सोमवार, 28 जुलाई 2008

अध्याय 8 ::: प्रार्थनाओं के उत्तर

सभी प्रार्थनाओं के उत्तर होते हैं


जब प्रार्थनाओं के उत्तर होने की बात आती है तो आमतौर पर ये माना जाता है कि ये तो ईश्वर की मर्जी है कि वो प्रार्थना को सुने या ना सुने और उसका अधिकार है कि उसका उत्तर दे या न दे। इसमें परमेश्वर के अधिकार की बात तो ठीक है पर उपरोक्त कथन पूरी तरह से सत्य नहीं है क्योंकि परमेश्वर का एक स्वभाव है और वो उसके विपरीत कभी व्यवहार नहीं करता।

याद रखें कि वो पवित्र परमेश्वर है और कभी न तो झूठ बोलता है और न ही अपने वायदों से मुकरता है। वह इंसान की तरह नहीं है कि अपनी बात से बदल जाए।

बाइबल में परमेश्वर ने अपना स्वभाव व्यक्त किया है। आइए देखें कि वो इस बारे में क्या कहता है। यिर्मयाह कि पुस्तक 29:12 में ऐसा लिखा है –

तब उस समय तुम मुझ को पुकारोगे और आकर मुझ से प्रार्थना करोगे और मैं तुम्हारी सुनूँगा।

पुराने नियम (प्रभु यीशु के पृथ्वी पर मानव रूप में आने से पहले का विवरण) में किये अपने वायदों को परमेश्वर नये नियम (प्रभु यीशु के मानव रूप में आने का तथा उसके बाद का विवरण) में भी सिद्ध करता है। मत्ती तथा लूका रचित सुसमाचारों में ऐसा बताया गया है कि प्रभु यीशु ने कहा (मत्ती 7:7 तथा लूका 11:9) –

माँगो, तो तु्म्हे दिया जाएगा; ढूँढो तो तुम पाओगे; खटखटाओगे, तो तुम्हारे लिये खोला जाएगा।

और 11वीं आयत में भी कि –

“अतः जब तुम बुरे होकर, अपने बच्चों को अच्छी वस्तुएँ देना जानते हो, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता अपने माँगनेवालों को अच्छी वस्तुएँ क्यों न देगा ?”

फिर मत्ती 18:19 में –

“फिर भी मैं तुम से कहता हूँ, यदि तुम में से दो जन पृथ्वी पर किसी बात के लिए एक मन होकर उसे माँगे, तो वह मेरे पिता की ओर से जो स्वर्ग में है, उनके लिए हो जाएगी।”

और मत्ती 21:22 में –

“और जो कुछ तुम प्रार्थना में विश्वास से माँगोगे वह सब तुम को मिलेगा”

मरकुस 11:24 में भी –

“इसलिए मैं तुम से कहता हूँ कि जो कुछ तुम प्रार्थना करके माँगो, तो विश्वास कर लो कि तुम्हे मिल गया, और तुम्हारे लिये हो जाएगा।”

युहन्ना के अध्याय 14 के 13 तथा 14 आयत में ज़ोर देते हुए कि –

“जो कुछ तुम मेरे नाम से माँगोगे, वही मैं करूँगा कि पुत्र के द्वारा पिता की महिमा हो। यदि तुम मुझ से मेरे नाम से कुछ माँगोगे, तो मैं उसे करूँगा।”

युहन्ना 16:24 में प्रभु यीशु ने फिर कहा –

“अब तक तुम ने मेरे नाम से कुछ नहीं माँगा; माँगो, तो पाओगे ताकि तुम्हारा आनन्द पूरा हो जाए।”

हमारा परमेश्वर अल्फ़ा (आदि) और ऑमेगा (अंत) है (प्रकाशितवाक्य 1:8), जो कभी नहीं बदलता परंतु कल, आज और कल एक सा रहता है (इब्रानियों 13:8), जो कि पवित्र है ( 1 पतरस 1:16, लैव्यव्यवस्था 11:44,45, 19:2 20:7) और सिद्ध है (व्यवस्थाविवरण 32:4, 2 शमुअल 22:31)। वो परमेश्वर जो सदियों से वायदे करता चला आ रहा है वो अपने चरित्र की अखण्डता के कारण अपने सभी वायदे पूरा करता है।

यदि हम प्रभु यीशु मसीह की प्रकृति, उनके स्वभाव तथा उनके चरित्र को जानते हैं तो हमें इस बात में कतई संदेह नहीं होगा कि परमेश्वर हरेक प्रार्थना का जवाब ज़रूर देता है। वक्त की ज़रूरत सिर्फ इतनी है कि हम उसके जवाब को सुनने के लिए अपने आत्मिक कानों को तैयार करें। जैसे हम रेडियो या टेलीविजन में अपनी पसंद के कार्यक्रम सुनने अथवा देखने के लिए सही आवृति (फ्रिक्वेंसी) पर चैनल लगाते हैं उसी प्रकार हमें अपने मन-मस्तिष्क को सही जगह लगाना पड़ता है ताकि परमेश्वर की मीठी महीन आवाज़ को सुन सकें।

यदि हमारी प्रार्थना सुनी नहीं जाती है या हम अपनी प्रार्थनाओं के जवाब नहीं पाते हैं तो इसके दोषी हम स्वयं हैं, परमेश्वर नहीं। मैंने कई लोगों को ईश्वर पर दोष लगाते देखा है जबकि गलती हमारी ही होती है। सच में यह परमेश्वर की लापरवाही नहीं है बल्कि हमारा अविश्वास या गलत चीजों में (या गलत जगह पर) विश्वास है।

परमेश्वर के वायदों को अपने जीवन में पूरा करने के लिए हमें कुछ शर्तों को पूरा करना पड़ता है। अपनी प्रार्थनाओं के उत्तर पाने की शर्तें ये हैं कि हम परमेश्वर के मार्ग पर चलने वाले हों, उसके वचन में जड़ जमाए हों, उसकी जीवित आवाज़ को सुनने और मानने वाले हों, पापरहित जीवन बिताते हों तथा उसकी मर्ज़ी पूरी करते हों। यदि हमसे कमजोरी में या अनजाने में पाप हो भी जाए तो उससे पश्चाताप कर आगे का जीवन परमेश्वर के भय में बिताना ज़रूरी है।

बाइबल में यशायाह 59:1,2 में लिखा है –

“सुनो, यहोवा (परमेश्वर) का हाथ ऐसा छोटा नहीं हो गया कि उद्धार न कर सके, न वह ऐसा बहिरा हो गया है कि सुन न सके; परन्तु तुम्हारे अधर्म के कामों ने तुम को तुम्हारे परमेश्वर से अलग कर दिया है, और तुम्हारे पापों के कारण उसका मुँह तुम से ऐसा छिपा है कि वह नहीं सुनता”

और युहन्ना 15:7 में –

“यदि तुम मुझ में बने रहो और मेरा वचन तुम में बना रहे, तो जो चाहो माँगो और वह तुम्हारे लिये हो जाएगा।”

जब हम प्रार्थना करते हैं तो हमें यह विश्वास रखना बहुत ज़रूरी है कि जिससे हम प्रार्थना कर रहे हैं वह परमेश्वर जीवित तथा भरोसेमंद है और अपने वायदों को पूरा करता है। प्रार्थना के समय हमें पूरा विश्वास करना चाहिए (और संदेह नहीं होना चाहिए) कि वो इसका उत्तर ज़रूर देगा, यहाँ तक की प्रार्थना करने के तुरंत बाद यदि हमें पूरा विश्वास है तो हम परमेश्वर का धन्यवाद कर सकते हैं कि उसने प्रार्थना को सुन लिया और उसका उत्तर दे दिया है। इसके अलावा और भी बहुत सी बातें मैं लिख सकता हूँ पर यदि हम परमेश्वर से प्रेम करते हैं और उसका भय मानते हैं तो वो काफ़ी है क्योंकि इन के होते हम अपने मन, प्राण तथा आत्मा से आज्ञाकारिता का जीवन बिताते हैं।

