सोमवार, 28 जुलाई 2008

अध्याय 9 ::: परमेश्वर की विश्वासयोग्यता

परमेश्वर विश्वासयोग्य और न्यायी है। वो किसी के साथ अन्याय नहीं करता है बल्कि वो तो इस संसार के दबे कुचलों के उत्थान के लिए मानव रूप लेकर दुनिया में आया ताकि उनका उद्धार करे। उसके वचन बड़े प्रभावशाली हैं यहाँ तक कि बाइबल में लिखा है कि स्वर्ग और पृथ्वी तो टल सकते हैं पर परमेश्वर के वचन की एक भी बिंदु या मात्रा पूरे हुए बिना ना टलेगी।

वो अपने वायदों पर सच्चा परमेश्वर है। हम अपने अनिश्चित भविष्य के प्रति भी निश्चिंत होकर अपना जीवन जी सकते हैं क्योंकि परमेश्वर जो आदि से अंत को जानता है वो हमारे साथ है।

“वह अपने वायदों पर खरा परमेश्वर है जो कि उसने अपने वचन में हमसे किये हैं। वह हमसे ऐसी शांति का वायदा करता है जो इस दुनिया में नहीं मिलती। वह अपने वायदे पूरा करता है। वो विश्वासयोग्य परमेश्वर है।”

पिछले पाठ में दी गई सारी बातें परमेश्वर की विश्वासयोग्यता की गवाह हैं। फिर भी मैं कुछ और गवाहियां यहाँ देना चाहता हूँ जिससे आप जान सकें कि परमेश्वर विश्वासयोग्य है और समय उसके लिए कोई कारक नहीं है। विश्वास कीजिए, उसके काम करने का समय एकदम सटीक होता है।

वो प्रार्थना का उत्तर तुरंत दे सकता है या उसमें सालों लगा दे, फिर भी वो जो भी करता है, वो सिद्ध होता है। हम उस पर हरेक परिस्थिति के लिए विश्वास कर सकते हैं।


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मेरे घराने का उद्धार (मोक्ष)


सन 1998 में, परमेश्वर ने प्रेरितों के काम 16:31 से मुझे एक वायदा किया -

“…प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास कर, तो तू और तेरा घराना उद्धार पाएगा।”

मैंने परमेश्वर पर विश्वास किया था और मैं उसकी विश्वासयोग्यता को और प्रार्थनाओं के उत्तर देने की क्षमता को जानता था, इसलिए मेरे पास उसपर संदेह करने के लिए कुछ भी नहीं था। मैंने परमेश्वर के इस वायदे को पकड़ लिया और रोज़ इस बारे में दुआ करने लगा।

मैंने 1998 में प्रभु यीशु पर विश्वास किया था और अपना जीवन उनके हाथों में सौंपकर उनका अनुसरण करने लगा था। जब मैं अपने घराने (परिवार) के उद्धार के लिए प्रार्थना करने लगा तो एक एक कर परमेश्वर ने मेरे परिवारजनों को बचाया और उन्हें विश्वास में लिया। मेरे तुरंत बाद ही 1998 में मेरी बहन हेमा ने प्रभु को अपना जीवन दिया।

पंकज, मेरे छोटा भाई पापा के स्वभाव से तंग आकर घर से भागकर सन 2000 में मेरे पास रूड़की आ गया था। प्रेरणा और मैंने उसे परमेश्वर के प्रेम और कृपा के बारे में बताया। हम तीनों साथ में प्रार्थना करने लगे। उसने परमेश्वर की प्रार्थना के उत्तर देने की सामर्थ्य को देखा और विश्वास किया। मैंने उसे बाइबल से दिखाया कि परमेश्वर माफ़ करने के बारे में क्या कहता है और सब बातों को समझकर वो वापस पापा के पास घर चला गया। कुछ बातों में उसका विश्वास ढीला तो पड़ा पर सन 2001 में वो जब से दिल्ली में मेरे साथ रहने लगा, प्रेरणा के समझाने पर और हमारी संगति से वो वापस प्रभु के नज़दीक आ गया।

