सोमवार, 28 जुलाई 2008

अध्याय 6 ::: परिवर्तन

परिवर्तन की एक प्रार्थना, जो बचपन से मैंने सीखी थी वो इस प्रकार है -

असतो मा सदगमया,
तमसो मा ज्योतिर्गमया,
मृत्योर्मां अमृतं गमया।।


ये प्रार्थना मैंने बचपन में अपने स्कूल की डायरी में कई बार पढ़ी थी जिसका अर्थ इस प्रकार लिखा था – हे ईश्वर, मुझे असत्य (झूठ) से सत्य की ओर, तमस (अंधेरे) से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से जीवन की ओर लेकर जाएँ। इस अर्थ को मैंने कई बार पढ़ा था परंतु फ़िर भी इसका उत्तर मेरे पास नहीं था।
“मैं आपको यह बताना चाहता हूँ कि उद्धार (मोक्ष) व्यक्तिगत होता है। न तो हमारे पूर्वाग्रहों (पुराने रूढ़ीवादी विचारों) और न ही हमारे किन्हीं सम्बंधों के कारण हमें अपने आपको परमात्मा से मिलन करने से रोकना चाहिए। परमेश्वर हमसे प्रेम करता हैं और हम में से हरेक को पापों से मुक्ति दिलाना चाहता हैं।”

इस प्रार्थना का उत्तर मुझे तब ही मिला जब मैंने यीशु मसीह को जाना। प्रभु यीशु को जानने के बाद मुझे पता चला कि उनके नाम में की गई हमारी हरेक प्रार्थना परमेश्वर जरूर सुनता है और उनका उत्तर भी देता है – उसकी अपरम्पार दया में ‘हाँ’, या उसकी असीमित बुद्धि और ज्ञान में हमारे भले-बुरे को जानते हुए ‘नहीं’। सच्चे परमेश्वर के नाम से की गई कोई भी हमारी प्रार्थना व्यर्थ नहीं जाती।

यदि उपरोक्त प्रार्थना सच्चे मन से, सच्चे परमेश्वर से की गई हो तो इस प्रार्थना का उत्तर मिलना आवश्यक है । परमेश्वर मानवजाति से प्रेम करता है इसलिए उपनिषद की इस प्रार्थना का जवाब, परमेश्वर के वचन, बाइबल में मिलता है-

“...मार्ग और सत्य और जीवन मैं ही हूँ; बिना मेरे द्वारा कोई परमेश्वर तक नहीं पहुँच सकता”

[युहन्ना 14:6]

“मैं तुमसे सच सच कहता हूँ, जो मेरा वचन सुनकर मेरे भेजने वाले पर विश्वास करता है, अनन्त जीवन उसका है; और उस पर दण्ड की आज्ञा नहीं होती परन्तु वह मृत्यु से पार होकर जीवन में प्रवेश कर चुका है।”

[युहन्ना 5:24]

“यीशु ने फिर लोगों से कहा, “जगत की ज्योति मैं हूँ; जो मेरे पीछे हो लेगा वह अन्धकार में न चलेगा, परन्तु जीवन की ज्योति पाएगा।”

[युहन्ना 8:12]

एक और प्रार्थना के विषय में मैं आपको बताता हूँ – गायत्री मंत्र।


ॐ भूर्भुवः स्वः
तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो देवस्य धीमहि
धियो योनः प्रचोदयात्।


जिसका मतलब (भावार्थ) होता है – ओ बृहमांड के सृष्टिकर्ता परमेश्वर, हम आपकी असीम महिमा पर ध्यान धरते हैं। ऐसा होने दे कि आपकी वैभवमयी सामर्थ्य हमारी बुद्धि को प्रकाशित करे, हमारे पापों को क्षमा करे तथा सही मार्ग में हमारा पथ प्रदर्शन करें।

सदियों से मानव सत्य, शांति तथा सार्थक जीवन की खोज करता रहा है। यही खोज इस प्रार्थना के रूप में इस मंत्र में निकलती है, परंतु साथ ही ये बात समझने की भी ज़रूरत है कि यह प्रार्थना सृष्टिकर्ता परमेश्वर से की गई है, इसलिये इसका उत्तर सिर्फ़ जीवित अमूर्त प्रेमी सृष्टिकर्ता परमेश्वर की ओर से ही आ सकता है।

यदि इस प्रार्थना को ही हम गौर से देखें तो हम समझ सकते हैं कि बाइबल में इस प्रार्थना का भी उत्तर है –

