सोमवार, 28 जुलाई 2008

अध्याय 11 ::: ईश्वरीय जीवन कैसे जीयें

मैं यहाँ आपको संक्षिप्त विवरण दे देता हूँ कि हम अब तक चलकर कहाँ तक आ पहुँचे हैं।


आओ


हमने पहली सीमा पार की जब हमने देखा कि परमेश्वर हमें आने के लिये बुलाहट देता है।


परमेश्वर ने हरेक आत्मा को बुलावा दिया है कि आएँ, उसे जानें और शांति तथा विश्वास का जीवन उसके साथ जीयें। बाइबल कहती है जब तक हम उसकी आवाज सुनकर उसके पीछे नहीं जाते तब तक हम उसके साथ बैर रखते हैं। एक भेड़ को अपने चरवाहे की आवाज़ को सुनना और पहचानना ज़रूरी है ताकि उसके पीछे चलकर सही गंतव्य तक पहुँच सके। जब तक हम परमेश्वर के अधीन नहीं आते तब तक हम शैतान के अधीन रहते हैं और नाश की ओर बढ़ते रहते हैं।


पाओ


दूसरी सीमा हमने पार की जिसमें हमने देखा कि हम परमेश्वर से कैसी कैसी आत्मिक और भौतिक आशीषें पा सकते हैं।


प्रभु यीशु ने हमारे उद्धार का काम एक ही बार मानव रूप लेकर अपने प्राणों से हमारे पापों की कीमत चुकाकर कर दिया है। हम इस उद्धार को विश्वास के द्वारा पा सकते हैं। अपने मोक्ष की प्राप्ति के लिये हमें विश्वास के अलावा किसी भी और वस्तु की आवश्यकता नहीं है।


परमेश्वर हमें वैसे ही ग्रहण करता है जैसे हम हैं। वो हमें पहले अपना जीवन बदलने, आदतें बदलने, धार्मिक बन जाने या अच्छे कर्म करने के लिये नहीं बाध्य करता है। वो परमेश्वर है और हमारी उसके पवित्र मापदण्डों को पूरा न कर पाने अक्षमताओं को जानता है, इसलिये हमें हमारे निरर्थक कामों में कुण्ठित होने देने के बजाय हमारी जीवन की समस्याओं का हल वो स्वयं हमें देता है।


जाओ


इसके बाद बड़े संक्षेप में मैं आपको यह बताना चाहता हूँ कि परमेश्वर हमें किस प्रकार का जीवन जीने के लिये इस दुनिया में भेजता है। हो सकता है कि इस पुस्तक को पढ़ने से पहले से आप प्रभु यीशु को जानते हों या इस पुस्तक के पढ़ने के बाद आपने उनको अपने जीवन का स्वामी बनाया हो, पर संभवतया आप वैसा जीवन नहीं जी रहे थे जैसी हमारी बुलाहट है।


हमें क्या करना चाहिए – हमें प्रभु यीशु ख्रीस्त जैसा जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए और परमेश्वर की समानता में निरंतर बदलते जाना चाहिए। इसके बाद यह कि हम ‘जायें’ और इस दुनिया में परमेश्वर की ज्योति को फैलाएँ। अपने व्यवहार तथा आचरण के द्वारा उसका स्वरूप दिखाएँ।


ईश्वरीय जीवन जीने के लिये हमारे दैनिक जीवन में हमें निम्न बातों का समावेश करना ज़रूरी है। उसके अलावा बहुत सी और भी बातें हैं जो वचन से, प्रार्थना से, मनन से और पवित्र आत्मा की अगुवाई से हम सीखते हैं मैं यहाँ नहीं लिख रहा हूँ। फिर भी निम्न बातों से आप शुरूआत कर सकते हैं:

  • परमेश्वर से बात करें
  • रोज़ प्रार्थना करें आत्मा को भोजन दें
  • हर दिन बाइबल पढ़ें विश्वास में जड़ पकड़ें
  • हमेंशा संगति में रहें प्रेम बाँटें
  • अपने विश्वास की गवाही दें