सन 2001 से मम्मी ने भी थोड़ा थोड़ा विश्वास करना शुरू किया। उनका विश्वास कुछ ढुलमुल सा था, थोड़ा राधास्वामी मत में और थोड़ा प्रभु यीशु में। वो अपनी परिस्थितियों से बौखलाई हुई थी और उन्हें शान्त करने के लिए सब प्रयास करती रहती थी। काफी लम्बे समय तक वो इस असमंजस की स्थिति में रही कि वो किस पर विश्वास करे और किस पर नहीं।

एक प्रश्न उन्हें सालता रहा कि वो कैसे अपने पुराने विश्वास को त्याग कर इस नए मसीही विश्वास में आगे बढ़े। मैंने उन्हें चेताते हुए कहा, “मम्मी, आप दो नावों की सवारी करो यह बात ठीक नहीं है। किसी भी सूरत में ये दोनों बातें एक नहीं है मतलब दोनों नावें एक ही तरफ, एक ही रास्ते से नहीं जा रही हैं। दोनों नावों में एक एक पैर रखने पर, नाव कोई सी भी ठीक हो, पर ऐसा सवार तो पानी में ही जाता है।” मेरे अनुभव को पहचानते हुए और मेरी बात को समझकर उन्होंने ठीक निर्णय ले लिया। उन्होंने समझ लिया कि रास्ते तो बहुत लोग बताते हैं पर सभी सही नहीं हो सकते। परमेश्वर कभी भी दो एकदम भिन्न तथा विरोधाभासी तरीकों से अपने आपको दो मतों में प्रकट नहीं करेगा। यह बात सच है क्योंकि हमारा परमेश्वर संशय और दुविधा में डालने वाला नहीं पर सही मार्ग दिखाने वाला सच्चा, जीवित तथा सिद्ध परमेश्वर है।

मैं प्रभु का धन्यवाद करता हूँ कि मम्मी ने पुरानी सारी बातें छोड़कर प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार किया और अपना जीवन प्रभु को दे दिया।

इसके बाद सिर्फ पापा ही बचे थे जिनका जीवन परिवर्तन होना अभी बाकी था। शुरू में अकेले मैं ही अपने परिवार के लिए दुआ किया करता था लेकिन धीरे धीरे परमेश्वर ने मेरे परिवार को बचाया और प्रार्थना में मेरे साथी बढ़ते चले गए और परिवार बदलता चला गया। अब हम सब पापा के मोक्ष के लिए प्रार्थना करते थे।

2003 में मेरी शादी प्रेरणा के साथ हुई जो बहुत अच्छी विश्वासी थी और प्रार्थनाओं में मेरी साथी रही थी।

सन 2004 से पहले तक, मेरे घराने में कई लोगों का उद्धार हो गया। इसी साल में दादाजी हमारे साथ कुछ दिन रहने के लिए आए। उन्होंने हमारा परमेश्वर के लिए प्रेम देखा तो बहुत से सवाल किए जिनका जवाब उनको अपने करीब 40 साल के राधास्वामी सत्संग में जाने से नहीं मिला था। सारे जवाब पाने के बाद, अपने पुराने विचार छोड़कर उन्होंने अपना जीवन प्रभु यीशु को दे दिया।

मेरे और प्रेरणा के कई चचेरे और मौसेरे भाई-बहनों ने, हमारे जीवन को देखकर और हमसे प्रभु के बारे में जानकर, प्रभु यीशु में विश्वास किया। प्रेरणा के ननिहाल में भी कई लोगों ने प्रभु के बारे में सुना और प्रार्थना करने लगे और उसके 72 वर्षीय नाना ने अपना जीवन प्रभु को दे दिया।

हमें आशा है कि एक दिन हम अपने संपूर्ण घराने को प्रभु के विश्वास में देखेंगे ताकि हम सब स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकें और अनंत जीवन परमेश्वर के साथ बिताएँ।


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पापा का उद्धार


पापा के गर्म स्वभाव और शराब की आदत के बावजूद प्रभु ने हमें उनसे प्यार करते रहने के लिए प्रेरित किया। हम जान चुके थे कि उनका ये स्वभाव उनके अपने कारण से नहीं बल्कि अंधकार की उन शक्तियों के कारण था जो उनका और हमारे परिवार का नाश करना चाहती थी। मुझे पूरा यकीन था कि परमेश्वर पापा को अपने समय में छुड़ाएगा क्योंकि शैतान और उसकी शक्तियों का सिर प्रभु यीशु ने 2000 साल पहले ही कुचल दिया था।