ये सभी बातें मैंने अपने आत्मिक जीवन में धीरे-धीरे सीखीं जैसे जैसे मैं पवित्र आत्मा के चलाए जीवन जीता रहा। हालांकि शुरूआत में तो मुझे ज्ञान की बहुत सी बातें नहीं पता थीं पर परमेश्वर द्वारा दिया नया जीवन, बच्चों जैसा सरल विश्वास, प्रार्थना करने का तथा उत्तर पाने का उत्साह और उसके वचन की भूख थी जो मुझे सदा परमेश्वर के साथ रखती थीं और मेरी प्रार्थनाओं के जवाब दिलाती थीं। और मैं आज भी ये मानता हूँ कि परमेश्वर के साथ जीवन बिताने के प्रेम ही काफी हैं, ज्ञान की कोई प्रधानता नहीं है।

मैंने सीखा कि परमेश्वर अलग अलग तरीकों से हमसे बात करता है। कभी परिस्थितियों के द्वारा, कभी हमारी प्रार्थना में मांगी गई वस्तु देकर, कभी अपने दासों के द्वारा तो कभी अपनी मीठी आवाज से जो हमारे मन में आती है और विश्वास के द्वारा हम उसे सुनते हैं।

यदि हम सटीक प्रार्थना करते हैं तो हमें सटीक जवाब भी मिलता है। परंतु यदि हम बात को गोल गोल घुमाकर प्रार्थना करते हैं तो या तो उसका जवाब ही नहीं मिलता और यदि मिल भी जाए तो हम इसे समझ नहीं पाते। सटीक प्रार्थना के लिए हमें परमेश्वर के विश्वास की ज़रूरत पड़ती है।


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परमेश्वर से प्रार्थना के जवाब कैसे पाएँ


यह एक बहुत महत्वपूर्ण सिद्धान्त है जो मैंने बाइबल से सीखा है और मैं आपके साथ बांटना चाहता हूँ। बाइबल अनेक वायदों से भरपूर है। परमेश्वर के वायदे खज़ाने की चाबी की तरह हैं जो कि हमें दे दी गई है।

जब भी हम बाईबल में एक वायदा पाएँ, हमें तब तक प्रार्थना करना चाहिए जब तक पवित्र आत्मा हमारे मन में सम्पूर्ण विश्वास न भर दे और हमें ऐसा लगने न लगे कि यह वायदा हमारे ही लिए है। अगर वायदा किसी शर्त के साथ हो तो पहले आप इस शर्त को पूरा करें और फिर प्रार्थना करें; परन्तु यदि यह वायदा बिना किसी शर्त के दिया गया हो तो तुरंत विश्वास के द्वारा अपनी प्रार्थना का उत्तर प्राप्त करना चाहिए तथा यह मान लेना चाहिए कि सही समय में परमेश्वर इसे पूरा करेंगे और फिर हमें प्रार्थना के जवाब के लिए परमेश्वर का आभार प्रकट करना चाहिए। परमेश्वर अपने समय में आपको आशीष ज़रूर देंगे। हमें तब तक प्रार्थना करनी चाहिए जब तक परमेश्वर की आश्वासन न आ जाए कि प्रार्थना सुन ली गई है। मैं आपसे कह सकता हूँ कि ज्यादा समय नहीं बीतेगा कि आप परमेश्वर के वायदे को अपने जीवन में पूरा होते देखेंगे।


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गवाहियां


प्रभु यीशु में विश्वास करने के बाद धीरे धीरे मैंने ऊपर लिखा सिद्धान्त सीखा। मैं शुरू से लेकर अब तक परमेश्वर की विश्वासयोग्यता से अचम्भित होता रहा हूँ।

यूँ तो हमारा जीवन प्रभु के सभी विश्वासियों की तरह अनगिनत आशीषों से और गवाहियों से भरा हुआ है, परन्तु मैं यहाँ सब बातों का उल्लेख नहीं कर रहा हूँ। मैं आपको उत्साहित करने के लिए और यह दिखाने के लिए कि परमेश्वर कितना महान है और प्रार्थनाओं के उत्तर देने वाला भला परमेश्वर है, कुछ बातें यहाँ लिख रहा हूँ जो कि मेरी याददाश्त में बिलकुल साफ साफ अंकित हैं।

हरेक प्रार्थना के उत्तर के साथ परमेश्वर ने हमें कुछ सिखाया है जिससे हमारा विश्वास बढ़ता चला गया है और प्रभु यीशु हमें उस दिन के लिए तैयार कर रहे हैं जब वो फिर से आने वाले हैं।


असफलताओं का सफलता में बदलना

मुझे जहाँ तक याद है, मैं पढ़ाई में कभी भी बहुत तेज नहीं था। बल्कि खेलकूद में ही मेरा मन ज्यादा लगता था। ऐसे खेल जिनमें शारीरिक व्यायाम ज़्यादा होता है वे मुझे पसंद थे जैसे कुश्ती, फुटबॉल तथा क्रिकेट।

गणित और विज्ञान से तो मेरा हमेंशा से छत्तीस का आंकड़ा रहता था। नवीं कक्षा तक तो मैं साठ प्रतिशत (60%) अंक लेकर पास हो ही जाता था परंतु 10वीं कक्षा के अर्ध-वार्षिक परीक्षाओं में मेरी भद्द पिट गई क्योंकि मेरे 100 में से सिर्फ 3 ही अंक आए।

पढ़ाई के लिये ठीक वातावरण न मिलने के कारण ऐसा हुआ था। मैं स्कूल से भागकर फिल्में देखने लगा और पढ़ाई से मुझे डर लगने लगा था। दसवीं की बोर्ड परीक्षा में मेरे बहुत बुरे अंक आये। गणित में तो मैं फेल ही हो गया था जिसके लिए मैंने फिर से इसका पर्चा लिखा और 47% लेकर पास हुआ। बड़ी मुश्किल से मैं द्वितीय श्रेणी से दसवीं में पास हुआ।
आगे की पढ़ाई के लिए मैं विज्ञान नहीं चुनना चाहता था पर पापा ने कहा कि यदि वे विषय मेरी बस में न हों तो मैं न लूं। यह बात मुझे चुभ गई और मैंने विज्ञान के ही विषय लेना तय किया चाहे आगे कुछ भी क्यों न हो।

केन्द्रीय विद्यालय में तो मुझे यह विषय नहीं मिल रहे थे तो मैंने पौद्दार विद्यालय में जाने का निर्णय लिया। यह सिर्फ लड़कों का स्कूल था और यहाँ के छात्रों के लिए दुनियाभर की सारी शरारतों के बाद ही पढ़ाई का स्थान आता था। मैंने वहाँ कई मित्र बना लिए और कई नई गलत बातें सीखीं। मैं अपने दोस्तों के साथ सिगरेट पीने लगा (शायद मेरे परिवार के लोग आज तक भी ये बात न जानते हों), सप्ताह में एक या ज्यादा बार फिल्में देखने लगा, घर के बजाय हॉटलों में खाना खाने लगा, लड़कियों को छेड़ने लगा और लड़ाई-झगड़ा करना मेरे लिए आदत सी बन गई।

इन सब बातों के चलते, 11वीं कक्षा में मुझे सप्लीमेंटरी आ गई। गिरते पड़ते मैं उसमें पास हो गया पर 12वीं में तो मैं फेल ही हो गया। 12वीं की परीक्षा मैंने दोबारा दी और 47% अंकों से पास हुआ।

मेरी योग्यता से नहीं पर आरक्षण के चलते जयपुर के सबसे अच्छे विज्ञान कॉलेज (महाराजा कॉलेज) में मेरा दाखिला हो गया। मैंने भौतिकी, भूविज्ञान तथा गणित विषय लिए। अजीब बात ये थी कि जिन विषयों से मुझे डर लगता था वो ही मेरी नियति बन गए थे।

प्रथम वर्ष में मेरे 55% अंक ही आये।

द्वितीय वर्ष में मैं कॉलेज के चुनावों में खड़ा हो गया। कई दोस्तों के चढ़ाने पर मैंने यह निर्णय लिया था और मैं भी सोचता था कि इसी से मेरी कुछ तो पहचान बनेगी। चुनाव तो मैं हार ही गया पढ़ाई में भी मेरी नुकसान हुआ। इस साल मेरे सिर्फ 45% अंक ही आए।