यह प्रार्थना सृष्टिकर्ता परमेश्वर से है – और सच में हमें हमारे रचनाकार परमेश्वर से ही दुआ करनी चाहिए। बाइबल बताती है कि सच्चा सृष्टिकर्ता ईश्वर कौन है – यीशु मसीह। (युहन्ना 1:1, 1:3, 1:14)
यह प्रार्थना बुद्धि प्राप्ति, सत्य प्रकाशन, पाप क्षमा तथा सत्य मार्ग दिखाने के लिये है – य़ीशु मसीह ने कहा कि सत्य, मार्ग और जीवन वो खुद हैं (युहन्ना 14:6) जो परमेश्वर के पुत्र हैं, खुद ज्योति हैं (युहन्ना 8:12) जो कि मानव रूप में धरती पर आए ताकि हमें स्वयं अपना प्रकाश दें, हमारे पापों की क्षमा करें और हमारे लिए शांति तथा उद्धार का मार्ग प्रशस्त करें (युहन्ना 3:16,17)।


***


जैसा मैंने पहले बताया है कि प्रभु यीशु के बारे में बताए जाने पर तुरंत ही मैंने उन पर विश्वास नहीं कर लिया और इससे पहले कि मैं प्रभु यीशु को परमेश्वर का पुत्र और बाइबल को परमेश्वर का एकमात्र सत्य वचन मान लेता, मैंने इसे और सभी उन शास्त्रों को जो मैंने तब तक पढ़े थे, पहले बताए सारे सवालों की कसौटी पर कसा। मैंने गीता, रामायण तथा महाभारत को अपनी पाठ्य-पुस्तकों के रूप में पढ़ा था। पाठ्यपुस्तकों में ही संतमत के बारे में मैंने पढ़ा था तथा कबीर, रहीम तथा मीरा के दोहों का भी अध्ययन किया था। मैंने ओशो रजनीश का साहित्य पढ़ा था। मैंने दादीजी को पढ़कर सुनाते हुए राधास्वामी सत्संग के साहित्य का अध्ययन किया था और अपनी एक दादी (पापा की बुआ) से ओम शांति विश्वास के बारे में सुना था तथा पापा के उत्साहित करने पर डॉक्टर अम्बेड़कर के जातिवाद तथा धर्म के बारे में व्यक्त विचारों को भी पढ़ा था।

इन सब जानकारियों को एक ही कसौटी पर कसने के बाद मैंने यह निष्कर्ष निकाले कि-
@ सभी धर्म ईश्वर के बारे में बताने की कोशिश करते हैं और जीवन जीने के नैतिक मार्ग बताते हैं।
@ सभी धर्म भले काम करने तथा स्वार्थी अभिलाषाओं से दूर रहकर मोक्ष कमाने की शिक्षा देते हैं।
@ सभी धर्म ईश्वर को ऐसे देखते हैं जैसे की वो बहुत दूर हो तथा उस तक पहुँचना बहुत मुश्किल हो और यह भी कि उसे प्रसन्न करना दुष्कर कार्य हो।

यह सब बातें जानते हुए जब मैंने बाइबल पढ़ना शुरू किया तो मैंने इसमें अलग तरह की बातें पाईं जो कि ईश्वर के बारे में मेरे पुराने विचारों से बिलकुल भिन्न थीं जो मैंने बचपन से सीखी थीं।


यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानंधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यमहम

परित्राणायसाधुनां विनाशाय च दुष्कृताम,
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।


संस्कृत भाषा के ऊपर लिखे वाक्यांशों (श्लोकों) में यह बात सुस्पष्ट तौर पर झलकती है कि जब जब धरती पर धर्म की हानि होती है तो हर युग में पापियों का विनाश करने तथा साधु (धार्मिक) लोगों का उद्धार कर धर्म की संस्थापना करने के लिए ईश्वर किसी न किसी रूप में अवतार लेते हैं।

इस बात ने मुझे यह जानने के लिए और प्रेरित किया कि कौन पापी है और कौन साधु। और क्या परमेश्वर सच में पापियों का नाश कर देते हैं; क्योंकि अगर ऐसा है तो फि़र किसका उद्धार हो सकता है। सबसे ज्यादा तो मैं अपने आप के लिए चिंतित था कि मेरा क्या होगा, क्योंकि मैं इस बात को साफ़ तौर पर जानता था कि मैंने अपने जीवन में पाप किए थे और अगर ईश्वर सच में पापियों का नाश करने के लिए ही आते हैं तो फ़िर मेरा तो नाश होना निश्चित था। एक मायने में मेरा इस आत्ममंथन में पड़ना अच्छा भी था क्योंकि मोक्ष (उद्धार) एक व्यक्तिगत अनुभव है।