मैं किसी भी तरह से पापा को नीचा दिखाने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ, पर जो भी मैंने लिखा है वो सब तथ्य हैं। जो भी हो, मेरे शांति तथा सत्य की खोज के पीछे हमारे घर कि परिस्थितियां ही मुख्य कारण रही, इसलिए मैं हरेक बात के लिए प्रभु का धन्यवाद करता हूँ।

प्रिय पाठक, मैं आपको उत्साहित करना चाहता हूँ कि आप अपने आप को जांच लें। आपके परिजन भी यदि अपनी गवाही लिखें तो आपके बारे मे क्या लिखेंगे? क्या वो आपके स्नेह और प्रेम के बारे में लिखेंगे या उन दुःखों का स्मरण करेंगे जिसमें वे आपके कारण होकर गुजरे?

बहुत से लोग इस दुनिया में ईश्वर को नहीं पाते क्योंकि उनके पास दुनियावी सभी ऐशो-आराम के साधन हैं और उनके जीवन में शायद परेशानियां नहीं है। यह भी कई बार शैतान की एक चाल होती है ताकि इंसान अपनी खुशियों में ही ऐसा डूबा रहे कि ईश्वर की ओर उसका ध्यान ही न जाए।

हम लोग परमेश्वर के वायदे के अनुसार निरंतर अपने घराने के लिए, मुख्यतया पापा के लिए, प्रेरणा की मम्मी और भाइयों के लिए, प्रार्थना कर रहे थे। हमारा विश्वास था कि एक दिन उनका भी उद्धार हो जाएगा। हालांकि शैतान भी शांत तो नहीं बैठता था और अलग अलग परिस्थितियों से हमें हतोत्साहित करने की कोशिश करता रहता था, लेकिन हमारा विश्वास कम होने के बजाय बढ़ता ही गया। हमें जितनी ज्यादा निराशा आती थी, हम उतना ही प्रभु की कृपा में और विश्वास करते थे।

हमारे रिश्तेदारों ने, पापा के दोस्तों ने, मम्मी ने, हम बच्चों ने, सभी ने पापा को शराब पीने की आदत को छोड़ने के लिए कई बार समझाया पर वो किसी की नहीं सुनते थे। मुझे ऐसा लगता है जैसे कि वो इस बात में अपने आप को असहाय महसूस करते थे और कोई शक्ति उन्हें लगातार इस आदत में खींचती जा रही थी।

शराब पीने की अपनी आदत के कारण उनका स्वभाव और स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता जा रहा था। मम्मी इन परिस्थितियों को झेलने में असहज महसूस करने लगी और हमारे पास दिल्ली आ गई।

पापा शराब के ज़हर में घुलते जा रहे थे। डॉक्टरों ने उन्हें मधुमेह (डायबिटीज) होने के बारे में बताया और शराब छोड़ने के लिए कहा। फिर भी मम्मी के जाने के बाद एक महीने तक बिना कुछ ठीक से खाए-पीए वो लगातार शराब पीते रहे जिसके कारण उनकी हालत बहुत बिगड़ गई। उन्हें कई बार अस्पताल में भर्ती किया गया पर ठीक होकर वापस आते ही वो फिर पीना शुरू कर देते थे।

मार्च 2005 में मुझे खबर मिली की उनकी तबियत बहुत खराब थी। मैं जानता था कि वो न तो मेरी सुनेंगे और न ही मम्मी के बिना मुझे वहाँ स्वीकार करेंगे। मम्मी को ऐसी हालत में अकेले भेजना बहुत मुश्किल था। मैं बड़ी अजीब सी स्थिति में था और कुछ सोच नहीं पा रहा था।

उद्धार पाने के बाद से ही मैं, परमेश्वर के प्रेम की जीवित गवाही अपने जीवन से देता रहा और मैंने कभी भी पापा के लिए कड़वाहट नहीं पाली थी तौभी जयपुर जाने की मेरी इच्छा नहीं हो रही थी। उस रात न तो मैं प्रार्थना-सभा में गया और न ही बाइबल स्टडी में। मैं बुरी तरह बेचैन था। मैं घुटनों पर आ गया और प्रभु से प्रार्थना करने लगा ताकि परमेश्वर मेरी अगुवाई करें। परमेश्वर ने तुरंत मुझसे याकूब 2:26 में से बात की -

