आ रहा था कि पास्टर पीटर इस बात से क्या कहना चाहते थे कि वो परमेश्वर के साथ सम्बंध में विश्वास करते थे। मैं अब अपने पापों से पश्चाताप कर परमेश्वर से क्षमा चाहता था। मैं इस बात के लिए उत्साहित था कि परमेश्वर के साथ एक व्यक्तिगत सम्बंध स्थापित करूँ जैसे पिता-पुत्र का रिश्ता।

बाइबल की आख़िरी पुस्तक ‘प्रकाशितवाक्य’ में परमेश्वर (प्रभु यीशु) इस प्रकार कहते हैं -

“देख, मैं द्वार पर खड़ा हुआ खटखटाता हूँ; यदि कोई मेरा शब्द सुनकर द्वार खोलेगा, तो मैं उसके पास भीतर आकर उसके साथ भोजन करूंगा और वह मेरे साथ।”


[प्रकाशितवाक्य 3:20]

उपरोक्त वचन के अनुसार मैंने अपना दिल प्रभु परमेश्वर के लिए खोल दिया था कि वो उसमें वास करे। यह जानने के बाद कि मैं पापी था और परमेश्वर पवित्र, मैंने प्रार्थना के साथ अपना जीवन प्रभु यीशु के सुपुर्द कर दिया था। मैंने अपने सभी पापों से तौबा की थी जो मैंने जाने-अनजाने में किये थे और परमेश्वर को अपने जीवन का स्वामी बना लिया।

मार्च 1998 में रश्मि के साथ बैठकर मैंने पश्चाताप तथा उद्धार की प्रार्थना कुछ इस प्रकार की:

“हे प्रभु, मैं स्वीकार करता हूँ कि मैंने अपने जीवन में जाने और अनजाने में बहुत से पाप किये हैं। मैं अंगीकार करता हूँ कि स्वभाव से ही मैं पापी हूँ। मैं यह भी जान गया हूँ कि आप पवित्र परमेश्वर हैं और आपके सिवा और कोई मेरा प्रभु नहीं है। प्रभु यीशु मसीह, सिर्फ आपने मेरे पापों को क्षमा करने का वायदा किया है और मेरे पापों के लिए अपने प्राण दिये हैं। 2000 वर्ष पहले आप मेरी खातिर मरे, तथा तीसरे दिन जी उठे और फिर जीवित स्वर्ग में उठा लिए गए। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरे पापों को क्षमा कर दीजिए और मेरे जीवन का सारा अधिकार तथा नियंत्रण अपने हाथों में ले लीजिये। प्रभु, मेरे दिल में आइए और स्वर्ग राज्य में मुझे स्थान दीजिए। आप अपने वायदों पर सत्य परमेश्वर हैं इसलिए मैं आपका धन्यवाद करता हूँ, आपने मेरे पाप क्षमा कर दिए हैं और मेरे नाम आपने जीवन की स्वर्गीय किताब में लिख दिया है। उद्धार (मोक्ष) के दान के लिए मैं आपका आभारी हूँ। आमीन।”

परमात्मा ने मेरी प्रार्थना को सुन लिया और उसकी असीम शांति मेरे जीवन में प्रवेश कर गई। परमेश्वर के वचन के अनुसार प्रभु ने मुझे अपनी संतान, पवित्र आत्मा का मन्दिर, तथा नई सृष्टि बना दिया। अब मुझे ईश्वर को खोजने के लिये आराधना के स्थानों में जाने की ज़रूरत नहीं थी।

जिस दिन मैंने पश्चाताप तथा उद्धार की प्रार्थना की तब से मेरे सारे पाप प्रभु यीशु के लहू से धुल गए और प्रभु ने मुझे नया जीवन दिया –

“इसलिए यदि कोई मसीह में है तो वह नई सृष्टि है; पुरानी बातें बीत गई हैं; देखो, सब बातें नई हो गई हैं।”


[2 कुरिन्थियों 5:17]

प्रिय पाठक, यदि ये आप के दिल की भी प्रार्थना है और आप सोचते हैं कि आप प्रभु यीशु को अपने व्यक्तिगत उद्धारकर्ता के रूप में ग्रहण करने के लिए तैयार हैं तो मैं आपको उत्साहित करना चाहता हूँ कि आप शांति से बैठकर परमात्मा से प्रार्थना करें। परमेश्वर आपके सभी पापों को क्षमा करेगा और आपको जीवन की ज्योति देगा ताकि आप फिर कभी अन्धकार में न चलें।