***


हर दिन प्रार्थना


प्रार्थना करना और कुछ नहीं अपितु परमपिता परमेश्वर से बातचीत करना है। उसे अपना अंतरंग मित्र, प्रेमी पिता, सर्वज्ञानी गुरू तथा सृष्टिकर्ता ईश्वर समझते हुए व्यक्तिगत तौर पर उससे बातचीत करना ही सच्ची प्रार्थना है।


प्रभु यीशु ने स्वयं अपने जीवन से हमें दिखाया कि कैसे वो हर रात और सुबह जल्दी ही प्रार्थना के लिये सुनसान स्थानों में चले जाते थे ताकि अकेले में परमेश्वर से वार्तालाप कर सकें। इंसान के रूप में रहते हुए वह अपने ईश्वरीय शक्तियों का उपयोग नहीं करते थे परंतु पिता की संगति के कारण वे बड़े बड़े चमत्कार कर देते थे।


क्या वो परमेश्वर से कुछ पाने के लिये प्रार्थना करते थे ? नहीं।


परंतु अपने प्रेम के कारण वो परमेश्वर से मिलने के लिये रोज प्रार्थना में समय बिताया करते थे। हम भी यदि प्रार्थना में समय व्यतीत करें तो हम भी न सिर्फ वो सब कर सकते हैं जो प्रभु यीशु ने मानव रूप में किया बल्कि उससे भी बड़े बड़े काम कर सकते हैं, ऐसा स्वयं प्रभु यीशु का कहना है। प्रार्थनाओं में बड़े बड़े चमत्कार करने की शक्ति है।


प्रार्थना करना सिर्फ हमारा निर्णय नहीं है अपितु यह परमेश्वर की हमारे लिये इच्छा है।


“निरंतर प्रार्थना में लगे रहो। हर बात में धन्यवाद करो; क्योंकि तुम्हारे लिये मसीह यीशु में परमेश्वर की यही इच्छा है।”

[1 थिस्सलुनीकियों 5:17, 18]


हमें परमेश्वर को पिता की तरह देखकर उसका पवित्र भय मानने की ज़रूरत है, उसको स्वामी की तरह देखकर उसके आज्ञाकारी दास बनने की ज़रूरत है, प्रभु देखकर उसकी आराधना करने की ज़रूरत है, सच्चा साथी देखकर निरंतर उसमें भरोसा रखने की ज़रूरत है। वो अलग अलग रूप में निरंतर हमारे साथ रहता है बस हमें उससे बात करने की आवश्यकता है।


हमें एकांत में परमेश्वर के पास जाने की जरूरत है ताकि उसकी सामर्थ और उसकी उपस्थिति का आनंद उठा सकें। हो सके तो मैं अपना हर दिन प्रभु के साथ बातचीत कर शुरू करता हूँ और रात में उसका धन्यवाद करके खत्म करता हूँ। दिन में हर समय उसको देखता हूँ और उसकी उपस्थिति का अहसास करता रहता हूँ।


मेरा मानना है कि सुबह उठकर इस दुनिया से बात करने से पहले हमें परमेश्वर से बात करने की आवश्यकता है। कई लोग अखबार पढ़कर अपना दिन शुरू करते हैं तो कुछ और सुबह के व्यायाम से। इनमें से कुछ भी गलत नहीं है पर मेरे विचार में परमेश्वर को पहला स्थान देने के बाद ये सब काम करना बेहतर है। इसके बाद, पूरे दिन संभालने के लिये हर रात उसका धन्यवाद करना ज़रूरी है। रोज ही हम किसी न किसी प्रकार कुछ बातें ऐसी कर देते हैं जो परमेश्वर को पसंद नहीं है, अपनी ऐसी गलतियों की क्षमा हर रोज़ मांगना भी निहायत ज़रूरी है।


