सोमवार, 28 जुलाई 2008

अध्याय 5 ::: ईश्वर से मिलन

परमेश्वर की मेरे जीवन में तैयारी


स्कूल की पढ़ाई के बाद, 1995 में मैं कॉलेज गया। कॉलेज की पढ़ाई के पहले साल में मुझे 55% अंक मिले। द्वितीय वर्ष में मैंने कॉलेज के चुनावों में नामांकन पत्र भरा, चुनाव लड़ा और हार गया। इस वर्ष में मेरे 45% अंक ही आए। मैं अंधकारमय भविष्य की ओर अग्रसर था।

कॉलेज के दिनों में छात्रावास (हॉस्टल) में रहने वाले छात्र बसों में किराया नहीं देते थे। हालांकि मैं हॉस्टल में नहीं रहता था परन्तु फ़िर भी उनके नाम से मुफ़्त में सफ़र किया करता था। बस वाले छात्रावास के नाम से डरते थे इसलिए पैसा नहीं मांगते थे। फ़िर भी यदि किसी ने मांग ही लिए तो मैं उनको डराने की कोशिश करता था और मारपीट भी कर लेता था।

एक बार मैनें एक बस वाले से किराए के मामले में हुई नोक-झोंक को इतना बढ़ा दिया कि हमने बहुत से वाहनों को रोका, क्षति पहुंचाई, चालकों और सहचालकों को पीटा और यहाँ तक कि एक बस को आग लगाने की भी कोशिश की। इसके कारण निजी बसों की बहुत बड़ी हड़ताल हो गई। कई बस वाले हथियार लेकर मुझे ढूंढते थे कि मुझे सबक सिखाएँ। मैं बहुत डर गया था। मुझे कई दिनों तक छुपना पड़ा ताकि बात ठंडी हो जाए। मैं अकेले कहीं नहीं जाता था और बस में तो कतई भी नहीं। पापा ने अपना स्कूटर मुझे दे दिया था। मैं स्कूटर में अपनी सुरक्षा के लिए हथियार रखता था कि कुछ अनहोनी हो तो संभाल सकूँ।

ऐसी कुछ घटनाओं के अतिरिक्त ज्यादातर लड़ाईयां मेरी अपनी नहीं होती थीं बल्कि मैं दूसरों के लिए लड़ता था। मैं सोचता था कि दूसरों की सहायता करने से ही शायद मुझे शांति मिले, पर मेरी इस आदत ने कभी कभी मुझे बहुत शर्मिंदा भी किया।


***

जब मैं विज्ञान स्नातक की कॉलेज की पढाई के तीसरे वर्ष में आया तो एक अंजान ताकत ने मुझे अपने बीते जीवन का अवलोकन करने तथा भविष्य के लिए एक उद्देश्य ढूंढने के लिए प्रेरित किया। जब मैंने यह विचार किया तो पाया कि मैं पूरी तौर पर एक असफ़ल जीवन जी रहा था जिसका कोई स्वर्णिम भविष्य नहीं हो सकता था।

मेरी स्नातक की पढा़ई के दो वर्षों का औसत 50% ही आ रहा था।

ईश्वर के बारे में न तो मैं विचार करता था और न ही उसका कोई भय मेरे मन में था। ‘मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है’, बस यही सवाल मेरे मन-मस्तिष्क में घूमता रहता था।

पहली बार मेरे जीवन में ऐसा समय आया था कि मैं इस तरह की असमंजस की स्थिति में पड़ा था। मैं एक अच्छी जिन्दगी जीना चाहता था और अपनी मम्मी तथा भाई-बहन को खुशमयी जीवन देना चाहता था, उनके चेहरे पर खुशी की झलक देखना चाहता था, पर जैसा जीवन मैं जी रहा था, उससे यह कतई संभव ही नहीं था। मुझे अपने आप पर शर्म भी आती थी।

उस अंजान सामर्थ्य की अगुवाई में मैंने अपने आप ही तीसरे वर्ष में 84% अंक लाने का निर्णय लिया। आप सोचेंगे की जो गिरते पड़ते पास होता हो वो ऐसे सपने कैसे ले सकता था, मैं भी ऐसा ही सोचता था। यह एक ऐसा पहाड़ था जिसे मैं अपने आप से नहीं हिला सकता था, तौभी उस अंजान ताकत के चलाए मैं मेहनत करने लगा और आश्चर्य की बात ये हुई कि आधे साल में ही मैंने लगभग सब पढ़ाई पूरी कर ली। मैं अपनी कक्षा के सबसे कुशाग्र छात्रों की भी मदद करने लगा और मेरे कुछ सहपाठियों ने तो ट्यूशन जाना ही बंद कर दिया। मैं उनकी मदद करने में सक्षम हो गया था। मैं नहीं जानता था कि कौन मेरे लिए यह सब कर रहा था पर यह बात सच है कि मेरा जीवन बदलने लगा था। आज मैं भलीभांति जानता हूँ कि परमेश्वर मेरे जीवन में एक बड़े परिवर्तन की तैयारी कर रहा था।