हालांकि मैं आत्मनिर्भर होने की सोचा करता था ताकि अपनी मम्मी तथा भाई-बहन को खुश रख सकूँ परंतु इस दिशा में मैं अब तक कुछ भी नहीं कर रहा था। परंतु तीसरे वर्ष में प्रभु यीशु मेरे जीवन में आये और उसके बाद मेरा जीवन बिल्कुल बदल गया।

मैंने सही या गलत, सभी कारणों से लड़ाई-झगड़ा करना बंद कर दिया। सभी लड़कियों को मैं बहन की तरह देखने लगा, मैंने सिगरेट पीना बिलकुल छोड़ दिया, मेरा दिमाग भी जैसे बदल सा गया था। मैं अपने जीवन के तथा परिवार के प्रति जिम्मेदारी महसूस करने लगा था।

जैसे कोई अंधेरे कमरे में दीया जलाता है ठीक उसी प्रकार मेरे जीवन के अंधकार में परमेश्वर की ज्योति आ गई थी। तीसरे वर्ष में पहली बार मुझे 74% अंक मिले। यह मेरे जैसे विद्यार्थी के लिए एक चमत्कार से कम नहीं था। परमेश्वर ने मेरे लिये यह किया था।

राजस्थान विश्वविद्यालय के कम्प्यूटर डिप्लोमा की भर्ती परीक्षा में मैं प्रभु की दया से मैं आरक्षित सीटों में प्रथम स्थान पर आया था। यह भी एक आश्चर्यकर्म ही था।

प्रभु यीशु को जानने से पहले मैं नकल करने में उस्ताद था और परीक्षा से पहले अपना ज्यादा समय पर्चियां बनाने में निकालता था ताकि परीक्षाओं में उत्तर लिख सकूँ। परमेश्वर को जानने के बाद ये आदत कहाँ चली गई ये मुझे भी नहीं पता और न ही कभी ऐसी इच्छा या ज़रूरत मुझे कभी महसूस हुई।

मुझे भारत के सबसे प्रतिष्ठित संस्थानों में से एक, आई.आई.टी. (रूड़की) में उच्च शिक्षा के लिये दाखिला मिल गया। ये गवाही वृतांत में मैं आगे बताऊँगा। रूड़की में अपने आखिरी प्रोजेक्ट में मैं 92% अंक पा सका और अपने शिक्षकों तथा गाइड से मुझे काफी सराहना मिली।

आगे नौकरी में भी परमेश्वर की बड़ी करूणा हम पर बनी रही और मैं ऊँचा उठता चला गया।

मेरी असफलताएँ गायब हो गईं और सफलताएँ एक एक कर मेरे पास आने लगी। परमेश्वर का अनुग्रह निरंतर मेरे साथ रहा और पढ़ाई, नौकरी, पारिवारिक तथा व्यक्तिगत जीवन की सभी परिस्थितियों में परमेश्वर ने मुझे सही निर्णय लेने में मेरी सहायता की। मैं सच में परमेश्वर का तहे-दिल से शुक्रगुज़ारी करता हूँ।


तीन राष्ट्रीय स्तर की परीक्षाएँ पास कीं –
जो मनुष्य के लिए असंभव है वो ईश्वर के लिए संभव है


स्नातक पढ़ाई के आखिरी वर्ष में (1997-1998), मुझे दो बातों में से एक बात का चुनाव करना था – या तो मैं कोई नौकरी करूँ या किसी अच्छे संस्थान में उच्च शिक्षा के लिए दाखिला लूँ।

पापा चाहते थे कि मैं एक प्रशासनिक अधिकारी बनूं या फिर किसी प्रतिष्ठित जगह पर उच्च तकनीकी शिक्षा लूं। वो इस बारे में सारी जानकारियां भी इकट्ठी करके रखते थे। उनको शौक था कि वो सलाह दें। वो न सिर्फ हमारा मार्गदर्शन करते थे बल्कि उन सभी को भी उत्साहित करते थे जो उनसे राय लेने आते थे और उनको सब प्रकार की जानकारी देते थे।

मैं कॉलेज की पढ़ाई के बाद कम्प्यूटर (मास्टर ऑफ कम्प्यूटर एप्लीकेशंस) की पढ़ाई करना चाहता था और मैंने इसी के लिए तैयारी भी करना शुरू कर दिया था। पापा ने ज़ोर देकर बहुत सी जगहों पर अलग अलग विषयों के लिये फार्म भरवाए। मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय, बड़ोदा (वडोदरा) विश्वविद्यालय, रूड़की विश्वविद्यालय तथा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के फार्म भर दिए। भूविज्ञान की उच्च शिक्षा के लिए जाने की मेरी कोई इच्छा ही नहीं थी फिर भी पापा के कहने पर मैंने रूड़की में भूविज्ञान में एम. टैक. के लिए भी फार्म भर दिया था।

हमारी तैयारी में ज़्यादातर पापा के शराब पीकर आने से विध्न पड़ जाता था। वो अगर इसे बंद नहीं कर सकते तो कम से कम मात्रा तो घटा सकते थे – यह विचार हमारे मन में आता था। कई बार मुझे अपने दोस्तों के सामने पापा की इस आदत के कारण शर्मिंदा होना पड़ता था। न तो मैं अपने दोस्तों को अपने घर बुला सकता था और न ही तैयारी करने उनके घर जा सकता था क्योंकि फिर मुझे घर की चिंता सताती रहती।

रश्मि के सामने भी पापा ने कई बार घर में तमाशा किया पर सिर्फ ये एक ऐसी दोस्त थी जिसके सामने मुझे शर्म नहीं आती थी। वो हमारे परिवार का एक भाग सी हो गई थी और हरेक बात में मुझे समझाती थी कि यह पापा की गलती नहीं है बल्कि शैतान उनके पीछे से हमको नाश करने की कोशिश करता है। वो मेरे साथ इस विषय में प्रार्थना भी किया करती थी।

उन महत्वपूर्ण दिनों में एक दिन पापा बहुत शराब पीकर घर लौटे और फिर आगे दो-तीन दिन तक लगातार पीते रहे। आखिरकार मैंने उनको रोकने की चेष्ठा की और यह बात मुझे बहुत भारी पड़ी। वो बहुत गुस्सा हो गये। उन्होंने बड़े स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि मैं पहले ज़िन्दगी में कुछ करके दिखाऊं और फिर उनसे बात करूँ अथवा नहीं।

उन्होंने कहा," मुझे कुछ बताने की और समझाने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, तुम्हारी औकात अभी क्या है? तुम कीड़े के समान हो। कीड़े-मकोड़े रोज़ पैदा होते हैं और मर जाते हैं। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता यदि तुम कहीं जाकर मर जाओ।" उन्होंने मुझे कहा कि मैं उनके घर से निकल जाऊँ या अपने आप को सिद्ध करके दिखाऊँ। और यह भी, “जाओ और तीनों परीक्षाओं में पास होकर दिखाओ वर्ना मुझसे कभी ऐसी बात मत करना”।

मुझे बहुत दुःख हुआ और मैं परमेश्वर के सामने बहुत रोया। इस पूरे वाकये में एक ही खुशी की बात मुझे नज़र आ रही थी, वो ये कि पापा ने कहा कि अगर मैं तीनों परीक्षाएँ जो अभी बची थीं, उनमें पास होकर दिखा दूँ तो वो शराब पीना छोड़ देंगे। फिर भी दुनियावी तरीके से मेरे पास कोई आशा नहीं थी क्योंकि तीनों ही परीक्षाएँ बड़ी प्रतिष्ठित संस्थानों की थीं और मेरे लिए इन सबमें एकसाथ पास हो पाना बहुत मुश्किल था।

मुझे तीन राष्ट्रीय स्तर की परीक्षाओं में बैठना था और मुझे मालूम नहीं था कि मैं कैसे पास होउंगा क्योंकि ये मेरे लिए ऐसा था जैसे किसी ने मुझे अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग) और चिकित्सा विज्ञान (मेडीकल साइंस) दोनों के प्रवेश परीक्षा में पास होने के लिए कहा हो, जो नामुमकिन तो नहीं पर बहुत ही दुष्कर है।