जब हम प्रार्थना करते हैं तो परमेश्वर हमें शांति, प्रेम और आनंद देता है। वो हमारी हर आवश्यकता की पूर्ति करता है और हर परेशानी से हमें छुड़ाता है। वो ही आत्माओं को शैतान के चंगुल से छुड़ाता है। हम इस बात के लिये अपने परिवार और अपने जानने वालों के लिये निरंतर दुआ कर सकते हैं।


***


हर दिन बाइबल अध्ययन


प्रभु यीशु ने कहा –


“यदि तुम मुझ में बने रहो और मेरी वचन तुम में बना रहे, तो जो चाहो माँगो और वह तुम्हारे लिये हो जाएगा।”

[युहन्ना 15:7]


यह बात मैंने अपने विश्वासी जीवन की शुरूआत से सीखी। मुझे बताया गया था कि परमेश्वर का वचन (बाइबल) हमारी आत्मा का भोजन है।


सामान्यतया हम अपने शरीर की अभिलाषाओं को पूरा करके उसे काफी भोजन देते हैं, लेकिन अपनी आत्मा को भोजन नहीं देते हैं।


यदि हम अपने शरीर को तो भोजन दें पर आत्मा को नहीं तो फिर शरीर तो मज़बूत होता चला जाता है परंतु आत्मा क्षीण होती चली जाती है। और फिर यदि कभी आत्मा और शरीर में किसी परीक्षा की घड़ी में द्वंद होता है तो यह बात बहुत आसानी से समझ में आनी चाहिए कि क्यों आत्मा हार जाती है और परमेश्वर के विरुद्ध हम पाप कर बैठते हैं।

कमज़ोर आत्मा परीक्षा में खड़ी नहीं रह पाती और पाप में गिर जाती है।


कई बार हम बाइबल पर आधारित बहुत सी किताबें तो पढ़ते हैं जो कि प्रसिद्ध लेखकों और प्रचारकों के द्वारा लिखी गई हैं और जो बाइबल के ही बारे में सिखाती हैं पर बाइबल को नहीं पढ़ते हैं। यह ऐसा है जैसे कि खाना न खाना, परंतु खाने के बारे में ऐसी किताबें पढ़ना जो अच्छे रसोईयों के द्वारी लिखी गई हों। क्या खाना खाये बिना तृप्ति मिल सकती है?


मैं इस बारे में आपको सचेत करना चाहता हूँ। मैं आपको सलाह दूँगा कि आप बाइबल पढ़ने को अपने जीवन का एक अंतरंग भाग बना लें। अपने आप को हमें शुरू में थोड़ा अनुशासित करना पड़ता है लेकिन धीरे धीरे यह हमारे स्वभाव में आ जाता है और हमें इसके लिये कोई अतिरिक्त मेहनत नहीं करनी पड़ती है। हमें परमेश्वर के वचन में जड़े जमानी बहुत ज़रूरी है ताकि हम विश्वास में बढ़ते चले जाएँ। हमारा यही विश्वास हमारी ढाल बन जाता है कि हम शैतान की सारी परीक्षाओं का सामना आसानी से कर सकें।


***


विश्वास में जड़ पकड़ना


रोमियों 10:17 में बाइबल इस प्रकार कहती है –


“अतः विश्वास सुनने से और सुनना मसीह के वचन से होता है।”


जैसे बाइबल पढ़कर हम परमेश्वर की आवाज को सुन सकते हैं, जो कि बहुत महत्वपूर्ण भी है, उसी प्रकार उन लोगों से परमेश्वर के वचन के द्वारा सुनना जो कि विश्वास में मज़बूत हो चुके हैं, आवश्यक है ताकि विश्वास के सिद्धान्तों को हम और गहराई से समझ सकें और विश्वास में मज़बूत होते चले जाएँ।
इसी कारण परमेश्वर हमसे चाहता है कि हम एक पवित्र आत्मा से भरी हुई कलीसिया (चर्च) में जाकर हफ्ते दर हफ्ते (या हो सके तो ज्यादा भी) संगति करें।