***


मुझे सुसमाचार सुनाया गया

स्नातक पढ़ाई के तीसरे वर्ष में, भौतिकी के कुछ सवालों के लिए मैंने एक ट्यूशन पढ़ना शुरू किया। उसी ट्यूशन में मेरी मुलाकात रश्मि से हुई। मैं तो उससे दोस्ती करना चाहता था परंतु परमेश्वर की योजना कुछ और ही थी।

लड़की जो मेरे लिए एक कमज़ोरी थी उसे ही परमेश्वर ने अपनी महिमा प्रकट करने के लिए इस्तेमाल किया।

एक बार हमारे ट्यूटर चाहते थे कि हम सब अतिरिक्त कक्षा के लिए इतवार की सुबह आ जाएँ पर रश्मि बिलकुल तैयार ही नहीं थी। बहुत समझाने पर वो 1:00 बजे के बाद आने को तैयार हुई। मैंने जब उससे इसका कारण जानना चाहा कि उसके जीवन में परीक्षा की तैयारी से बढ़कर ऐसा क्या था कि वो आने को तैयार नहीं थी, तब उसने बड़े स्पष्ट शब्दों में बताया, “मैं चर्च जाती हूँ और किसी भी कारण से उसे छोड़ नहीं सकती।”

मैंने फ़िर पूछा, “तुम तो हिंदू हो, फ़िर चर्च क्यों जाती हो?” और उसका जवाब था कि वो एक जीवित परमेश्वर को जान गई थी जो कि उससे प्यार करता था, जिसने उसके पापों को क्षमा कर दिया था तथा उसे उद्धार (मोक्ष का आश्वासन) दिया था। इनमें से कोई भी बात मेरे दिमाग में नहीं घुस पाईं। मुझे यह सारी बातें बड़ी भारी लग रही था और मैं सोच रहा था – कौन इस उम्र में यह सब बातें करता है।

उसने बताया कि परमेश्वर ने इंसान को बनाया ही इसलिए कि उसके साथ संगति करे, इसीलिए, यद्यपि पाप के कारण इंसान आज परमेश्वर से दूर है तौभी उसे पाने के लिए अलग अलग तरीके से प्रयास करता रहता है। उसने और भी बताया कि हम अपने सृजनहार अनश्वर परमेश्वर की सृष्टि अपने नश्वर हाथों नहीं कर सकते। किसी ने ईश्वर को नहीं देखा और इसीलिए उसकी सही तस्वीर या मूर्ति बना पाना असंभव है। उसका तर्क काफ़ी शक्तिशाली था, मेरे पास उसका कोई तोड़ भी नहीं था।

उसने मुझे बताया कि कैसे परमेश्वर ने इस पूरी दुनिया से, बिना किसी जातिगत तथा धर्मगत भेदभाव के, इतना प्रेम किया कि अपना इकलौता पुत्र दे दिया और यह भी कि कि कैसे यीशु मसीह ने पापरहित होते हुए भी हमारे पापों की क्षमा के लिए अपने प्राण देकर हमारे सभी पापों की कीमत चुका दी।

कई बार यह विचार हमारे मन में आ सकता है कि कैसे कोई हमारे पापों के लिए हमारे जन्म से भी पहले उसकी कीमत चुका सकता है। और यह भी की पापों की क़ीमत चुकाने के लिए किसी को मरने की क्या ज़रूरत है और वह भी स्वयं ईश्वर को। तो इसके उत्तर में यहां सारांश में मैं यह कह सकता हूँ कि बाइबल के अनुसार सबने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं और पापों से छुटकारा पाए बिना स्वर्ग में प्रवेश नहीं मिल सकता। पाप की मज़दूरी अर्थात क़ीमत मृत्यु (परमेश्वर से आत्मिक अलगाव) है। सभी को यह क़ीमत चुकानी ही पड़ेगी। क्योंकि हम लोग इस योग्य नहीं कि इस क़ीमत को चुका सकें इसलिए परमेश्वर ने अपने आपको मानवरूप (प्रभु यीशु) में दिया जिसने हमारे पापों के लिए 2000 साल पहले ही कीमत चुका दी। इसे हम बीमा की तरह देख सकते हैं जो हम पहले से करते हैं परंतु यह लागू तब ही होता है जब हम किसी दुर्घटना का सामना करते हैं।