मैं इस प्रकार प्रार्थना करता था –

“प्रिय प्रभु यीशु, मैं जानता हूँ कि अपनी बुद्धि, सामर्थ और मेहनत से मैं इन तीनो परीक्षाओं में पास नहीं हो सकता। मैं सिर्फ MCA के लिए ही तैयारी कर रहा हूँ और मेरे पास तो भूगर्भ-विज्ञान (रूड़की) की तैयारी करने का समय भी नहीं है। प्रभु, इस स्वर्ग और पृथ्वी के रचनाकार तो आप ही हैं, आपको सबकुछ मालूम है, आप मुझे सब कुछ सिखा सकते हैं। कृपया तैयारी करने में और तीनों परीक्षाओं को पास करने में मेरी सहायता कीजिए। आमीन।”

मेरे पास तैयारी करने के लिए बहुत ही कम समय था। लोग साल साल भर तैयारी करते हैं कि रूड़की में प्रवेश पा सकें, मैं 20-25 दिन में क्या कर सकता था। जो मेरे बस में था मैंने किया और बाकि सब प्रभु पर विश्वास करके छोड़ दिया था।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की तथा रूड़की की प्रवेश परीक्षा देने के बाद मैं वडोदरा चला गया। मेरे पास एक अटूट आशा थी कि परमेश्वर ने मेरी दुआ सुन ली है और वो उसका जवाब ज़रूर देंगे। आखिरी परीक्षा का परिणाम आ गया और मैं वडोदरा के महाराजा सायाजीराव विश्वविद्यालय का छात्र हो गया।

कुछ दिनों के पश्चात मम्मी ने फोन किया और मुझे अपना टिकट बनाने के लिए कहा। उन्होंने बताया कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (MCA) की परीक्षा का परिणाम आ गया और मैं पास हो गया था और मुझे वहाँ अपनी अंक-तालिका (मार्क-शीट) जमा करनी थी। उन दिनों राजस्थान विश्वविद्यालय में हड़ताल चल रही थी और इस कारण हमारी अंक-तालिका नहीं आई थी। मुझे व्यक्तिगत रूप में जाकर कार्यालय में उसकी प्रति मांगनी थी।

दूसरे दिन फिर मम्मी का फोन आया और उन्होंने मुझे जल्दी आने के लिए कहा। उन्होंने फिर बताया कि बनारस जाने से पहले मुझे रूड़की भी जाना था क्योंकि मैं उसमें भी पास हो गया था।

मेरी आंखों में आंसू आ गये और मेरा गला भर आया। मैं आगे कुछ नहीं बोल पाया पर रोते रोते मैं प्रभु का धन्यवाद करता रहा। उसकी करूणा ने मेरे लिए असंभव को संभव कर दिया था।

मैं परमेश्वर का धन्यवाद करता हूँ कि उसने मुझे लज्जित नहीं होने दिया। उसने अपना वायदा पूरा किया और मुझे पूँछ नहीं पर सिर ठहराया। प्रभु की स्तुति हो।


गणित के एक प्रश्न का हल –
आवश्यकता के समय विद्यमान मदद


मैं स्नातक पढ़ाई के तीसरे वर्ष में अंकगणित का एक पर्चा देने के लिए परीक्षा हॉल में बैठा था। अपनी नई आदत के अनुसार मैं प्रार्थना करने लगा ताकि प्रश्न मेरे लिए आसान हों तथा परमेश्वर के बुद्धि और ज्ञान से मैं पर्चा लिख सकूँ।

थोड़ी देर में पर्चा मेरे हाथ में आ गया। हमारे प्रश्नपत्र में तीन भाग हुआ करते थे जिनमें तीन-तीन प्रश्न होते थे। हरेक भाग से कम से कम एक प्रश्न लेते हुए हमें कुल पाँच प्रश्न हल करने होते थे। पहले भाग से सवाल न हल करने की दशा में हमारी कॉपी की जाँच न होने की भी संभावना थी।

मुझे दूसरे और तीसरे भाग के सभी प्रश्न आते थे पर पहले भाग से एक भी प्रश्न का हल नहीं आ रहा था। मुझे डर लगा कि ऐसे तो मैं फेल ही हो जाऊँगा। अब मुझे अपनी काबलियत पर कोई भरोसा नहीं रहा। मैंने अपने पेन-पेपर नीचे रखकर प्रार्थना करना शुरू कर दिया।

प्रार्थना के तुरंत बाद जो भी मेरे दिमाग में आने लगा, मैं उसे जल्दी जल्दी लिखने लगा। इस प्रकार पहले भाग से एक प्रश्न करने के बाद मैंने बाकी का पर्चा हल किया और घर भागा। घर पहुंचते ही मैंने किताब खोलकर देखा तो पाया कि जो प्रश्न मुझे नहीं आता था और जिसका जवाब मैंने परमेश्वर से पाया था वो एकदम वैसा ही था जैसा किताब में लिखा था।

बाइबल में याकूब 1:5 में लिखा है –

“पर यदि तुम में से किसी को बुद्धि की घटी हो तो परमेश्वर से माँगे, जो बिना उलाहना दिए सबको उदारता से देता है, और उसको भी दी जाएगी।”

परमेश्वर ने अपना ये वायदा भी पूरा किया। मैं परमेश्वर की निरंतर उपस्थिति के लिए और तुरंत प्रार्थना के उत्तर के लिए उसका सदा धन्यवाद करता रहता हूँ।


रूड़की में चर्च का मिलना –
अनपेक्षित जगह में प्रार्थना के उत्तर मिलना


कॉलेज की पढ़ाई के बाद, परमेश्वर ने अपनी मर्जी मेरे जीवन में पूरी की और बाकी सब द्वार बंद कर सिर्फ रूड़की का द्वार खुला रखा। मैंने भूविज्ञान (एप्लाइड जियोलॉजी) के एम. टेक. प्रोग्राम में प्रवेश ले लिया। पापा मुझे वहां छोड़ने गये थे, यह उनके लिए एक ऐसे स्वप्न के समान था जो पूरा हो गया था।

वहाँ जाने के बाद बहुत समय तक मुझे कोई चर्च नहीं मिला। मेरी गिदौन बाइबल ही मुझे हर दिन परमेश्वर के बारे में सिखाती थी और मेरा उत्साहवर्धन करती रहती थी। मैं रोज इसमें से पढ़ता था और प्रार्थना किया करता था। मैं जयपुर फोन करके पास्टर पीटर से भी आग्रह करता था कि वो मेरे लिए एक चर्च ढूंढे।

मेरे एक सहपाठी (और बहुत अच्छे मित्र) लेखराज के साथ, जो मेरे साथ गंगा भवन (छात्रावास) में रहता था, मुझे परमेश्वर के प्रेम का सुसमाचार बांटने का मौका मिला। कभी कभी मैं उसके साथ प्रार्थना करने के लिए उसके कमरे में चला जाता था।

एक दिन जब मैं उसके कमरे में बैठा था और वो अपना कमरा साफ कर रहा था; तभी एकाएक परमेश्वर ने जैसे मुझे उस कचरे में से कुछ उठाने के लिए प्रेरित किया। आमतौर पर हम ऐसा नहीं करते पर पता नहीं क्यों मैंने तुरंत उस कचरे में से, जो वो झाड़ू से निकाल रहा था, एक मुड़ा-तुड़ा कागज़ उठा लिया। वो एक मसीही प्रचार का कागज़ था जिसमें कलीसिया का पता तथा एक आमंत्रण संदेश लिखा था। तब से लेकर जब तक हम रूड़की में रहे, हम (मैं और प्रेरणा) उसी चर्च में संगति करते रहे। पास्टर लांस का यह चर्च हमारे जीवन में एक अलग स्थान रखता है। यही वो जगह थी जहाँ प्रेरणा ने उद्धार पाया और हम साथ में विश्वास में बढ़े।