मैं आपको यह बताना चाहता हूँ कि उद्धार (मोक्ष) व्यक्तिगत होता है। न तो हमारे पूर्वाग्रहों (पुराने रूढ़ीवादी विचारों) और न ही हमारे किन्हीं सम्बंधों के कारण हमें अपने आपको परमात्मा से मिलन करने से रोकना चाहिए। परमेश्वर हमसे प्रेम करता हैं और हम में से हरेक को पापों से मुक्ति दिलाना चाहता हैं। मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूँ कि आप ईश्वर को एक नई नज़र से बच्चों जैसे पवित्र और शंकारहित विश्वास के साथ उसे देखें। मैं जानता हूँ कि वो आपसे बात करने लगेगा।

यदि आपने भी ये प्रार्थना की है तो आश्वस्त रहिए कि परमेश्वर ने आपके पाप क्षमा कर दिए हैं और स्वर्ग के राज्य के द्वार आपके लिए खोल दिये हैं ताकि आप स्वर्गीय आशीषों से परिपूर्ण हो जाएँ। आपने शारीरिक या भावनात्मक रूप से कुछ महसूस किया है या नहीं इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि परमेश्वर के पवित्र आत्मा ने आपकी आत्मा के सारे पापों तथा उसकी अपवित्रता की सफाई कर दी है। आपकी आत्मा अब परमात्मा के समक्ष निर्दोष है। अब आपको सिर्फ ये करने की ज़रूरत है कि आप निरंतर परमेश्वर से प्रेम करें, उसका वचन पढ़ें, रोज प्रार्थना करें तथा विश्वासियों की संगति करें ताकि अपने विश्वास में मज़बूत होते चले जाएँ। ऐसा करके आप परमेश्वर के बारे में और जानेंगे और उसकी आशीषों का अनुभव करेंगे।



***


जब से मैंने प्रभु यीशु में विश्वास किया है तब से मेरी ज़िन्दगी बदल गई है। मैं एक नए व्यक्तित्व का, नई सोच का, मन फिराया हुआ, उजले चरित्र का तथा ईश्वरीय दर्शन का स्वामी हो गया हूँ। इससे भी बढ़कर पिता परमेश्वर तक मेरी पहुँच हो गई है जिससे किसी भी समय मैं उससे प्रार्थना कर सकता हूँ। मैं सदैव उसकी छत्रछाया में रहने लगा हूँ। आज मेरे पास स्वर्ग में एक चुना हुआ आरक्षित स्थान है। मैं जानता हूँ कि मैं वहाँ जाकर रहूँगा जब मैं यह देह छोड़कर जाऊंगा।

बाद में 1998 में ही, मैंने परमेश्वर की बपतिस्मा की आज्ञा को पूरा किया तथा अपने विश्वास की गवाही दी। इसके साथ ही पूर्णरूप से मैंने अपने आपको प्रभु को समर्पित कर दिया।

“जो विश्वास करे और बपतिस्मा ले उसी का उद्धार होगा, परन्तु जो विश्वास न करेगा वह दोषी ठहराया जाएगा;”


[मरकुस 16:16]

मैंने परमेश्वर पर भरोसा करके जीना सीख लिया है और उसने मेरे जीवन के सभी क्षेत्रों में अपनी जीवित उपस्थिति भर दी है तथा अपना आनंद दिया है। उसने मेरी प्रार्थनाओं के उत्तर दिये, मेरे परिवार का उद्धार किया, मुझे अच्छी नौकरियां दी तथा उनमें सफलता भी दी और एक विश्वासी तथा बहुत ही अच्छी पत्नी दी जो परमेश्वर से प्रेम करती है और उसका भय मानती है। परमेश्वर ने मुझे वो सब कुछ दिया जो एक व्यक्ति अपने जीवन में चाहता है।

आने वाले अध्यायों में मैं परमेश्वर की विश्वासयोग्यता के विषय में विस्तार से बताऊँगा जिससे आप जानेंगे कि परमेश्वर अपने प्रेम करने वालों के प्रति कितना उदार है।