अगले दिन उसने मुझे एक गिडियन बाइबल उपहार स्वरूप भेंट की। मैं नास्तिक नहीं था इसलिए उस किताब को फ़ेंका नहीं पर अपने घर में रख लिया। कई महीनों तक मैंने उसे कभी नहीं पढ़ा। इस दौरान हमारी मित्रता बढ़ती चली गई और हमने आने वाली परीक्षाओं की तैयारी साथ में करना शुरू कर दिया।

एक बार उसने मुझे चर्च (कलीसिया) आने के लिए आमंत्रित किया। पहली बात तो ये कि मैं चर्च की आराधना पद्धति नहीं जानता था, और दूसरी ये कि फ़िल्मों को देखकर चर्च की जो तस्वीर मेरे दिमाग में बनी हुई थी उससे बाहर आ पाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था। मैंने अपनी पुरज़ोर कोशिश की कि मैं वहाँ न जाऊं पर उसके आग्रह के आगे मेरी एक न चली और आखिरकार मैं उसके साथ जाने के लिए तैयार हो गया।

पहली बार चर्च जाने का मेरा अनुभव सच में अविस्मरणीय रहा। यह चर्च कतई भी वैसा नहीं था जैसा मैंने सोचा था। मैं सोचता था कि चर्च का मतलब एक अंग्रेजों के जमाने की पुरानी इमारत जिसमें एक चर्च फ़ादर हो जो कि बड़े शान्त मगर रोबदार शब्दों में बेंचों पर बैठे लोगों को कुछ सिखा रहे हों या फ़िर एक छोटे से जालीदार कमरे में किसी के पापों का अंगीकार सुन रहे हों।

लेकिन यहाँ जो मैंने देखा वो ये था कि एक घर जैसी इमारत थी जिसके एक बड़े हॉल के बाहर बहुत से चप्पल-जूते बाहर उतरे हुए थे। अंदर जाकर मैंने देखा कि कुछ बुजुर्ग लोग कुर्सियों पर बैठे थे पर बाकि सब लोग जमीन पर बिछी हुई दरी पर बैठे थे। एक सरसरी नज़र से देखने पर मैंने पाया कि मेरी कल्पना के उलट सभी औरतें और लड़कियां सलवार सूट या साड़ी पहने थीं और सभी ने अपने सिर चुन्नी या साड़ी के पहलू से ढँक रखे थे। एक बड़ी सी गीत मंडली के बजाय 2-3 जवान लड़के-लड़की आराधना के गीत गिटार और अन्य बाजों के साथ गा रहे थे। पूरी सभा जैसे ईश्वर की वंदना में खोई हुई थी। मेरी कल्पनाओं के विपरीत चर्च के पास्टर ने एक बड़े से सफ़ेद चोगे के बजाय साधारण पतलून-कमीज पहन रखी थी और वो ही सबको परमेश्वर की आराधना करने को प्रेरित कर रहे थे।

यह सब कुछ अभिभूत कर देने वाला दृश्य था। मैं इसे देखते हुए अपने ही विचारों में मग्न था कि तभी आराधना का समय खत्म हो गया और पास्टर ने प्रार्थना का समय घोषित किया। उन्होंने कहा कि जैसे परमेश्वर का पवित्र आत्मा अगुवाई करे और बोझ दे वैसे ही सब लोग अपनी जगह से उठकर दूसरे लोगों के लिए दुआ करें। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था – क्यों लोग एकाएक अपनी जगह छोड़कर अलग अलग व्यक्ति के पास जाकर प्रार्थना करने लगे। मैंने यह सब देखकर अपनी आखें बंद कर ली क्योंकि एक तो मैं नया था और यह सब नहीं जानता था, और दूसरे कोई और भी मुझे नहीं जानता था और मुझे कुछ करने की ज़रूरत नहीं थी। तभी मैं एक आवाज़ को सुनकर चौंक गया। एक बुज़ुर्ग व्यक्ति मेरे पास खड़े थे।

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस व्यक्ति को मेरे लिए कहां से अगुवाई और बोझ मिला क्योंकि मैं तो पहली बार आया था। ये पवित्र आत्मा कौन है जो मुझे जानता है और मेरे लिये बोझ देता है?

उन बुजुर्ग व्यक्ति का नाम ज़ेवियर था। उनके पूछने पर मैंने अपना नाम बताया। उन्होंने फ़िर पूछा कि क्या मुझे किसी विशेष विषय में प्रार्थना कराने की इच्छा थी। मुझे इस तरह की प्रार्थना के बारे में कुछ पता नहीं था तो मैंने बस अपने पापा की शराब की आदत छूट जाने के लिए दुआ करने को कहा। ज़ेवियर अंकल ने मेरे लिए ऐसी वेदना और प्रेम के साथ प्रार्थना की जैसे कि वो मेरे परिवार के भाग हों और हमारे दुख से रोज गुजरते हों। उनकी दुआ में बहुत अधिकार झलक रहा था जैसे कोई बच्चा अपने पिता से अधिकार के साथ कुछ मांगता है। मैंने पहली बार मसीही प्रेम देखा।