परमेश्वर ने एक ऐसी जगह पर मुझे मेरी प्रार्थना का उत्तर दिया जहाँ मैं कतई भी इसकी उम्मीद नहीं कर रहा था। इससे परमेश्वर ने सिखाया कि जब हम प्रार्थना करते हैं तो इसका जवाब पाने के लिए हमेंशा सब जगह तैयार रहना चाहिए क्योंकि परमेश्वर अनपेक्षित जगहों पर भी प्रार्थना का जवाब दे सकता है।


मेरे बैग का खोना और पाना –
परमेश्वर पर विश्वास कर शांति के साथ आगे बढ़ना


यदि हम बच्चों जैसे सरल विश्वास के साथ बिना संदेह के प्रार्थना करें तो हम हरेक प्रार्थना का जवाब पा सकते हैं। परमेश्वर ने ऐसा आश्वासन बाइबल में दिया है ।

रूड़की की पढ़ाई के दौरान सर्दियों की छुट्टियों में मैंने घर जाने की योजना बनाई। जब मैं तैयारी कर रह था तो मुझे पता चला कि देहरादून में एक 3 दिन की मसीही सभा होने वाली थी। मैंने सोचा कि मैं पहले इसमें जाऊँगा और फिर सीधा जयपुर चला जाऊंगा।

वहाँ जाने का अनुभव बड़ा ही अच्छा रहा। हर दिन की शुरूआत प्रार्थना, आराधना तथा बाइबल वचन से होती थी। उसके बाद पूरे दिन में 2 या 3 प्रचार होते थे, दिन में अलग अलग गुट बनाकर कुछ आत्मिक विषयों पर विचार-विमर्श होता था। इन तीन दिनों में हम विश्वास से और वचन से लबालब भर गये थे।

सभा का समापन होने के बाद मैं दिल्ली जाने के लिए मैं देहरादून से एक बस में बैठा। दिल्ली जाने का रास्ता रूड़की से होकर गुज़रता था। बस जैसे ही रूड़की में रुकी, मैं थोड़ा तरोताज़ा होने के लिए और पानी की बोतल खरीदने के लिये नीचे उतर गया। भारी भीड़ के कारण बस तक पहुँचने में मुझे थोड़ी देर हो गई और मेरी बस छूट गई।

मैंने इस परिस्थिति को भी बड़े आराम से लिया, मैं बदहवास नहीं हुआ। बल्कि मैंने परमेश्वर का धन्यवाद किया क्योंकि मैं जानता था कि सब बातें उसके नियंत्रण में थीं। मैने विश्वास किया कि प्रभु मुझे मदद करेंगे कि मैं ‘चीतल ग्रांड’ (मिड-वे जहाँ बस थोड़ी देर के लिये रुकती थी) पर अपनी बस वापस पकड़ सकूँ।

थोड़ी देर के इंतज़ार के बाद मुझे एक स्थानीय बस मिली और मैं उसमें बैठ गया। यह बस रोडवेज बस की तुलना में बहुत धीरे चल रही थी, फिर भी मेरा विश्वास मुझे परमेश्वर की काबलियत पर संदेह नहीं करने दे रहा था।

बस में जो व्यक्ति मेरे पास बैठा था उसने मुझे गीत गाते देखा और समझा कि मैं बहुत खुश था। उसने मुझसे इसका कारण पूछा तो मैंने उसे परमेश्वर के प्रेम के बारे में बताया जो मुझे हरेक परिस्थिति में आनंद देता है। फिर उसने पूछा कि मैं कहाँ जा रहा था। मैंने उसे सारी बात बताई कि किस तरह मेरी बस छू़ट गई और मैं उसे चीतल ग्रांड पर पाने की अपेक्षा कर रहा था। उस भाई को बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि जिस बस में हम बैठे थे वो तो बहुत धीरे चल रही थी और रोडवेज बस को इससे पकड़ पाना नामुमकिन सा था। मैंने उससे कहा कि परमेश्वर के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है और वो बस को एक घण्टे तक भी रोके रह सकता है।

मैं चीतल ग्रांड पर इस बस से उतरकर मिडवे के बस-स्टैंड की ओर लपका जहाँ मेरी बस खड़ी थी। झट से मैं उसमें चढ़ गया और देखा कि सारे यात्री पहले से बैठे थे और ड्राईवर के पिछले आधे घण्टे से न आने के कारण भिनभिना रहे थे। मैंने अपना सामान अपनी सीट पर सुरक्षित पाया। जल्दी ही ड्राइवर भी आ गया और हम चल पड़े।

इस घटना के द्वारा भी परमेश्वर ने सिखाया कि वो हमेंशा हर स्थिति को अपने नियंत्रण में रखता है। अपने विश्वासियों पर वो करूणा करता है, हमें हर छोटी और बड़ी परिस्थिति में सिर्फ उसपर भरोसा करने की ज़रूरत है। इस बात से परमेश्वर ने मेरे विश्वास को बहुत बढ़ाया।


हमारी पहली नौकरी –
अनदेखे को देखना परमेश्वर ने सिखाया


मैं और प्रेरणा दोनों सहपाठी भी थे और साथी विश्वासी भी। हमारी परमेश्वर पर निर्भरता बढ़ती जा रही थी और परमेश्वर भी हमारी प्रार्थनाओं के उत्तर देकर हमारे विश्वास को बढ़ाता जा रहा था।

हम दोनों को ही नौकरी की सख्त ज़रुरत थी ताकि अपने अपने परिवारों की ज़िम्मेदारी उठा सकें। हमने यह विनती परमेश्वर के चरणों में रख दी और हर दिन इस बात के लिए दुआ करते रहे।

पॉल योंगी चो कि एक किताब ‘विश्वास की अद्भुत रेखा’ पढ़ने से हमने बाइबल का प्रार्थना के विषय में एक सिद्धान्त सीखा था और इसलिए न सिर्फ हमने इस बात पर विश्वास किया कि हमें नौकरी मिल चुकी है बल्कि हमने इस बात को सबके सामने बोलना भी शुरू कर दिया।

“अब विश्वास आशा की हुई वस्तुओं का निश्चय, और अनदेखी वस्तुओं का प्रमाण है।”

[इब्रानियों 11:1]

मुझे लगता था कि हमारी नौकरी NIIT (इसरी इंडिया) कम्पनी में ही लगेगी। मैं कई बार ऐसा बोल भी देता था। जब हम बोलते थे कि हमें तो नौकरी मिल चुकी है तो हमारे कई मित्र और सहपाठी इस बात पर हमारा मज़ाक भी उड़ाते थे। वे तरह तरह के सवाल करते थे; कोई पूछता कि क्या हमने कोई घूस खिलाई थी, तो कोई ये कि क्या हमारी बड़ी पहुँच थी। हमारे पास इन सब बातों का कोई जवाब नहीं था क्योंकि हम तो बस विश्वास के द्वारा ही ऐसा बोलते थे।

कई लोग हमें हतोत्साहित करने की कोशिश करते। वे कहते थे कि NIIT कम्पनी कैम्पस इंटरव्यू (साक्षात्कार) के लिए आएगी ही नहीं, और अगर आ भी गई तो भूविज्ञान के छात्रों को परीक्षा में बैठने की अनुमति नहीं देगी। और यह भी हो गया तौभी कक्षा के सबसे होनहार तथा उत्तम छात्रों का ही चयन करेगी। हम फिसड्डी तो नहीं थे पर अव्वल भी नहीं थे।

अन्ततः वो दिन आया जब परिसर में हो रहे इंटरव्यू के खत्म होने से एक दिन पहले NIIT आई। अपनी एक घोषणा में उन्होंने यह बता दिया कि ये भूविज्ञान के छात्रों के लिए भी खुली थी। उन्होंने फिर बताया कि वे तीन तरह की परीक्षा लेने वाले थे। हमें तीसरी परीक्षा GIS (भौगोलिक सूचना प्रणाली) के विषय में कुछ नहीं मालूम था।

हमने प्रार्थना करना शुरू कर दिया कि बाकी सभी टेस्ट में तो हम पास हो सकें पर तीसरी टेस्ट हो ही नहीं। दो परीक्षाओं के खत्म होते ही तुरंत हम पास्टर के पास गए और उनसे कहा कि हमारे लिए दुआ करें ताकि तीसरी परीक्षा न हो। उन्होंने हमें समझाया कि कम्पनी जब तैयारी के साथ आई है तो बेहतर है कि हम प्रार्थना करें कि हम उसमें पास हो जाएँ। पर हमने फिर भी कहा कि हमें इसकी परिभाषा के अलावा कुछ भी नहीं आता। पास्टर ने हमारे विश्वास को देखते हुए हर्षित मन से दुआ की कि GIS की परीक्षा न हो।