और एक दूसरे के साथ इकट्ठा होना ना छोड़ें, जैसे कि कितनों की रीति है, पर एक दूसरे को समझाते रहें; और ज्यों ज्यों उस दिन को निकट आते देखो त्यों त्यों और भी अधिक यह किया करो।

[इब्रानियों 10:25]


हम चर्च इसलिये नहीं जाते कि वहाँ हमें ईश्वर मिलेगा, क्योंकि वो तो हमारे निमंत्रण पर हमारे जीवन में ही आ चुका है। परमेश्वर किसी भी आराधना के स्थान में नहीं रहता बल्कि वो तो सर्वव्यापी परमेश्वर है। चर्च में तो हम साथी विश्वासियों की गवाहियाँ सुनते हैं, प्रवचन सुनते हैं ताकि बाइबल की गूढ़ बातें सीख सकें। वहाँ हम साथी विश्वासियों के साथ मिलकर परमेश्वर की आराधना करते हैं। वहाँ हम एक दूसरे से बात कर एक दूसरे को उत्साहित करते हैं और प्रार्थना भी करते हैं।


जैसे हम अपने शरीर की माँसपेशियाँ बनाने के लिये कसरत करते हैं, ठीक उसी प्रकार हमें अपनी आत्मा को मज़बूत करने के लिये विश्वास की कसरत करनी ज़रूरी है।


कुलुस्सियों 2:6, 7 में लिखा है -


“अतः जैसे तुम ने मसीह यीशु को प्रभु करके ग्रहण कर लिया है; वैसे ही उसी में चलते रहो, और उसी में जड़ पकड़ते और बढ़ते जाओ; और जैसे तुम सिखाए गए वैसे ही विश्वास में दृढ़ होते जाओ, और अधिकाधिक धन्यवाद करते रहो।”


***


उसके प्रेम का प्रचार करना


बाइबल बताती है कि यीशु मसीह इस दुनिया का न्याय करने के लिये जल्द आने वाले हैं। विचार कीजिये – आपको तो परमेश्वर के प्रेम का सुसमाचार मिल गया और शायद आपने विश्वास कर भी लिया या अब कर लेंगे, मगर आपके परिवार और अन्य प्रियजनों का क्या होगा, उनको कौन यह रास्ता बताएगा, वो अपना अनन्त जीवन कहाँ बितायेंगे?


मैं आपके परिवार को नहीं जानता। शायद कोई पास्टर भी वहाँ नहीं पहुंच सके, पर आप तो हैं। क्या आप नहीं चाहेंगे कि वे भी मोक्ष पाएँ और स्वर्ग में प्रवेश करने की आशा उनको भी मिल जाए?
हमारा हमारे परिवार, दोस्तों, सहकर्मियों (या सहपाठियों) और हमारे समाज के दबे कुचले लोगों के प्रति प्रेम क्या हमें दुहाई नहीं देता कि हम स्वयं उन तक यह बात पहुँचायें?


बाइबल हमारा आह्वान करती है कि हम परमेश्वर के मोक्ष के विशाल कार्य में सहभागी हो जाएँ ताकि आत्माओं को विनाश की कगार से खींचकर जीवन की ओर ले आयें।


इसी उद्देश्य को लेकर प्रभु यीशु हमारे बीच में इंसान बनकर आये जैसा कि लूका रचित सुसमाचार में (लूका 19:10) लिखा भी है -


“क्योंकि मनुष्य का पुत्र खोए हुओं को ढूंढने और उन का उद्धार करने आया है।”


फिर युहन्ना 20:21 में प्रभु यीशु ने फिर सिखाया –


“यीशु ने फिर उन से कहा, तुम्हे शान्ति मिले; जैसे पिता ने मुझे भेजा है, वैसे ही मैं भी तुम्हे भेजता हूँ।”


और मत्ती 28:19, 20 में वायदा किया -


“इसलिये तुम जाकर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्रआत्मा के नाम से बपतिस्मा दो। और उन्हें सब बातें जो में ने तुम्हे आज्ञा दी है, मानना सिखाओ; और देखो, मैं जगत के अन्त तक सदैव तुम्हारे संग हूँ।”