जब हम चर्च से बाहर निकल रहे थे तो रश्मि ने मुझे पास्टर से मिलाया। पास्टर ने एक बात बोली जो मेरे अंदर बैठ गई, उन्होंने कहा, “बृजेश, हम किसी धर्म में विश्वास नहीं करते, बल्कि हम परमेश्वर के साथ एक जीवित संबंध में विश्वास करते हैं।” उन्होंने आगे बताया कि परमेश्वर हमारा स्वर्ग में विराजमान पिता है जिसने हमें पैदा किया है और वो हम में रुचि रखता है। वो हमें व्यक्तिगत संबंध बनाने के लिए बुलाता है ताकि हम उसके साथ हमेंशा के लिए एक हो जाएँ।


***

रश्मि दिल्ली की रहने वाली थी। जयपुर में वो सिर्फ़ पढ़ाई के लिए आई हुई थी। एक दिन उसने पूछा कि क्या वो मेरे घर में कुछ दिन रह सकती थी, क्योंकि उसे रहने की समस्या हो गई थी। मैंने मम्मी से पूछा और उन्होंने सकारात्मक जवाब देते हुए कहा कि वो हमारे घर में मेरी बहन के साथ उसके कमरे में रह सकती थी।

अब हम ज़्यादा समय साथ बिताने लगे। मैं बड़ी गहराई से उसको जांच रहा था और हर बात में प्रभु से उसके प्रेम, जीवन तथा व्यवहार में शुद्धता और परमेश्वर में उसकी आशा को देखकर बड़ा आश्चर्यचकित होता था। मैंने उससे सवाल पूछना शुरू किया और वो बड़े धीरज के साथ मेरी सब जिज्ञासाओं को शान्त करती रही। उसने मुझे प्रार्थना करना सिखाया और आराधना के नए नए गीत और भजन सिखाए। मैंने उसके साथ बाइबल पढ़ना शुरू किया। शुरूआत में मैं बाइबल को समझ नहीं पाता था पर उसने मुझे यह भी सिखाया कि मैं बाइबल को कैसे पढ़ूं।

बाद में रश्मि ने और भी कई बातें मुझे बताईं जैसे कि यदि हम परमेश्वर में विश्वास करें और उससे प्रार्थना करें तो वो ज़रूर उत्तर देगा। उसने यह भी बताया कि बाइबल परमेश्वर का वचन है जिससे वो हमसे बात करता है। उसने यह भी बताया कि बाइबल के वचन हमारी आत्मा का भोजन है जिसके बिना हमारी आत्मा कमज़ोर हो जाती है और पाप में गिर सकती है इसलिए इसमें से रोज़ पढ़ना ज़रूरी है। उसने ज़ोर देकर फिर से इस बात को समझाया कि परमेश्वर ने मानव रूप में जन्म लिया, उसने अपने जीवन में कभी पाप नहीं किया फिर भी हमारे पापों के लिए क्रूस पर अपने प्राण त्याग दिये। ऐसा और कौन ईश्वर या गुरू है जिसने हमारे लिए अपने प्राण दिये हों? उसने कहा कि यदि मैं इस बात पर विश्वास करूँ तो मेरा मोक्ष उसी समय हो जाएगा और मैं स्वर्ग में प्रवेश करने का अधिकार पा लूँगा उसने बताया कि ये सिर्फ विश्वास की बात है जो शायद हमारे ज्ञान के द्वारा हमें समझ न आ सके।

तब से मैं बाइबल को एक भूखे व्यक्ति की तरह खाने लगा और प्रभु मुझसे वचनों के द्वारा बातें करने लगे। परमेश्वर ने मेरी अगुवाई करना शुरू कर दिया और आध्यात्म के तथा सफल जीवन के भेद बताना शुरू कर दिया। तीतुस 3:5, 1युहन्ना 1:10, मरकुस 16:16 तथा युहन्ना 3:16, 17 मेरी प्रिय आयतें बन गईं हैं जिन्होंने मेरा जीवन हमेंशा के लिए बदल दिया है।

रश्मि, प्रभु में मेरी बहन, मेरे जीवन में परमेश्वर की एक दूत बनकर आई। उसके काम, उसकी बातें और जीवन जीने का उसका तरीका मुझे प्रभावित कर गया। उसका परमेश्वर से अगाढ़ प्रेम मुझे उसके श्रोत को जानने के लिए प्रेरित करते रहे। उसने उस ‘अनजानी ताकत’ को जानने में पूरी सहायता की।

वो अनजानी ताकत अब मुझे मालूम हो गई थी की वो प्रभु यीशु थे। परमेश्वर को मैं अपने व्यक्तिगत ईश्वर और अपने उद्धारकर्ता के रूप में जान गया था।