वापस आकर हमने देखा कि प्रभु की दया से हम पहली दो परीक्षाओं में पास हो गए थे। थोड़ी देर में कम्पनी के एक मैंनेजर ने आकर कहा कि समय के अभाव के कारण वे GIS की परीक्षा नही ले पाएँगे।

हमें विश्वास हो गया कि परमेश्वर हमारे साथ था।

साक्षात्कार शाम 7:30 बजे शुरू हुए। युवतियों को पहले बुलाया गया। प्रेरणा और मैं टहल टहलकर निरंतर परमेश्वर से प्रार्थना करते रहे। कई दोस्त आकर पूछते थे कि ये पढ़ा या वो पढ़ा, और हम कह देते थे कि जो नहीं पढ़ा वो हम अब नहीं पढ़ सकते और फिर हम दुआ में लगे रहते।

प्रेरणा ने कहा कि 35-40 मिनट का साक्षात्कार दे पाना उसके लिए बहुत मुश्किल था और ये भी कि उसे जी.आई.एस. के बारे में ज्यादा मालूम भी नहीं था। हमने प्रार्थना की कि उसका इंटरव्यू 15 मिनट से ज्यादा न हो और कोई तकनीकी सवाल भी उससे न पूछा जाए। जब उसका नम्बर आया तो 15 मिनट से कम समय में वो बाहर आ गई और उसने बताया कि उससे कोई तकनीकी सवाल भी नहीं पूछा गया। हमने फिर परमेश्वर का धन्यवाद किया। उसके बाद जब वो वापस हॉस्टल जाने लगी तो मैंने उससे कहा कि मेरे लिए दुआ करती रहे।

रात में 1:30 बजे मेरा नम्बर आया। मैं 10-11 मिनट में ही वापस आ गया। मुझसे भी कोई गम्भीर तकनीकी सवाल नहीं पूछे गये। मेरे बाद में मेरे ही एक मित्र देवेन्द्र का नम्बर था जो कि 5 मिनट में ही बाहर आ गया।

कई लड़के बहुत नाराज़ हो रहे थे और कम्पनी को गालीयाँ दे रहे थे। उन्हें लग रहा था कि बाद में कम्पनी ने सिर्फ खानापूर्ति की थी, और जिन्हे वो लेना चाहते थे उन्हें पहले ही से चुन लिया था। मुझे बड़ी शान्ति के साथ चलते देख उनमें से किसी ने मुझसे पूछा कि क्या मुझे गुस्सा नहीं आ रहा था। मैंने उनसे कह दिया कि कम्पनी कम से कम 2 जनों को तो लेकर ही जाएगी, प्रेरणा और बृजेश; तो मैं गुस्सा क्यों करूँ। शायद उन्होंने सोचा कि मेरा दिमाग खराब है।

उनमें से कुछ तो हमारे विश्वास के बारे में जानते भी थे फिर भी वे आत्मिक जीवन और भौतिक जीवन के बीच सम्बंध नहीं बना पा रहे थे। यह तभी होता है जब हम धर्म की पालना तो करते हैं, उसके रीतिरिवाजों को भी मानते हैं पर परमेश्वर को अपने जीवन का अंतरंग भाग नहीं बना पाते हैं। बाइबल से हमने सीखा था कि हमें दोहरी ज़िन्दगी नहीं जीनी चाहिए बल्कि हमारा जीवन पारदर्शी और परमेश्वर को महिमा देने वाला होना चाहिए।

अगले दिन सुबह हमें परिणाम पता चले और कुल 8 लोग चुने गये थे जिनमें मैं और प्रेरणा भी थे। उसके बाद एक बार हमें साक्षात्कार के लिए बुलाया गया। हमने दुआ की कि हमारे डिपार्टमेंट से कोई भी छांटा न जाए, और अन्ततः 6 ही लोग चुने गए जो सभी हमारे डिपार्टमेंट से ताल्लुक रखते थे।

परमेश्वर ने दुनिया की सोच से परे एक आश्चर्यकर्म हमारे जीवन में किया था। लोग कहते थे कि NIIT (इसरी इंडिया) कम्पनी नहीं आएगी, वो आई। वो कहते थे कि अर्थसाइंस डिपार्टमेंट के छात्रों को नहीं लेगी पर सभी लोग जो चुने गए वो इसी विभाग के थे। और वो कहते थे कि बृजेश और प्रेरणा को नहीं लेगी पर हम दोनों को भी लिया।

बाद में सूचना तकनीकी (IT) में काम करने वाली कई कम्पनियों ने चयनित छात्रों को खेद-पत्र भेज दिए। हमारे साथ के कई लोग भी चिन्तित हुए पर हमने कहा कि परमेश्वर अपनी आशीषों में दुख नहीं मिलाता और ये नौकरी परमेश्वर की आशीष ही थी। सो हमने उन्हें आश्वस्त किया कि परमेश्वर हमें कभी निराश नहीं करता इसलिए कम्पनी खेद-पत्र नहीं भेजेगी। और ऐसा ही हुआ और अन्ततः अपनी पढ़ाई खत्म करने के बाद सितम्बर 2001 में हम सभी ने दिल्ली में नौकरी शुरु की।

इस बात से परमेश्वर ने हमें सिखाया कि हमें अब्राहम कि तरह अनदेखे को विश्वास से देखना और अनगिनत को विश्वास से गिनना सीखना चाहिए। परमेश्वर का धन्यवाद हो।


हेमा की शादी –
निराशा में परमेश्वर से आशा


मैं निरंतर अपने पापा के स्वभाव में परिवर्तन और खास तौर पर उनकी शराब पीने की आदत छूट जाने के लिए रोज प्रार्थना किया करता था। हमारा परिवार उनकी इस आदत के कारण बुरी तरह टूट चुका था।

उन्हीं दिनों में पापा ने हेमा की शादी के लिए एक अच्छा नवयुवक देखा। उनका नाम संजीव है। हेमा ने शादी से पहले उन्हें अपने मसीही विश्वास के बारे में बताया। समय के साथ उन्होंने स्वयं मसीह के प्रेम को चखा और उस पर विश्वास किया। अपने आप में वो काफी नम्र और शांत स्वभाव के पुरूष हैं।

मेरी नज़र में संजीव, हेमा के लिए एकदम सही जोड़ थे। और समय के बीतने के साथ में इस बात से अपने आप में और ज़्यादा सहमत होता चला जा रहा हूँ।

संजीव के परिवार से कुछ गलतफहमी हो जाने के कारण पापा इस सगाई को तोड़ देना चाहते थे। मैं घर से बहुत दूर देहरादून में था और घर पर स्थिति खराब ही थी जैसी मैं छोड़कर गया था। पापा के व्यवहार की बातें सुनकर बहुत दुःखी होता था। कभी कभी मैं अपनी लाचारी पर बहुत रोता था पर एक अच्छी साथी विश्वासी और एक दोस्त की तरह प्रेरणा हमेंशा मुझे ढाढ़स बंधाती थी और विश्वास से मेरे साथ प्रार्थना भी करती थी।

परमेश्वर ने मुझे बुद्धि दी ताकि मैं अपना परियोजना कार्य जल्द पूरा कर सकूँ। मेरे गाइड थोड़ा व्यस्त भी थे फिर भी परमेश्वर की कृपा से मैं अपना 6 महीने का काम 5 महीने में ही खत्म कर घर चला गया कि किसी प्रकार शादी के काम को करा सकूँ।

परमेश्वर ने निराशा के इस समय में भी हमें आशा दी।

हम लोग इस विषय के लिए प्रार्थना कर रहे थे। परमेश्वर ने बड़ी आश्चर्यजनक रीति से इस प्रार्थना का उत्तर दिया। पापा के बहुत पुराने और अंतरंग मित्र जो कि प्रशासनिक सेवा में कार्यरत हैं, समाज में ऊँचा स्थान रखते हैं और संजीव के परिवार से भी परिचित थे, उन्होंने इस बात में हस्तक्षेप किया। उन्होंने कहा कि पापा को इस विवाह को सम्पन्न कराना ही होगा।