मुझे बचपन से सिखाया गया था कि पाप और पुण्य इंसान के लेखे में लिखे जाते हैं और इन्हीं के आधार पर उसका अगला जन्म निश्चित होता है। इसका मतलब यह है कि हमें जीवन भर पुण्य (अर्थात सुकर्म या अच्छे काम) करने चाहिए ताकि वो हमारे बुरे कामों से ज्यादा हों ताकि अगले जन्म में हमें अच्छी योनि मिले। सिर्फ़ वे लोग जिनके सुकर्म उनके दुष्कर्मों से मात्रा तथा गुणवत्ता में कहीं अधिक हों, वे ही मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। ये भी तभी संभव है जब आप किसी धार्मिक गुरू की शरण में जाएँ।

मुझे सिखाया गया था कि मैं पाप और पुण्य कर्मों में अन्तर को समझूं और हमेंशा सदकर्म करूँ। मैंने देखा कि सभी इसमें असफल ही होते थे। मैं भी असफल रहा था। इसलिए मैं यह मान लेने के लिए बाध्य हुआ कि कर्मों के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति असंभव है।

बाइबल के अनुसार कोई भी धर्मी नहीं है, एक भी नहीं (रोमियों 3:23) और इसलिए हमारी अपनी समझ और सामर्थ्य के अनुसार हम ईश्वर को रिझा नहीं सकते कि वो हमारा उद्धार करे। परमेश्वर के पवित्रता के मापदण्ड इतने ऊँचे हैं कि उन तक पहुँचना मनुष्य के लिए असंभव है। जिस प्रकार एक व्यक्ति जो कि लम्बाई में आधा इंच छोटा हो वह सेना में भर्ती होने में उतना ही असफल होता है जितना की एक छह इंच छोटा व्यक्ति; ठीक उसी प्रकार परमेश्वर की नज़र में हम सब बराबर के पापी हैं और अपने कर्मों से उसे पाने में हम सभी असफल रहते हैं। हमें उसकी दया तथा करूणा की ज़रूरत है।

जब मैंने बाइबल को पढ़ा तो मैंने पाया कि बाइबल का पाप को समझने का तरीका अलग था। इस विकट समस्या से निजात पाने का बाइबल का तरीका भी उन तरीकों से अलग था जो कि मुझे पहले से मालूम थे। यह देखने में तो आसान लगता है पर समझने में मुश्किल है। इसमें कहा गया है कि हम सब पापी हैं और परमेश्वर के कोप (क्रोध) के भागी हैं। फिर भी हमारे कर्मों के कारण नहीं बल्कि अपने असीम अनुग्रह (करूणा) के कारण उसने स्वयं हमारे पापों की क्षमा के लिए अपने पुत्र य़ीशु मसीह को बलिदानस्वरूप दे दिया कि हमारे पापों का निवारण करे। हमें सिर्फ इस बलिदान में विश्वास करने की ज़रूरत है।

दूसरी बात जो मैंने सीखी वो ये थी कि जन्म-मरण का कोई चौरासी लाख योनियों का चक्र नहीं है बल्कि सिर्फ एक मानव जीवन है जिसके बाद न्याय का होना और फिर अनंत जीवन का निर्णय होना निश्चित है। यह अनंत जीवन स्वर्ग में हो या नर्क में, यह न्याय के बाद ही सुनिश्चित होगा। एक अनोखी बात बाइबल से मुझे पता चली कि हमारे अनन्त जीवन का निर्णय हमारे ही हाथों में है। हम परमेश्वर की करूणा को तिरस्कार या स्वीकार कर अपनी नियति स्वयं लिखते हैं। यदि हम इसे स्वीकार करते हैं और प्रभु यीशु में विश्वास करते हैं तो तुरंत ही हमारे नाम जीवन की किताब में लिखे जाते हैं और दण्ड कि आज्ञा हम पर से खत्म हो जाती है।

मैं तो पूरी तौर पर इस बात को दिल से जानता था कि मैं पापी था और मेरे पूर्वज्ञान के अनुसार मेरे लिए मोक्ष का कोई रास्ता भी नहीं था। अपने धर्म के अनुसार मेरे पास पाप-क्षमा की कोई आशा नहीं थी। बाइबल में जो मैंने पढ़ा इसने मुझे बहुत बल दिया -