“अतः जैसे देह आत्मा बिना मरी हुई है, वैसा ही विश्वास भी कर्म बिना मरा हुआ है।”

मैं समझ गया कि परमेश्वर कह रहे थे कि मैं जयपुर जाऊं। मैंने कहा, “हाँ प्रभु, यदि आपकी यही मर्जी है तो मैं जाऊँगा।” मैंने और कुछ जानने की भी कोशिश की पर परमेश्वर ने और कुछ भी नहीं बोला। मैंने तुरंत जयपुर जाने का इरादा बना लिया। पवित्र आत्मा के चलाए मैं अगले दिन निकल पड़ा।

रास्तेभर मुझे अजीब अजीब से ख्याल आते रहे और मैं शैतान को डांटता रहा और प्रार्थना करता रहा। इसी यात्रा के दौरान परमेश्वर ने मुझे एक युवती को जो दिल्ली में प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर काम करती थी, को सुसमाचार सुनाने का मौका दिया। यदि हम उसकी मर्जी पर चलें तो कहीं भी वो हमें अपनी इच्छा पूरी करने के लिए और अपनी महिमा के लिए इस्तेमाल करता है।

मैं रात में 10 बजे घर पहुंचा। घर के सारे दरवाज़े खुले हुए थे और अंदर वाले कमरे के अलावा पूरा घर अंधेरे में डूबा हुआ था। सिर्फ उस कमरे में जहां पापा सो रहे थे वहां की बत्ती जल रही थी। वो सच में बहुत ही कमजोर दिख रहे थे, मुझे उनकी हालत पर रोना आ गया। मैं आंसू बहाते हुए उनके पैर दबाने लगा और प्रभु से उनके जीवन परिवर्तन के लिए प्रार्थना करने लगा।

एकाएक वो जाग गये और मुझसे मेरे रोने का कारण पूछने लगे। उनकी बात का जवाब देने के बजाय मैं जोर जोर से रोने लगा। परमेश्वर के पवित्र आत्मा ने मुझे बोलने के लिए शब्द दिए। मैंने बड़े ही सरल शब्दों में परमेश्वर पर विश्वास करने की तथा शराब छोड़ देने की विनती की। पवित्र आत्मा ने उनको छू लिया और उसी समय उन्होंने शराब छोड़ देने का निर्णय लिया।

मुझे तो इस बात पर यकीन ही नहीं हो रहा था क्योंकि हम हज़ारों बार ये विनती उनसे कर चुके थे वो कभी हमारी बात नहीं मानते थे। पर मैं समझ गया कि परमेश्वर ने उनके जीवन में काम किया था।

उनकी हालत बहुत ही खराब दिख रही थी, वो अपने आप पानी का गिलास भी उठाने की स्थिति में नहीं थे, उनके हाथ बुरी तरह कांप रहे थे। उनको शरीर में बहुत दर्द भी हो रहा था। पापा को अपनी इस परेशानी के समय में अपना भूला हुआ राधास्वामी विश्वास याद आया। उन्होंने मुझसे सत्संग की सीडी (CD) चलाने के लिए बोला। मैंने सीडी चला दी और गौर से उसे सुनते हुए पापा के पैर दबाने लगा।

प्रवचन खत्म होने के बाद मैंने अपना निष्कर्ष उनको दिखाया। इस प्रवचन में 90 बार गुरू, 50 के लगभग भजन, 8 के करीब सचखण्ड (स्वर्गीय भवन), और सिर्फ 3-4 बार सतगुरू अथवा मालिक शब्द आया। मेरे इतने सूक्ष्मता से किये विचार से उनके आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई क्योंकि उनकी स्वयं की भी ऐसी ही आदत थी।

मैंने उन्हें बताया कि इस मत में गुरू पर सबसे ज्यादा ज़ोर दिया गया है और मालिक पर सबसे कम, जबकि हम सिर्फ अपने प्रभु, अपने परमात्मा से ही सम्बंध बनाने की बातें करते रहते हैं। मेरे इस कथन से वो चकित जरूर हुए।