मेरा जीवन ईश्वर की कृपा से पूरी तरह से बदल गया। हालांकि मेरे जीवन में परीक्षाएँ निरंतर आती रहीं, परन्तु मैं भी पवित्र जीवन जीने के लिए परमेश्वर के अनुग्रह से निरंतर अपने शरीर से लड़ता रहा हूँ कि पाप न करूँ। मैं कई बार गिरता भी हूँ परंतु परमेश्वर अपनी असीम करुणा से मुझे उठा लेता है और अपने साथ साथ चलाता है। वो मेरी हरेक आवश्यकता को पूरा करता है। सभी खतरों और मुसीबतों से वो मुझे छुड़ाता है। मुझे किसी बात की चिंता नहीं होती क्योंकि वो मेरा ख़्याल रखता है। वो मेरे बंधनों से मुझे छुड़ाता है और मेरे बोझ अपने ऊपर ले लेता है। जब मुझे प्रार्थना करना नहीं आता तो वो मुझे सिखाता है और यहाँ तक कि मेरे लिए प्रार्थना भी करता है। मेरे प्रभु महान है और उनकी महानता का वर्णन करते समय मेरा दिल धन्यवाद से भर आता है। परमेश्वर की स्तुति हो।

आमीन।

अध्याय 7 ::: उद्धार

मैं बाइबल में दिए उद्धार अर्थात मोक्ष प्राप्त करने के तरीके से बड़ा अचंभित होता हूँ। यह परमेश्वर का वरदान है और कोई भी जो प्रभु यीशु में विश्वास करे, इसे पा सकता हैं। अजीब बात ये है कि न तो इसमें धर्म की कोई सीमा है और न कर्मों का कोई बन्धन।

जैसे हम किसी दान या उपहार की कोई क़ीमत नहीं चुकाते बल्कि उसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं उसी प्रकार हमें अपने उद्धार (मोक्ष) की भी क़ीमत चुकाने की कोई ज़रूरत नहीं है यह परमेश्वर का मानवजाति के लिए उपहार है। हम उपहार की क़ीमत चुकाने की बात कर उपहार देने वाले का अपमान ही करते हैं।

“हम में से हरेक को ईश्वर की अर्थात प्रभु यीशु की आवश्यकता है भले ही हम कोई भी क्यों न हों, किसी भी धर्म या जाति में पैदा हुए हों, कैसे भी हम रहते हों, हमारा सामाजिक स्तर कुछ भी क्यों न हो, हमने कुछ भी क्यों न किया हो और कुछ भी करने की योग्यता हम क्यों न रखते हों।” ‘पापों की क्षमा’ तथा ‘शाश्वत जीवन की आशा’ परमेश्वर की ओर से प्रभु यीशु के द्वारा हमें दिया गया दान है। यह ‘अनुग्रह द्वारा उद्धार’ की बात है जो विश्वास के द्वारा ग्रहण किया जाता है। यह सच में इतना सरल है कि कई बार हम इसे समझ ही नहीं पाते हैं क्योंकि ज्यादातर लोग मोक्ष को एक बहुत ही जटिल काम समझते हैं।

मैं विभिन्न धर्मों में प्रचलित ईश्वर के बारे में बताई गई अवधारणाओं तथा रीति-रिवाजों की अधिकता से भी आश्चर्यचकित होता हूँ; खास तौर पर उसमें जिसमें मैं पैदा हुआ था।

धर्म में संस्कार तथा रीति-रिवाज सिखाए जाते हैं जिनकी पालना करने पर यह समझा जाता है कि हम अपना उद्धार कमा सकते हैं। इसे मैं “कर्मों के द्वारा उद्धार’ के नाम से सम्बोधित करूंगा। बचपन से सिखाए गए संस्कार हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन जाते हैं जिनसे हम इतने प्रभावित होते हैं कि ईश्वर के बारे में हम उसके अलावा किसी और तरीके से सोच ही नहीं पाते हैं।

किसी एक धर्म विशेष में पैदा होने तथा उसके अनुयायी होने के कारण कई बार हम इतने सख्त हो जाते हैं कि सच्चाई को जानने से हम अपने आपको रोकते हैं विशेषकर ऐसा सत्य जो किसी और सम्प्रदाय अथवा विश्वास से आता प्रतीत होता हो, जिसका हमने कभी पालन नहीं किया।