“क्योंकि परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उसने अपना एकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे वह नष्ट न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए। परमेश्वर ने अपने पुत्र को जगत में इसलिए नहीं भेजा कि जगत पर दण्ड की आज्ञा दे, परन्तु इसलिए कि जगत उसके द्वारा उद्धार पाए।”


[युहन्ना 3:16, 17]

मैंने यह भी महसूस किया कि हमें भजन, साधना, पूजा, तीर्थ इत्यादि के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति करने के बारे में सिखाया तो जाता है परंतु सभी धर्मों में इन सब बातों को निरंतर करते चले जाने का सिर्फ एक खुला रास्ता है जिसमें मोक्ष-प्राप्ति का कोई आश्वासन नहीं है। इस बारे में जब मैंने बाइबल को पढ़ा तो मैंने मोक्ष प्राप्ति का एक अलग तरीका पाया।

“तो उसने हमारा उद्धार किया; और यह धर्म के कामों के कारण नहीं, जो हम ने आप किये, पर अपनी दया के अनुसार नए जन्म के स्नान और पवित्र आत्मा के हमें नया बनाने के द्वारा हुआ।


[तीतुस 3:5]

और फिर इफिसियों 2:8,9 में -


“क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है; और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन परमेश्वर का दान है, और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे।”

परमेश्वर ने बाइबल के द्वारा मुझे सिखाया कि मुझे एक उद्धारकर्ता की ज़रूरत थी जो मुझे मेरे पापों के परिणाम से (अर्थात सनातन जीवन में परमेश्वर से दूर नर्क में रहना जहाँ निरंतर दुःख और दर्द ही है), बचा सके। हालांकि नर्क मानवजाति के लिए नहीं बल्कि उन दुष्ट आत्माओं के लिए बनाया गया जो कि परमेश्वर के विरोध में खड़ी होती हैं फिर भी वे लोग जो उपद्रवी होकर परमेश्वर की आज्ञा तोड़ते हैं तथा उसकी करूणा का तिरस्कार करते हैं वे अभिमानी लोग भी उस आग की झील में डाले जाते हैं (जिसे हम नर्क के रूप में जानते हैं)।

मैं समझ गया था कि मेरे पापों की क्षमा के लिए मुझे परमेश्वर की करूणा की ज़रूरत थी। पर ‘कैसे’ यह सवाल अभी भी खड़ा था। इस विषय में मैंने बाइबल में पढ़ा –

“यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है।”

इसी विषय पर बाइबल युहन्ना 1:1-18 में और भी बहुत सी बातें करती हैं जिनमें से 12वीं आयत ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींच लिया -

“…परंतु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर की संतान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं…”

और रोमियो 10:10 –

"क्योंकि धार्मिकता के लिए मन से विश्वास किया जाता है, और उद्धार के लिये मुँह से अंगीकार किया जाता है।”

उपरोक्त वचनों से मैंने सीखा कि मुझे अपने पापों से पश्चाताप कर परमेश्वर से माफी माँगनी थी, प्रभु यीशु को अपने जीवन में उचित सर्वोच्च स्थान देना था और अपने दिल से विश्वास तथा मुख से अंगीकार करना था कि वो परमेश्वर का पुत्र है और मेरे पापों की कीमत उसने चुका दी है, इसके बाद मैं परमेश्वर की संतान होकर जीवन जी सकता था। अब मेरी समझ में आ रहा था कि पास्टर पीटर इस बात से क्या कहना चाहते थे कि वो परमेश्वर के साथ सम्बंध में विश्वास करते थे। मैं अब अपने पापों से पश्चाताप कर परमेश्वर से क्षमा चाहता था। मैं इस बात के लिए उत्साहित था कि परमेश्वर के साथ एक व्यक्तिगत सम्बंध स्थापित करूँ जैसे पिता-पुत्र का रिश्ता।

बाइबल की आख़िरी पुस्तक ‘प्रकाशितवाक्य’ में परमेश्वर (प्रभु यीशु) इस प्रकार कहते हैं -

“देख, मैं द्वार पर खड़ा हुआ खटखटाता हूँ; यदि कोई मेरा शब्द सुनकर द्वार खोलेगा, तो मैं उसके पास भीतर आकर उसके साथ भोजन करूंगा और वह मेरे साथ।”