पापा को लगने लगा था कि वो अब ज़्यादा समय जीवित नहीं रहने वाले थे इसलिये वो मम्मी से मिलने के लिये बेताब थे। मैंने दिल्ली में राजकुमार भाई को फोन किया और पंकज के साथ अपनी कार से जयपुर आने के लिए कहा ताकि पापा को दिल्ली ले जा सकें। वो अगले दिन सुबह जयपुर पहुँच गए। पापा बार बार यही कह रहे थे कि उनका अंत समय आ गया था पर राजकुमार भाई ने उनसे कहा कि यदि वो प्रभु यीशु पर विश्वास करें तो अगले 10 दिनों में वो अपने पैरों पर फिर चल सकते थे। पापा को इस बात का आश्चर्य हो रहा था कि सिर्फ मेरे एक फोन पर मेरे मित्र दिल्ली से जयपुर आ गए। पहली बार उन्होंने मसीही प्रेम देखा था।

दिल्ली पहुँचने के बाद पापा का इलाज शुरू कराया गया। उनका शूगर लेवल बहुत ऊँचा चला गया था और शराब एकाएक बंद कर देने के कारण उनको बहुत बेचैनी भी हो रही थी। वो 2-3 दिन तक सो नहीं सके और बहुत बेचैन होकर उन्होंने मुझे नींद की दवाई लाने के लिए कहा। बहुत ढूंढने पर भी कोई हमें बिना डॉक्टर की सलाह के दवा देने को तैयार नहीं था। उनकी छटपटाहट देख उस दिन हमने मिलकर उनके लिए प्रार्थना की और उस रात उनको बहुत अच्छी नींद आई।

अगले दिन पहली बार उन्होंने खुद स्वीकार किया कि प्रार्थना में शक्ति तो ज़रूर होती है। अब उनको मसीही विश्वास के बारे में और जानने की इच्छा हुई। उन्होंने कई सवाल पूछे और पवित्र आत्मा की अगुवाई से सभी सवालों का मैं भली-भांति जवाब दे सका।

पापा ने पहली बार चर्च जाने की इच्छा ज़ाहिर की। हम लोग DBF (दिल्ली बाइबल फैलोशिप) की हिन्दी सभा में गये जहाँ पास्टर देवेंद्र अगुवाई करते थे। वे बड़े मीठी बोली बोलते हैं और उनके प्रवचन ने पापा को प्रभावित किया। परंतु यहाँ भी शैतान ने तुरुप का इक्का चलाने की कोशिश की। प्रभु-भोज के दौरान उसने पापा के दिमाग में फिर एक उलझन डाली और एक ही बर्तन से दाखरस पीने के कारण उन्हें क्रोध दिलाया। हमने प्रार्थना किया और उन्हें समझाया कि हम एक परिवार हैं और हम में कोई भेदभाव नहीं हैं।

प्रभु ने उनके मन में बात की और वो बाइबल और मसीही विश्वास के पास आने लगे। पास्टर देवेन्द्र और उनकी पत्नी संगीता भी हमारे घर आये और पापा के तथा हम सबके साथ प्रार्थना की।

10 दिनों के बाद, हम सबकी प्रार्थनाओं के फलस्वरूप पापा शराब के सारे दुष्प्रभावों से और सिगरेट तक की आदत से छूट गए थे और उनकी हालत में भी बहुत सुधार आ गया था। उनकी आँखों की रोशनी जो लगभग चली ही गई थी, चश्मे के साथ ठीक हो गई। उनका काँपना खत्म हो गया था और वो स्वयं सुबह की सैर करके आने लगे थे। उन्होंने प्रभु यीशु पर विश्वास किया।

यह मेरे जीवन के सबसे सुखद क्षणों में से एक था। मैं जब उन्हें हिन्दी भजन गाते, बाइबल पढ़ते, प्रार्थना करते और गवाही देते देखता था तो सच में भावविभोर हो जाता था और मेरी आंखों से आंसू बह निकलते थे। उन्होंने सभी से (मित्रों से, रिश्तेदारों से और सहकर्मियों से) अपने नये विश्वास की चर्चा की। उनके जीवन में नया उत्साह आ गया था और वो भरपूरी के उस जीवन का अनुभव करने लगे थे जो प्रभु यीशु मसीह में विश्वास करने से मिलता है।