धर्म की पालना करने से व्यक्ति धार्मिक (आत्मिक नहीं) ज़रूर हो जाता है, जिसका जीवन के प्रति अपना एक नज़रिया होता है, अपना एक व्यक्तित्व, ईश्वर के प्रति अपनी एक सोच और अपनी व्यक्तिगत विचारधारा, जिसके द्वारा वो ईश्वर को पाने का प्रयास करता है। मैंने दूरदर्शन में कई बार ऐसे कार्यक्रमों को देखा जिसमें कई तीर्थस्थानों के बारे में बताया जाता है। इनमें से एक कार्यक्रम में मैंने देखा कि कुछ लोग लगातार धूम्रपान करते हुए, कुछ अपनी जगह निरंतर चलते हुए तो कुछ लोग बहुत लम्बे समय तक अपनी जगह पर खड़े रहकर साधना करके तो कुछ अपने शरीर को दुःख पहुँचाकर मोक्ष प्राप्ति करने की नाकामयाब कोशिश करते हैं।

यह बात सच है कि यदि हम ऐसे किसी भी पूर्वाग्रह से ग्रसित हों, तो हम मसीही विश्वास को नहीं समझ सकते क्योंकि सभी धर्मों से अलग यही एक विश्वास है जो कि किसी भी प्रकार के भले कर्म के द्वारा मोक्ष होने की बात को नहीं मानता बल्कि सिर्फ परमेश्वर की कृपा से अपने विश्वास के द्वारा उद्धार की बात को ही मानता है।

अपने पुराने मनगढ़ंत विचारों के कारण कई लोग अपने मार्ग तो बनाते रहते हैं परन्तु यीशु मसीह को ‘विदेशी’ क़रार देते हैं और उनके प्रेम तथा बलिदान का तिरस्कार करते हैं। मैं यह बात समझ नहीं पाता कि वह ईश्वर, जिसने करोड़ों – अरबों किलोमीटर की लम्बाई-चौड़ाई वाले ब्रह्मांड की रचना की, वो इसी ब्रह्मांड के एक छोटे से सौरमंडल में नगण्य आकार के एक ग्रह पर कुछ हज़ार किलोमीटर की दूरी पर बसे एक छोटे से देश में अवतरित होने पर वह विदेशी कैसे हो जाता है।

आप किसी भी सम्प्रदाय अथवा विश्वास के मानने वाले क्यों न हों, आपने कर्मों के द्वारा मोक्ष के विषय में अवश्य सुना होगा – अगर इसी नाम से नहीं तो भी उसके रीतिरिवाजों से आप यह समझ सकते हैं। परंतु आज आप से मैं विनती करता हूँ कि आप अपने दिमाग को स्वतंत्र करें ताकि अनुग्रह (करूणा) के द्वारा उद्धार (मोक्ष) की बात को आप ठीक प्रकार से समझ सकें।

मैं समझता हूँ कि मसीहीयत में सम्पूर्ण मानवजाति का उद्धार शामिल है जो कि मुफ्त में उन सबको बांटा गया है जो प्रभु यीशु मसीह में व्यक्तिगत रूप से विश्वास करते हैं। प्रभु यीशु में विश्वास किये बिना कोई मोक्ष नहीं है।

परमेश्वर सभी को आमंत्रित करता है कि हम चखें और देखें कि वो कैसा भला परमेश्वर है। जिस तरह से मैं आपको बता रहा हूँ उस तरीके से उसे चखने के बावजूद यदि आप उसमें जीवन की भरपूरी न पाएँ तो आप इसे किसी भी कसौटी पर कसने या यहाँ तक कि छोड़ देने के लिए स्वतंत्र हैं। मैं सिर्फ आपको इस बात के लिए उत्साहित करना चाहता हूँ कि बिना जांच के आप इसे अस्वीकार न करें।

समझदार जीव होने के कारण यह न सिर्फ हमारा अधिकार है बल्कि ज़िम्मेदारी भी है कि हम उस ‘परमसत्य’ की खोजबीन करें जो हमारी परिस्थितियों, संस्कारों अथवा भावनाओं के कारण बदलता नहीं है। यदि परमेश्वर से हम मांगें तो वो हमें इस सत्य का अनुभव अवश्य कराएगा।