प्रभु यीशु ने हमें आश्वासन दिया है कि स्वर्ग और पृथ्वी पर सारा अधिकार उनका है और फिर हमें आज्ञा दी है कि हम जाकर उसके प्रेम का सुसमाचार सभी लोगों को बतायें और अपने चरित्र और जीवन से उसका स्वरूप दिखायें।


बाइबल बताती है कि यह सुसमाचार हम अपनी सामर्थ्य में नहीं सुनाते बल्कि यह परमेश्वर का उद्देश्य है और वही इसमें हमारी सहायता करता है -


“परन्तु जब पवित्र आत्मा तुम पर आएगा तब तुम सामर्थ पाओगे; और यरूशलेम और सारे यहूदिया और सामरिया में, और पृथ्वी के छोर तक मेरे गवाह होगे।”

[प्रेरितों के काम 1:8]


प्रभु यीशु ने चेले बनाने की आज्ञा दी है धर्म परिवर्तन कराने की नहीं। उसने सच्चे मसीही विश्वास का प्रचार करने और उसका सच्चा प्रतिबिंब अपने जीवन से दिखाने के लिये हमें कहा है। बाकि काम वो स्वयं करेगा कि अपने खोजने वालों को मिले और उनकी आत्मिक प्यास बुझाए। हमें तो सिर्फ उसके आज्ञाकारी बने रहने की आवश्यकता है।


***


प्रभु यीशु मसीह में विश्वास कर लेने के बाद मैंने अपने चारों ओर देखा तो पाया कि कितने ही लोग श्रापित जीवन जी रहे थे और भटकते हुए सनातन जीवन का मार्ग खोज रहे थे। मैंने सोच लिया कि मुझे उनको दिखाना है कि परमेश्वर जिसने मेरा जीवन परिवर्तन किया वो उनसे भी प्रेम करता था और उनका जीवन भी आशीषों से भर सकता था। मैं अपने नये विश्वास के बारे में सभी को बताने लगा था। मेरे पास बाइबल का ज्ञान नहीं था पर मैं सिर्फ अपने प्रेम, विश्वास तथा अनुभवों की ही गवाही देता था।
जब हम अपने आप को परमेश्वर को दे देते हैं तो वो हमारे द्वारा बड़े आश्चर्यचकित कर देने वाले काम करता है। मैं रह रहकर अपने आपको बताता रहता हूँ कि मैं तो मिट्टी ही था, परमेश्वर ने मुझे अपने काम का बर्तन बनाया है और जैसे वो चाहे इसे इस्तेमाल कर सकता है क्योंकि उसने अपने प्राणों की कीमत चुकाकर मुझे खरीद लिया है। यह बर्तन की नहीं परंतु उसके बनाने वाले और इस्तेमाल करने वाले के गुण हैं जिनकी प्रशंसा हो, क्योंकि वही महत्वपूर्ण है।


मैं यहाँ एक उदाहरण देकर बताना चाहता हूँ कि परमेश्वर किस प्रकार हमें जहाँ भी हम हों, हमें अपनी महिमा के लिये इस्तेमाल करता है, और बदले में हमें ही आशीष भी दे सकता है। आप ये भी देखेंगे कि सुसमाचार बताकर किसी को मसीह के प्रेम में लाने के लिये हमें समय देने, धैर्य रखने और विश्वास के साथ पवित्र प्रेम दिखाने की आवश्यकता पड़ती है।


***


गवाहियों द्वारा उद्धार

(उदाहरण – प्रेरणा का उद्धार)


सन 1998-99 में, रूड़की में अपनी पढ़ाई के दौरान, मुझे मौका मिला कि अपनी एक सहपाठिन के साथ मैं प्रभु के प्यार की खुशखबरी बाँट सका। उसका नाम प्रेरणा है। वो बौद्ध परिवार से सम्बंध रखती थी। यूँ तो बौद्ध धर्म के मानने वाले मध्यम मार्ग पर चलते हुए निर्वाण प्राप्त करने में विश्वास करते हैं और मूर्ति-पूजा नहीं करते लेकिन वो मन्दिर में पूजा भी किया करती थी और व्रत भी रखती थी।