पापा एक समय ईसाइयत से घृणा करते थे लेकिन बाद में वो मसीह से प्यार करने लगे। कभी उन्होंने मम्मी से कहा था कि अगर वो चर्च गई तो वो तलाक दे देंगे, बाद में वो खुद अपने साथ गाड़ी में बिठाकर उन्हें चर्च लेकर जाते थे। उन्होंने मम्मी के साथ ही बपतिस्मा लिया और परमेश्वर की आज्ञा को पूरा किया। मसीह को पाकर उनका जीवन बदल गया। स्वयं अपनी गवाही में उन्होंने एक असीम शांति का जिक्र कई बार किया। कई लोग उस परिवर्तन की गवाही आज भी दे सकते हैं जो उन्होंने प्रत्यक्ष रूप में पापा के जीवन में देखा था।


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पापा की मृत्यु में परमेश्वर की विश्वासयोग्यता


परमेश्वर हमारी विफलताओं को जानता है। सिर्फ वो ही है जो हमारे पापों को क्षमा भी करता है। न सिर्फ वो हमको माफ करता है बल्कि हमारे सारे अधर्मों को भुला भी देता है। जब हम पश्चाताप के साथ उससे माफी मांगते हैं तो वो यीशु मसीह के लहू से धोकर वो हमें ऐसा बना देता है जैसे हमने कभी पाप किये ही न हों।

अपने आखिरी दिनों में पापा फिर से परीक्षाओं में पड़े और उनकी यही गलतियां उन्हें बहुत भारी पड़ी। अब वो इस दुनिया में नहीं है पर मैं जानता हूँ कि एक दिन हम उनको स्वर्ग में देखेंगे क्योंकि परमेश्वर के वायदे के अनुसार वो अब परमेश्वर के साथ हैं।

मई 2006 में जब मैं शारजाह से जयपुर पहुँचा तो पापा संतोकबा दुर्लभजी अस्पताल में भर्ती थे। वो गहन चिकित्सा कक्ष (ICU) में थे और उनके सारे शरीर पर बहुत से तार, पाइप और यंत्र लगे हुए थे। चिकित्सकों ने बताया कि उनकी हालत बहुत ही खराब थी और उन्हें कोई आशा नज़र नहीं आ रही थी। मैंने फिर भी निर्णय लिया कि चाहे जितना पैसा खर्च हो जाए, अगर आशा की एक भी किरण नज़र आये तो मैं इलाज कराता रहूँगा।

मैंने गहन चिकित्सा कक्ष में अकेले उनके साथ समय व्यतीत किया और उनके लिये प्रार्थना भी की। मैंने उनके लिये वो आत्मिक भजन भी धीमी आवाज में गाया जो उनको विश्वास में आने पर बहुत ही अच्छा लगता था। मैंने उनसे बात की और कहा कि अगर वो मेरी आवाज सुन सकते थे तो वो अपने सभी पापों से पश्चाताप करें और परमेश्वर से क्षमा मांग लें और उन सभी को भी माफ करें जिनके प्रति उनके मन में कोई द्वेष हो।

जब मैं घर वापस गया तो मैं बड़ी दुविधा में था। डाक्टर ने मुझसे कहा था कि मुझे अगले दिन मुझे निर्णय लेना था कि पापा को अस्पताल में और रखा जाए या सब संयंत्र हटा दिये जाएँ। यह मेरे लिये एक बहुत बड़ा प्रश्न था। मुझे मालूम नहीं था कि पापा के बचने की क्या कोई क्षीण सी भी उम्मीद थी या नहीं।

उस रात जब हमने प्रार्थना की तो वो कुछ इस प्रकार थी –

“प्रभु यीशु, हम आपकी सामर्थ पर पूरा भरोसा रखते हैं और जानते हैं कि आप अभी भी आश्चर्यकर्म कर सकते हैं। हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि यदि आपकी इच्छा ये है कि पापा अब आपके साथ चले जाएँ तो होने दें कि डॉक्टर कल हमें कोई आशा न दिखाएँ बल्कि पहली बार में ही यह कहें कि सब खत्म हो चुका है, अन्यथा आप डॉक्टरों की अगुवाई करें ताकि वो पापा का ठीक इलाज कर सकें और पापा ठीक हो जाएँ और आपकी महिमा के लिए जीयें। आमीन”