मैं इस समय यह बात भी बताना चाहता हूँ कि ऐसी कौन सी खास बातें हैं जो मसीही विश्वास को तथा बाइबल को बाकी सभी धर्मों से अलग करती है। वो बात यह है कि सिर्फ बाइबल और इसमें व्यक्त परमेश्वर ही हमें मुफ्त में पाप-क्षमा का दान देना चाहता है जिसका हमारे धर्म, जाति तथा संस्कार से कोई लेना देना नहीं है। हालांकि स्वयं परमेश्वर ने इसका बहुत बड़ा मूल्य चुकाया है।

फिर जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ कि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से (अर्थात परमेश्वर की कृपा से) हमारा उद्धार हुआ है और यह हमारे भले कामों के कारण नहीं है कि किसी भी रीति से इस पर घमण्ड कर सकें।

मेरा मानना है कि हमारा उद्धार (मोक्ष) हमारे कामों पर निर्भर नहीं करता है क्योंकि जितने भी भले काम हम करें वे सब परमेश्वर के अतिपवित्र और ऊँचे मापदण्ड के सामने धूल और खाक के समान हैं। हम ऐसे कोई काम नहीं कर सकते जिससे हम ईश्वर को प्रसन्न कर सकें कि वो हमारा उद्धार करे। और बाइबल के अनुसार तो हम रचे ही इसलिए गये हैं कि भले काम करें तो फिर उनके द्वारा हमें कोई विशेष योग्यता तो यूँ भी नहीं मिल सकती। बल्कि मन, विचार, स्वभाव तथा कर्मों से किये गए अपने जीवनभर के पापों के कारण हम वैसे ही उसके कोप तथा सज़ा के भागीदार हो गए हैं इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि उसके न्याय का समय आने से पहले ही हम उसे ढूंढें और और अपने पापों कि क्षमा प्राप्त करें।

हम में से हरेक को ईश्वर की अर्थात प्रभु यीशु की आवश्यकता है भले ही हम कोई भी क्यों न हों, किसी भी धर्म या जाति में पैदा हुए हों, कैसे भी हम रहते हों, हमारा सामाजिक स्तर कुछ भी क्यों न हो, हमने कुछ भी क्यों न किया हो और कुछ भी करने की योग्यता हम क्यों न रखते हों।


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इसलिये कि सबने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं …

[रोमियों 3:23]

क्योंकि पाप की मज़दूरी तो मृत्यु है, परंतु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त जीवन है।

[रोमियों 6:23]

बाइबल के अनुसार इस धरती पर कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो निष्पाप हो और जिसने मन से, विचारों से, बोली से या कर्म से कोई पाप न किया हो और इसलिए हम सभी परमेश्वर की महिमा से दूर हैं। और हम सभी को पापों की क़ीमत चुकाने की ज़रूरत है क्योंकि पाप लेकर कोई भी स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर सकता।

कई धर्म तथा मत, न्याय की इस बात को समझते हैं कि सभी को अपने जीवन का लेखा देने के लिए परमेश्वर के न्याय सिंहासन के सम्मुख खड़ा होना है और परमेश्वर के न्याय के अनुसार ही हम स्वर्ग अथवा नर्क में जाएँगे।

बाइबल के अनुसार वे लोग जो प्रभु यीशु के आने का सुसमाचार नहीं सुन सके और इस दुनिया से मानव शरीर छोड़कर चले गये, उनका न्याय परमेश्वर के उचित निर्णय के अनुसार होगा परंतु जिन्होनें परमेश्वर की करूणा का समाचार सुनकर भी उसका तिरस्कार किया है वे पहले ही से अपने ऊपर दण्ड ले आए। सिर्फ वे, जिन्होनें यीशु मसीह पर विश्वास किया है और उनको अपना मालिक/प्रभु मान लिया है उनके खिलाफ दण्ड की आज्ञा नहीं रही और वे सनातन परमेश्वर के साथ हमेंशा का जीवन बिताने के अधिकारी हो गए हैं।

यह परमसत्य है। इसे समझना और अपने जीवन में प्रमुख स्थान देना ज़रूरी है। इसे तोड़ा-मरोड़ा, झुठलाया अथवा नकारा नहीं जाना चाहिए।

हम न तो अपने व्यक्तिगत पापों के, और न ही किसी दूसरे के पापों की क़ीमत चु्काने के योग्य हैं क्योंकि हम सभी बराबर के पापी हैं और परमेश्वर के प्रति उत्तरदायी हैं।

तो फिर कौन इन पापों की क़ीमत चुका सकता है?