[प्रकाशितवाक्य 3:20]

उपरोक्त वचन के अनुसार मैंने अपना दिल प्रभु परमेश्वर के लिए खोल दिया था कि वो उसमें वास करे। यह जानने के बाद कि मैं पापी था और परमेश्वर पवित्र, मैंने प्रार्थना के साथ अपना जीवन प्रभु यीशु के सुपुर्द कर दिया था। मैंने अपने सभी पापों से तौबा की थी जो मैंने जाने-अनजाने में किये थे और परमेश्वर को अपने जीवन का स्वामी बना लिया।

मार्च 1998 में रश्मि के साथ बैठकर मैंने पश्चाताप तथा उद्धार की प्रार्थना कुछ इस प्रकार की:

“हे प्रभु, मैं स्वीकार करता हूँ कि मैंने अपने जीवन में जाने और अनजाने में बहुत से पाप किये हैं। मैं अंगीकार करता हूँ कि स्वभाव से ही मैं पापी हूँ। मैं यह भी जान गया हूँ कि आप पवित्र परमेश्वर हैं और आपके सिवा और कोई मेरा प्रभु नहीं है। प्रभु यीशु मसीह, सिर्फ आपने मेरे पापों को क्षमा करने का वायदा किया है और मेरे पापों के लिए अपने प्राण दिये हैं। 2000 वर्ष पहले आप मेरी खातिर मरे, तथा तीसरे दिन जी उठे और फिर जीवित स्वर्ग में उठा लिए गए। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरे पापों को क्षमा कर दीजिए और मेरे जीवन का सारा अधिकार तथा नियंत्रण अपने हाथों में ले लीजिये। प्रभु, मेरे दिल में आइए और स्वर्ग राज्य में मुझे स्थान दीजिए। आप अपने वायदों पर सत्य परमेश्वर हैं इसलिए मैं आपका धन्यवाद करता हूँ, आपने मेरे पाप क्षमा कर दिए हैं और मेरे नाम आपने जीवन की स्वर्गीय किताब में लिख दिया है। उद्धार (मोक्ष) के दान के लिए मैं आपका आभारी हूँ। आमीन।”

परमात्मा ने मेरी प्रार्थना को सुन लिया और उसकी असीम शांति मेरे जीवन में प्रवेश कर गई। परमेश्वर के वचन के अनुसार प्रभु ने मुझे अपनी संतान, पवित्र आत्मा का मन्दिर, तथा नई सृष्टि बना दिया। अब मुझे ईश्वर को खोजने के लिये आराधना के स्थानों में जाने की ज़रूरत नहीं थी।

जिस दिन मैंने पश्चाताप तथा उद्धार की प्रार्थना की तब से मेरे सारे पाप प्रभु यीशु के लहू से धुल गए और प्रभु ने मुझे नया जीवन दिया –

“इसलिए यदि कोई मसीह में है तो वह नई सृष्टि है; पुरानी बातें बीत गई हैं; देखो, सब बातें नई हो गई हैं।”


[2 कुरिन्थियों 5:17]

प्रिय पाठक, यदि ये आप के दिल की भी प्रार्थना है और आप सोचते हैं कि आप प्रभु यीशु को अपने व्यक्तिगत उद्धारकर्ता के रूप में ग्रहण करने के लिए तैयार हैं तो मैं आपको उत्साहित करना चाहता हूँ कि आप शांति से बैठकर परमात्मा से प्रार्थना करें। परमेश्वर आपके सभी पापों को क्षमा करेगा और आपको जीवन की ज्योति देगा ताकि आप फिर कभी अन्धकार में न चलें।

मैं आपको यह बताना चाहता हूँ कि उद्धार (मोक्ष) व्यक्तिगत होता है। न तो हमारे पूर्वाग्रहों (पुराने रूढ़ीवादी विचारों) और न ही हमारे किन्हीं सम्बंधों के कारण हमें अपने आपको परमात्मा से मिलन करने से रोकना चाहिए। परमेश्वर हमसे प्रेम करता हैं और हम में से हरेक को पापों से मुक्ति दिलाना चाहता हैं। मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूँ कि आप ईश्वर को एक नई नज़र से बच्चों जैसे पवित्र और शंकारहित विश्वास के साथ उसे देखें। मैं जानता हूँ कि वो आपसे बात करने लगेगा।