अगले दिन जब मैं डॉक्टर से मिला तो पहली बात जो उन्होंने की वो ये ही थी कि उनके अनुसार पापा अब मृत थे और कोई आशा नहीं थी। उन्होंने कहा कि हम जब तक चाहें तब तक उन्हें अस्पताल में रख सकते थे पर उससे कोई लाभ नहीं होने वाला था। उनके शरीर में जो सांसें चलती दिख रही थीं वो सिर्फ मशीनों के कारण थी।

डाक्टरों की राय के अनुसार मैंने अपने जीवन का सबसे कठिन निर्णय लिया। सभी यंत्र जो पापा को अब तक चला रहे थे वो हटा दिये गये। मेरे पिता हमें छोड़कर जा चुके थे।

दाह-संस्कार के बाद, मैं फिर एक बार परमेश्वर के पास आया और बातें करने लगा। परमेश्वर ने अपनी करूणा के अनुसार उस समय में भी मुझे सांत्वना दी। सब रिश्तेदारों तो अपने प्रेम के कारण वहाँ आये थे परंतु फिर भी परमेश्वर की सांत्वना उस समय उन सबसे ज्यादा कारगर साबित हुई। परमेश्वर ने यशायाह 57:1,2 से मुझसे बात की –

“धर्मी जन नष्ट होता है, और कोई इस बात की चिन्ता नहीं करता; भक्त मनुष्य उठा लिए जाते हैं, परन्तु कोई नहीं सोचता। धर्मी जन इसलिये उठा लिया गया कि आनेवाली विपत्ति से बच जाए, वह शांति को पहुँचता है; जो सीधी चाल चलता है वह अपनी खाट पर विश्राम करता है।”

मैं सच में अपने मन में सोच ही रहा था कि, मेरे पिता जिनपर यीशु मसीह की पवित्रता ओढ़ाई गई थी, उन्हें इतनी जल्दी ऐसी परिस्थिति में इस दुनिया को छोड़कर क्यों जाना पड़ा। परमेश्वर ने बताया कि वो अपने उद्धार तथा उद्धारकर्ता प्रभु यीशु का तिरस्कार करने के बहुत नज़दीक आ चुके थे इसलिए परमेश्वर ने उन्हें ले लिया ताकि आने वाली विपत्ति से बच जाएँ और उन्हें शांति दी है।


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प्रांजल के जन्म में परमेश्वर की विश्वासयोग्यता


प्रभु यीशु मसीह मृत्यु तथा जन्म दोनों के मालिक हैं। सभी बातों का अधिकार उनके ही हाथों में है। प्रभु यीशु ने क्रूस पर अपने प्राण स्वयं परमेश्वर पिता के हाथों में सौंपे और तीसरे दिन उन्हें वापस भी ले लिया ताकि जीवित होकर अपने लोगों के बीच में फिर से जाएँ। वह जीवित ईश्वर है और आज भी स्वर्ग में विराजमान है।

मैं इस बात को जानता तो था पर पापा की मृत्यु और प्रांजल के जन्म के समय मैंने बड़ी गहराई से इस सत्य को समझा।

प्रभु की दया से हम सबकी प्रार्थनाओं के फलस्वरूप प्रेरणा 2006 के आखिरी महीनों में गर्भवती हुई। उस दिन से हम इसके पूर्णकालिक होने के लिए दुआ करने लगे। प्रभु ने अपने वचन के द्वारा हमें अपनी इच्छा बता दी।

“जैसे वीर के हाथ में तीर, वैसे ही जवानी के लड़के होते हैं।”

[भजनसंहिता 127:4]

यूँ तो हम लड़का या लड़की दोनों ही के लिए बहुत खुशी से तैयार थे परंतु परमेश्वर ने हमें बता दिया कि हमें लड़का होने वाला था। बिना किसी विज्ञान के सिर्फ परमेश्वर पर विश्वास के द्वारा हम ये बात जान गए थे। प्रेरणा ने उसका नाम ‘प्रांजल’ रखने का सुझाव दिया जिसका मतलब ‘सरल’, ‘शुद्ध’ और ‘मनोहर’ होता है। मैं इसके शाब्दिक अर्थ से ज्यादा शब्द-विग्रह से उत्साहित था – प्राण + जल अर्थात जीवन का जल (ख्रीस्त सुसमाचार) पहुंचाने वाला।