सिर्फ ऐसा एक व्यक्ति जिसने कभी पाप न किया हो और जो पवित्र कहलाने की श्रेणी में आता हो। वह व्यक्ति जो हमारे पापों की क़ीमत चुकाने के लिए प्राण देने तक भी तैयार हो (क्योंकि पाप की मज़दूरी तो मृत्यु है) और बदले में जो हमसे कुछ न मांगे क्योंकि हमारे पास उसे देने योग्य कुछ भी नहीं है।

ऐसा दयावन्त, प्रेमी तथा भला व्यक्ति जो परमपवित्र भी हो, स्वयं परमेश्वर के अलावा कौन हो सकता है?

मैं इसे एक उदाहरण के द्वारा समझाने की कोशिश करता हूँ। मान लीजिए की एक पिता अपने नासमझ पुत्र के साथ एक महंगी दुकान से सजावट के लिए कुछ कलाकृति लेने गया और गलती से बेटे ने दुकान में रखी एक बेशक़ीमती कलाकृति तोड़ दी।

तो आप क्या सोचते हैं कि दुकानदार उनको बिना क़ीमत चुकाए जाने देगा? बिलकुल नहीं।

तो क्या पुत्र उसकी क़ीमत चुका सकता है जबकि वो कुछ कमाता भी नहीं है? नहीं।

लेकिन किसी को तो चुकाना ही पड़ेगा। या तो पुत्र, या पिता या स्वयं दुकानदार नुकसान को सह ले और उन्हें जाने दे। परंतु कोई दुकानदार ऐसा तो नहीं करता है। तो क्या पिता अपने बेटे को छोड़कर चला जाए क्योंकि उसके बेटे ने एक ऐसी गलती की जिसकी वो क़ीमत चुकाने के योग्य नहीं है।

नहीं।

तो ऐसे में एक ही रास्ता है कि पिता ही अपने बेटे की गलती की क़ीमत चुकाए और वो सहर्ष ऐसा करता है क्योंकि वो अपने बेटे से प्यार करता है। भले ही उसे अपने बेटे की इस गलती की कितनी भी भारी क़ीमत क्यों न चुकानी पड़े।

तो फिर क्या पिता हमेंशा अपने पुत्र को उस गलती की और अपने बलिदान की याद दिलाता रहता है? नहीं, अपितु एक अच्छा पिता यह चाहता है कि उसका पुत्र फिर से भविष्य में ऐसी गलती न करे और ऐसा ही वह उसे सिखाता भी है।

सोचिए, परमेश्वर अपने बच्चों से जिनको उसने बनाया, कितना प्यार करता है? तो क्या वो हमें हमारे पापों के बोझ तले तड़पता छोड़ सकता है जहां हमारा विनाश हो जाए? कभी नहीं, परमेश्वर हमें छुड़ाता है क्योंकि वो हमसे प्रेम करता है। उसने हमें पैदा किया है और वो हमारा स्वर्गीय पिता है। वो न सिर्फ हमारे पापों को क्षमा करता है बल्कि हमारे सारे पुराने पापों को क्षमा करने के बाद हमेंशा के लिए भुला भी देता है। उसके बाद वो हमसे अपेक्षा करता है कि उसके प्रेम तथा सामर्थ्य को पहचानते हुए हम एक पवित्र जीवन जीएँ ताकि इस दुनिया के बाद हम अनंत जीवन पिता परमेश्वर के साथ बिता सकें।

हम लोग उपरोक्त उदाहरण को नहीं समझ सकते यदि हम कर्मों के द्वारा मोक्ष पाने में विश्वास करते रहे हों। कर्मों वाली व्यवस्था परमेश्वर के न्यायी स्वरूप को नहीं समझा सकती है।