पापा यूँ तो अब इस शादी में ज्यादा रूचि नहीं ले रहे थे पर समाज, परिवार और अपने मित्र के दबाव में वो तैयार हो गए थे। परमेश्वर ने बड़ी दया दिखाकर इस विवाह संस्कार को सफल करा दिया। कदम कदम पर परेशानियां आई थीं पर प्रभु यीशु हमारे साथ थे और हमारी हरेक समस्या का निवारण करते जा रहे थे।

आज हेमा शादीशुदा है और उसका एक बेटा (हार्दिक) भी है। संजीव और हेमा, दोनों बपतिस्मा पाए हुए विश्वासी हैं और अपना जीवन परमेश्वर की दया में बिता रहे हैं।


हमारी दूसरी नौकरी –
परमेश्वर के वायदों पर खड़े रहना


परमेश्वर ने बड़ी करूणा दिखाकर हमें (मैं और प्रेरणा) एक ही कम्पनी में पहली नौकरी दी थी और सच में परमेश्वर का हाथ निरंतर हम पर बना रहा था। हम अपने काम और सहकर्मियों के लिए भी दुआ करते थे। वैसे हमारी तरह कई कर्मचारी बहुत मेहनत करते थे परंतु परमेश्वर ने हमारे अधिकारियों के मन में हमारे लिए ऊँचा स्थान बनाया। हमने अपने पेशेवर जीवन में सफलता पाई।

काम के सिलसिले में अप्रैल 2004 में मुझे अमरीका भेजा गया और कई अच्छे प्रोजेक्ट करने का मौका मुझे मिला। अमरीका जाने से पहले मेरा पासपोर्ट खो गया था और जब बहुत ढूंढने पर भी नहीं मिला तो मैं निराश हो चला था। पता नहीं क्यों मैंने प्रार्थना नहीं की, पर प्रेरणा ने प्रार्थना कर उसे ढूंढा और उसी जगह से, जहाँ हम कई बार ढूंढ चुके थे, वो मेरा पासपोर्ट लेकर आ गई। परमेश्वर ने सिखाया कि जीवन की भागदौड़ में और आगे बढ़ने के समय में भी हमें परमेश्वर को नहीं भूल जाना चाहिए।

कम्पनी में मेरा काम सराहनीय रहा और इस के बाद परमेश्वर की दया से मुझे हमारी कम्पनी का बड़ा प्रतिष्ठित पुरस्कार दिया गया। इसी के साथ कम्पनी से मेरी आशाएँ बढ़ गईं थी और मैं अपेक्षा करने लगा था कि नये वित्त वर्ष में मुझे तनख्वाह में अच्छी बढ़ोत्तरी मिलेगी, पर ऐसा नहीं हुआ। मैं समझ गया कि अब समय आ गया कि हमें आगे बढ़ना चाहिए। हमने परमेश्वर से नई नौकरी के लिए प्रार्थना करना शुरू कर दिया।

इसी के साथ यह बताना भी ज़रूरी है कि 2003 में मेरी और प्रेरणा की शादी हो जाने के बाद से, अपने कर्जों को देखते हुए, प्रेरणा ने इन्हीं दिनों में प्रभु से प्रार्थना करना शुरू किया था कि परमेश्वर कैसे भी अपने स्वर्गीय भण्डार से हमारी ज़रूरतें इस प्रकार पूरी करें कि हमारे सारे कर्ज खत्म हो जाएँ।

प्रार्थना करने से पहले भी मैं अपनी अर्जी कई कम्पनियों में भेजता रहता था परंतु वो कभी चुनी ही नहीं जाती थी, पर प्रार्थना करने के बाद कई जगहों से मुझे साक्षात्कार का निमंत्रण मिला। शारजाह की कम्पनी जिसटेक (GISTEC) ने मेरा साक्षात्कार टेलीफोन पर ही ले लिया और कुछ दिनों में मुझे सूचित किया कि वे मुझे नौकरी की पेशकश करना चाहते थे।

मैं नई नौकरी के लिए शारजाह जाने के बारे में सोचने लगा। मैंने योजना बनाई कि पहले मैं जाऊँगा और फिर सब ठीक करने के बाद प्रेरणा को भी बुला लूँगा, लेकिन प्रेरणा इस बात से खुश नहीं थी। वो चाहती थी कि हम साथ ही में शारजाह जाएँ। हम हमेंशा साथ रहे थे और एकाएक ऐसा निर्णय लेना सच में कठिन था।

हमारे विश्वासी भाई और हमारे नज़दीकी मित्र राजकुमार ने भी कहा कि बाइबल में वायदा है कि पति-पत्नी साथ रहेंगे।

“पर सृष्टि के आरम्भ से परमेश्वर ने नर और नारी करके उनको बनाया है। इस कारण मनुष्य अपने माता-पिता से अलग होकर अपनी पत्नी के साथ रहेगा, और वे दोनों एक तन होंगे; इसलिये वे अब दो नहीं पर एक तन हैं। इसलिये जिसे परमेश्वर ने जोड़ा है उसे मनुष्य अलग न करे।”

[मरकुस 10:6-9]

मैं भी इस बात को जानता था पर विश्वास का कदम नहीं उठा पा रहा था। DBF में शनिवार को होने वाली जवानों की सभा में हमने इस बारे में प्रार्थना की। शांति-मार्ग के नाम से जारी राजकुमार भाई और हमारी सेवा में हर इतवार की शाम एक प्रार्थना सभा होती थी जिसमें सभी की ज़रूरतों के लिए दुआ की जाती थी। उसमें हम सभी ने इस विषय पर और प्रार्थना की और हम ये विश्वास करते थे कि (जैसा परमेश्वर के वचन में लिखा है) जहाँ दो या तीन धरती पर एक मन होकर प्रार्थना करते हैं, परमेश्वर स्वर्ग से सुनकर उसका जवाब देता है।

विश्वास का कदम उठाकर मैंने कम्पनी को एक ई-मेल लिखा जिसमें मैंने बताया कि मेरी पत्नी भी बराबर की पढ़ी-लिखी और अनुभवी थी। मैंने पूछा कि क्या वे उसके लिए भी एक नौकरी दे सकते थे। मुझे जवाब मिला कि कम्पनी की नीति (पॉलिसी) के अनुसार वे पति-पत्नी को साथ में नौकरी नहीं दे सकते थे। फिर मैंने इस बाबत उन्हें कोई मेल नहीं लिखा।

हम लगातार प्रार्थना में लगे रहे और प्रेरणा खासतौर पर बड़े बोझ के साथ इस विषय में प्रार्थना कर रही थी। 10-15 दिन बाद मुझे एक ई-मेल मिला जिसमें कम्पनी ने प्रेरणा को नौकरी की पेशकश की थी। प्रभु ने हमारे लिए कम्पनी की पॉलिसी भी बदल दी।

हमने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और जुलाई 2005 में साथ ही शारजाह आए। अभी भी इस कम्पनी में हम ही एकमात्र जोड़ा है जो साथ काम कर रहा है। परमेश्वर का अनुग्रह निरंतर हमारे साथ बना रहता है। प्रभु की स्तुति हो।


शारजाह जाने के रास्ते में –
भरोसा रखना और आज्ञाकारी रहना


जिन्दगी में हमेंशा हमारे पास चुनाव करने का समय आता रहता है। क्या सोचें और क्या नहीं, क्या बोलें और क्या नहीं, क्या करें और क्या नहीं, क्या देखें और क्या नहीं, कहाँ जाएँ और कहाँ नहीं, कैसे प्रतिक्रिया करें और कैसे नहीं आदि।

जब हम जीवित परमेश्वर को जान लेते हैं और उसमें भरोसा रखना शुरू करते हैं तो हमें उसका आज्ञाकारी भी बने रहना चाहिए। हम दिनभर में बहुत से निर्णय लेते हैं। हम उसमें परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर सकते हैं या उसका तिरस्कार कर सकते हैं। हम जो भी निर्णय लेते हैं वो परमेश्वर को पूरी तरह मालूम रहता है।