जब प्रसव का समय आया तो एक बड़ी समस्या सामने आई। दो दिन इंतजार करने के बाद और दवाईयों से सब प्रकार के यत्न करने के बाद भी प्राकृतिक प्रसव शुरू नहीं हुआ। डॉक्टर ने ऑपरेशन के द्वारा प्रसव कराने की बात की तो मैं इसे पचा नहीं पा रहा था। हम लोग निरंतर प्राकृतिक तरीके के लिए प्रार्थना कर रहे थे।

यह दिन 22 जुलाई 2007 का था। मैंने प्रार्थना करना शुरू किया और परमेश्वर ने मुझसे भजनसंहिता 22 पढ़ने को कहा। मैंने बाइबल खोलकर पढ़ना शुरू किया।

“हे मेरे परमेश्वर, हे मेरे परमेश्वर, तू ने मुझे क्यों छोड़ दिया? तू मेरी पुकार से और मेरी सहायता करने से क्यों दूर रहता है? मेरा उद्धार कहाँ है? हे मेरे परमेश्वर, मैं दिन को पुकारता हूँ परन्तु तू उत्तर नहीं देता; और रात को भी मैं चुप नहीं रहता।”

यही तो मेरे दिल की पुकार थी। मैं प्रेरणा को प्रसव पीड़ा में देखकर दिन और रात परमेश्वर से प्रार्थना कर रहा था। परमेश्वर ने आगे पढ़ने के लिए कहा (9वीं आयत)।

“परन्तु तू ही ने मुझे गर्भ से निकाला; जब मैं दूधपीता बच्चा था, तब ही से तू ने मुझे भरोसा करना सिखाया है। मैं जन्मते ही तुझी पर छोड़ दिया गया, माता के गर्भ ही से तू मेरी ईश्वर है। मुझ से दूर न हो क्योंकि संकट निकट है, और कोई सहायक नहीं।”

मैंने प्रांजल को परमेश्वर के सामर्थी और दयावन्त हाथों में सौंप दिया था। अपनी विश्वासयोग्यता और दया के अनुसार 30वीं आयत से परमेश्वर ने मुझे शांति दी। उसने कहा -

“एक वंश उसकी सेवा करेगा; और दूसरी पीढी से प्रभु का वर्णन किया जाएगा।”

मुझे मालूम हो गया कि परमेश्वर ने मुझसे बातचीत की है। मैंने कागजों पर हस्ताक्षर करके वापस दे दिये। 9:06 बजे सुबह प्रांजल पैदा हो गया।

बाद में डॉक्टर ने आकर हमसे कहा कि यह बच्चा ईश्वर के चमत्कार के कारण ही प्राकृतिक तरीके से नहीं हुआ क्योंकि एक तो बच्चा भारी था और दूसरे बच्चे की नाल उसके गले में दो बार लिपटी हुई थी जो कि किसी भी दुर्घटना का कारण हो सकती थी। उसने कहा कि कभी कभी ऐसे में गला घुटने से बच्चे की मौत तक भी हो सकती है। उन्होंने हमें मुबारकबाद दी और कहा कि बच्चा बहुत स्वस्थ और अच्छे वजन के साथ पैदा हुआ था।


“और हम जानते हैं, कि जो लोग परमेश्वर से प्रेम रखते हैं, उन के लिये सब बातें मिलकर भलाई ही को उत्पन्न करती है; अर्थात उन्हीं के लिये जो उस की इच्छा के अनुसार बुलाए हुए हैं।”

[रोमियों 8:28]

इस बात से हमने सीखा कि हमें उसमें भरोसा करने की ज़रूरत है क्योंकि वो अपने प्रेम करने वालों और भय मानने वालों के जीवन में भलाई ही लाता है। परमेश्वर की विश्वासयोग्यता की और भी बहुत सी गवाहियां हमारे जीवन में है। कुछ और आशीषों का वर्णन मैं अगले अध्याय में करूंगा।