यदि आपने भी ये प्रार्थना की है तो आश्वस्त रहिए कि परमेश्वर ने आपके पाप क्षमा कर दिए हैं और स्वर्ग के राज्य के द्वार आपके लिए खोल दिये हैं ताकि आप स्वर्गीय आशीषों से परिपूर्ण हो जाएँ। आपने शारीरिक या भावनात्मक रूप से कुछ महसूस किया है या नहीं इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि परमेश्वर के पवित्र आत्मा ने आपकी आत्मा के सारे पापों तथा उसकी अपवित्रता की सफाई कर दी है। आपकी आत्मा अब परमात्मा के समक्ष निर्दोष है। अब आपको सिर्फ ये करने की ज़रूरत है कि आप निरंतर परमेश्वर से प्रेम करें, उसका वचन पढ़ें, रोज प्रार्थना करें तथा विश्वासियों की संगति करें ताकि अपने विश्वास में मज़बूत होते चले जाएँ। ऐसा करके आप परमेश्वर के बारे में और जानेंगे और उसकी आशीषों का अनुभव करेंगे।



***


जब से मैंने प्रभु यीशु में विश्वास किया है तब से मेरी ज़िन्दगी बदल गई है। मैं एक नए व्यक्तित्व का, नई सोच का, मन फिराया हुआ, उजले चरित्र का तथा ईश्वरीय दर्शन का स्वामी हो गया हूँ। इससे भी बढ़कर पिता परमेश्वर तक मेरी पहुँच हो गई है जिससे किसी भी समय मैं उससे प्रार्थना कर सकता हूँ। मैं सदैव उसकी छत्रछाया में रहने लगा हूँ। आज मेरे पास स्वर्ग में एक चुना हुआ आरक्षित स्थान है। मैं जानता हूँ कि मैं वहाँ जाकर रहूँगा जब मैं यह देह छोड़कर जाऊंगा।

बाद में 1998 में ही, मैंने परमेश्वर की बपतिस्मा की आज्ञा को पूरा किया तथा अपने विश्वास की गवाही दी। इसके साथ ही पूर्णरूप से मैंने अपने आपको प्रभु को समर्पित कर दिया।

“जो विश्वास करे और बपतिस्मा ले उसी का उद्धार होगा, परन्तु जो विश्वास न करेगा वह दोषी ठहराया जाएगा;”


[मरकुस 16:16]

मैंने परमेश्वर पर भरोसा करके जीना सीख लिया है और उसने मेरे जीवन के सभी क्षेत्रों में अपनी जीवित उपस्थिति भर दी है तथा अपना आनंद दिया है। उसने मेरी प्रार्थनाओं के उत्तर दिये, मेरे परिवार का उद्धार किया, मुझे अच्छी नौकरियां दी तथा उनमें सफलता भी दी और एक विश्वासी तथा बहुत ही अच्छी पत्नी दी जो परमेश्वर से प्रेम करती है और उसका भय मानती है। परमेश्वर ने मुझे वो सब कुछ दिया जो एक व्यक्ति अपने जीवन में चाहता है।

आने वाले अध्यायों में मैं परमेश्वर की विश्वासयोग्यता के विषय में विस्तार से बताऊँगा जिससे आप जानेंगे कि परमेश्वर अपने प्रेम करने वालों के प्रति कितना उदार है।

मेरा जीवन ईश्वर की कृपा से पूरी तरह से बदल गया। हालांकि मेरे जीवन में परीक्षाएँ निरंतर आती रहीं, परन्तु मैं भी पवित्र जीवन जीने के लिए परमेश्वर के अनुग्रह से निरंतर अपने शरीर से लड़ता रहा हूँ कि पाप न करूँ। मैं कई बार गिरता भी हूँ परंतु परमेश्वर अपनी असीम करुणा से मुझे उठा लेता है और अपने साथ साथ चलाता है। वो मेरी हरेक आवश्यकता को पूरा करता है। सभी खतरों और मुसीबतों से वो मुझे छुड़ाता है। मुझे किसी बात की चिंता नहीं होती क्योंकि वो मेरा ख़्याल रखता है। वो मेरे बंधनों से मुझे छुड़ाता है और मेरे बोझ अपने ऊपर ले लेता है। जब मुझे प्रार्थना करना नहीं आता तो वो मुझे सिखाता है और यहाँ तक कि मेरे लिए प्रार्थना भी करता है। मेरे प्रभु महान है और उनकी महानता का वर्णन करते समय मेरा दिल धन्यवाद से भर आता है। परमेश्वर की स्तुति हो।

आमीन।