जब हम शारजाह जाने की तैयारी कर रहे थे तो मेरा एकमात्र विदेश-यात्रा का अनुभव वही था जो मैंने थाईलैंड तथा जापान होते हुए अमरीका तक किया था। अपने उसी अनुभव के अनुसार किन किन चीजों की ज़रूरत हमें पड़ सकती है उनका अनुमान लगाकर बहुत सारा सामान हमने जमा लिया। हमारे सामान का कुल वजन 94 किलोग्रम हो गया जबकि हमें सिर्फ 50 किलो ले जाने की ही अनुमति थी।

हमने अपने सामान के लिए भी कुछ इस तरह से प्रार्थना की –

“हे प्रभु, आप जिस देश में हमें ले जा रहे हैं उसके बारे में हमें कुछ भी नहीं मालूम। हम वहाँ किसी को जानते भी नहीं हैं। हम सिर्फ आप पर भरोसा करके वहाँ जा रहे हैं। हमने बहुत सामान ले लिया है, प्रभु हम प्रार्थना करते हैं कि सब अधिकारियों को अपने अधीन कर लीजिए और हमें और हमारे सामान को बिना किसी असुविधा के सुऱक्षित शारजाह पहुँचने में हमारी सहायता कीजिये। आमीन”

हम लोग जहाँ जरूरी हो वहाँ पैसा जमा करने के लिए भी तैयार थे। जब हम अपना बोर्डिंग पास लेने पहुंचे तो वहाँ बैठे कर्मचारी ने कहा कि हमारे सामान का वज़न बहुत ज़्यादा है और हमें करीब करीब 10,000 रुपये जमा करने पड़ेंगे। यह रकम बहुत बड़ी थी, तौभी हम यह देने के लिए तैयार थे। हम लाइन में खड़े हुए मन ही मन प्रार्थना करते रहे।

उसने हमें एक तरफ खड़े होकर प्रतीक्षा करने को कहा। 10 मिनट बाद उसने पूछा कि क्या हम 5000 रुपये दे सकते थे। हमें बड़ा आश्चर्य हुआ पर हमने कहा, “हाँ, पर हमें रसीद चाहिए”। उसने फिर हमें थोड़ी देर खड़े रखा और फिर पूछा कि क्या 2000 रुपये दे सकते थे और हमने फिर वही जवाब दिया।

आखिरकार उसने बिना कुछ पैसे लिये हमें बोर्डिंग पास दे दिया और अन्दर जाने को कहा। हमें नहीं मालूम ये कैसे हुआ पर हम सिर्फ ये जानते हैं कि हमने परमेश्वर के आज्ञाकारी रहकर रिश्वत न देने का निर्णय लिया और प्रभु ने हमारी सहायता की।

जैसे हम आगे बढ़े, एक कस्टम अधिकारी ने हमें रोक लिया और हमारा सामान पहचानने को कहा। हमारे सामान को पहचानने के बाद उसने भी कहा की हमारा सामान काफ़ी भारी था और पूछा कि हमने इसके लिए कितना पैसा चुकाया। हमने साफ साफ बता दिया कि हमने कुछ भी नहीं दिया। इतने पर उसका एक साथी आकर हमें समझाने लगा कि हम उसे कुछ पैसा दे दें अन्यथा वो हमारे सामान को रोक सकता था या भारी जुर्माना लगा सकता था।

हमने बताया कि हम तो पहले भी कानूनन पैसे देने को तैयार थे और अब भी। पिछले कर्मचारी ने हमसे कुछ भुगतान नही लिया यह हमारी गलती नहीं थी। फिर भी वह हमें डराने की कोशिश करता रहा। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि हम क्या करें, तभी प्रभु ने मेरे मन में कुछ बात डाली।
मेरी बाइबल मेरे हाथ में ही थी और मैंने कहा, “भाई, हम तो प्रभु यीशु के विश्वासी हैं और सेवक हैं। प्रभु का वचन यह बाइबल कहती है कि वो सदा हमारे साथ रहता है, तो बताओ कि हम उसके सामने यहाँ आपको रिश्वत कैसे दें?” और इसके बाद हमने उसे बताया और बाइबल से परमेश्वर के वायदे दिखाए कि कैसे परमेश्वर अपने लोगों कि सारी ज़रूरतें पूरा करता है और उनके साथ रहता है और कैसे वो हमारे पापों की क्षमा कर हमें नया जीवन देता है।

तुरंत उस कर्मचारी का मन बदल गया और वो कहने लगा कि मैं भी ऐसा चोरी का काम नहीं करना चाहता। उसने विनती भी की कि हम उसके लिए नई नौकरी के लिए प्रार्थना करें। उसने हमें आश्वासन दिया कि हमारे सामान में कोई दिक्कत नहीं आएगी और हम निश्चिंत होकर जाएँ। हमने उसके लिए दुआ की और हवाईजहाज में चढ़ गए।

हम अपने साज़ो-सामान के साथ सुरक्षित शारजाह पहुँच गए और हमें किसी तरह का अतिरिक्त खर्चा भी नहीं करना पड़ा। यह हमें अज़ीब लग सकता है परंतु परमेश्वर ऐसे कई काम अपने लोगों के साथ करता है।

हमने हरेक परिस्थिति में उस पर भरोसा करना और उसके आज्ञाकारी बने रहना सीखा। हम समझते हैं कि हर दिन के जीवन में हमें परमेश्वर की कितनी ज़रूरत है। हमारे अनुभव के आधार पर मैं आपको आश्वस्त करना चाहता हूँ कि यदि आप परमेश्वर का भय मानें और हर परिस्थिति में उसकी इच्छा के अनुसार निर्णय लें तो परमेश्वर आपको अनगिनत आशीषें देगा।


***

मैं आज भी जब अपना जीवन देखता हूँ तो मैं पाता हूँ कि अपनी सामर्थ्य में मैं आज भी पतित इंसान ही हूँ, और अपने तरीके से यदि मैं मोक्ष की प्राप्ति का प्रयास करता तो ज़रूर नाश ही हो जाता। मैं तो यह भी नहीं कह सकता कि मैं बहुत अच्छा इंसान हूँ, या मैं पवित्र हूँ, पर हाँ, मैं मेरे परमेश्वर पर गर्व ज़रूर करता हूँ कि उसने अपनी दया के कारण मुझ जैसे पतित मनुष्य को पाप के कीचड़ में से निकालकर चट्टान पर ख़डा कर दिया। मेरे पाप के नंगेपन को दूर करने के लिए अपनी जान तक न्यैछावर कर दी कि अपनी पवित्रता मुझको ओढ़ाए और उसने ही मुझे नया मनुष्य बनाया है।

आज मैं जहाँ तक हो सके, रोज़ सुबह और शाम परमेश्वर के साथ समय बिताता हूँ। मैं उसके प्रेम से अभिभूत हो जाता हूँ क्योंकि हर दिन उसकी करूणा मुझपर नई होती है। वो मेरे पापों को क्षमा कर मुझे पवित्र जीवन जीने की प्रेरणा देता है और जब मैं एक बच्चे की तरह गिर जाता हूँ तो भी वो मुझे पिता की तरह उठाता है और अपनी अंगुली पकड़कर मुझे चलना सिखाता है। वो मेरी प्रार्थनाओं का उत्तर करता है।

मैं अभी भी सीख ही रहा हूँ और प्रभु यीशु के बिना मैं कुछ भी नहीं हूँ। मैं अपने आप से कुछ भी नहीं करता परंतु वो जो अब मेरे अंदर रहता है मुझे बुद्धि और सामर्थ देता है कि मैं रोजाना का जीवन जी सकूँ और उसकी महिमा करूँ।

हमारे जीवन में परमेश्वर की विश्वासयोग्यता की और भी बहुत सी गवाहियां हैं पर मैं सबका उल्लेख नहीं करना चाहता, फिर भी आपको उत्साहित करना चाहता हूँ कि यदि आप भी विश्वास करें और प्रार्थना करें तो ऐसा या इससे भी अच्छा जीवन आपका हो सकता है।