मेरे साथ एक और उदाहरण को देखिए जिससे पहला उदाहरण और स्पष्ट हो जाएगा और कर्मों द्वारा उद्धार न हो पाने की बात की सच्चाई और गहराई से समझ आएगी।

एक हत्यारे की कल्पना कीजिए जो कि किसी की हत्या के आरोप में न्यायाधीश के सामने लाया गया। यदि वो कहे कि अपनी जिंदगीभर वह भले काम करता रहा है, उसने समय पर पूरा कर चुकाया, सभी नियमों तथा कानूनों का पालन किया, सामाजिक कार्यों के लिए चंदा दिया और तमाम तरह के भले काम किये और अन्ततः वह इस दलील के चलते यह कहे कि उसे बाइज़्ज़त बरी कर दिया जाए क्योंकि उसने एक सही कारण से बदला लेने के लिये एक हत्या की।

तो क्या आप सोचते हैं कि जज साहब को उस हत्यारे को छोड़ देना चाहिए? हरग़िज़ नहीं।

मेरे विचार में आप ज़रूर सोच रहे होंगे कि भले काम अपनी जगह हैं परंतु कानून तोड़ने की और हत्या जैसा जुर्म करने की सज़ा तो उसे मिलनी ही चाहिए।

यदि न्यायाधीश उसे छोड़ दे तो क्या हम उस न्यायाधीश को पक्षपाती अथवा गलत नहीं ठहराएँगे?

तो फिर हम इस बात को कैसे मान लेते हैं कि हम जीवनभर जो पाप करते रहते हैं उनके बदले भले काम कर हम उनका पलटा परमेश्वर को दे सकते हैं। क्या आपको लगता है कि परमेश्वर का न्याय हमारे न्याय से भी निम्न स्तर का है?

परमेश्वर निष्पक्ष न्यायी है। वह कभी न तो अन्याय करता है और न ही वह कभी पक्षपात करता है। वह तो परमपवित्र है। हम ही पापी हैं, और यह बात समझ लीजिए कि जो भी पाप हम करते हैं वे सभी परमेश्वर के समक्ष रहते हैं और परमेश्वर सभी पापों को बराबर समझता है। उसके लिए कोई पाप छोटा या बड़ा नहीं होता, वो तो सभी पापों से घृणा करता है। सोचिए कि हम सब कितने गुनाहगार हैं और सज़ा के हकदार हैं।

अपने अपने जीवन में हम सभी अलग अलग तरह के गलत काम करते हैं जिससे हमारा अनंत जीवन हमसे खोता चला जाता है। आप क्या करते हैं वो उससे अलग हो सकता है जो मैं करता हूँ पर अन्ततः सभी पाप हमें आत्मिक मृत्यु (परमेश्वर से हमेंशा के लिए अलगाव) की ओर खींचते चले जाते हैं।

यदि हम अपने जीवन में किये विचारों तथा कर्मों की ओर देखें और पाप की ओर अपने स्वभावगत झुकाव पर विचार करें तो हम पाएँगे कि हम पापी हैं और इसलिये हमें हमारे पापों की सज़ा मिलनी चाहिए। तौभी, पहले दिए उदाहरण के पिता की तरह प्रभु यीशु मसीह ने अपना रक्त बहाकर हमारे पापों की क़ीमत चुका दी ताकि हमें पाप तथा मृत्यु के बंधनों से छुड़ाकर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश दिलाएँ।


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परमेश्वर की करूणा से हम तक पहुँचे ‘मोक्ष के सुसमाचार’ का तिरस्कार करना भी एक पाप है। यदि इस क़िताब को पढ़ते समय किसी भी समय में आपको ऐसा अहसास हुआ है कि परमेश्वर आपको आपके पापों की क्षमा मांगने के लिए प्रेरित कर रहा है, तो अपना दिल कड़ा मत कीजिए बल्कि तुरंत अपने पापों की क्षमा माँगकर क्षमा प्राप्त कीजिए ताकि आप परमेश्वर की छत्रछाया में अपना जीवन बिता सकें।

यदि अब तक आपने अपना मन नहीं बनाया है तो फिर आगे पढ़िए ताकि आप जान सकें कि जीवित परमेश्वर किस प्रकार प्रार्थनाओं के उत्तर देता है।