मेरा जीवन सिद्ध (परफेक्ट) नहीं था और न ही मैं इस बात का इंतज़ार कर सकता था, बस मैंने स्पष्ट रीति से अपना विश्वास और उद्धार की परमेश्वर की योजना के बारे में उसे बताया।


मेरी हरेक बात को वो बड़े धैर्य के साथ सुनती थी पर सही मायने में किसी बात पर विश्वास नहीं करती थी। वो मेरे विश्वास की कद्र करती थी पर उसमें खुद विश्वास करने की उसकी कोई इच्छा नहीं होती थी। उसकी सोच थी कि यीशु मसीह ईसाईयों के ईश्वर हैं जैसे कि उसके अपने कई भगवान थे और हम सबको अपने अपने तरीके से ईश्वर की आराधना करने की स्वतंत्रता है।


वो ये भी सोचती थी कि यीशु अन्य सभी ईश्वरों में से एक ईश्वर थे और मानती थी कि चाहे उसे किसी भी नाम से पुकारा जाए, राम, अल्लाह या यीशु, बात एक ही है। मैं नाम के विषय में तो बहस नहीं करता था परंतु मेरी प्रार्थनाओं के उत्तर मिलने की गवाही से और प्रभु के निरंतर मेरे साथ होने के अलग अहसास से मैंने उसे अंतर दिखाया। मैंने उसे बताया कि ईश्वर एक ही है और हम अपने बनाये तरीकों से उस तक नहीं पहुँच सकते अपितु प्रभु यीशु ही एकमात्र मार्ग है जिनके द्वारा उस तक पहुँचा जा सकता है क्योंकि सिर्फ यीशु मसीह ने ही हमारे पापों की कीमत चुकाई है।


मैंने उसे बताया कि ये धर्म की बात नहीं थी बल्कि परमेश्वर की बात थी। यहाँ तक कि प्रभु यीशु भी धर्म में रूचि नहीं लेते थे जबकि उनका जन्म यहूदी परिवार में हुआ था। बल्कि वो उन पाखण्डी धर्मगुरूओं के तरीकों का खण्डन करते थे जो कहते कुछ और थे और करते कुछ और।
मैं हॉस्टल में उसके लिये प्रार्थना किया करता था।


मेरी बातों की तुलना में, वह परमेश्वर में मेरी अटूट आस्था से प्रभावित होती थी थी और सोचती थी कि कैसे मेरी प्रार्थनाओं के उत्तर मिलते थे। उसने भी एक बार बिना मुझे बताये यीशु मसीह के नाम से प्रार्थना की और उसे तुरंत उत्तर मिले और उसे पता चल गया कि प्रभु यीशु प्रार्थनाओं के उत्तर देने वाले ईश्वर है। और भी कुछ ऐसी घटनाएँ हुईं जिनसे उसे विश्वास हो गया कि यीशु मसीह परमेश्वर का पुत्र है और स्वयं परमेश्वर है।


हम लोग हर रोज रात 8 बजे मिलकर मेरी गिडियन बाइबल से पढ़ने लगे और साथ साथ में विश्वास में बढ़ने लगे।


सितम्बर 2000 में उसने पानी का बपतिस्मा लेकर अपने विश्वास तथा जीवन परिवर्तन की गवाही दी और पुराने तौर-तरीके छोड़कर प्रभु यीशु को विश्वास के द्वारा अपने जीवन का स्वामी करके स्वीकार किया।


आज वो आत्मा में नया जन्म पाई हुई प्रभु यीशु की विश्वासी है जो अपने ह्रदय, बुद्धि और बल से परमेश्वर से प्रेम करती है। अब वो मेरी पत्नी है और मैं प्रभु का धन्यवाद करता हूँ कि परमेश्वर की दया से हम एक अच्छा, संतुलित मसीही परिवार बन सके हैं जिससे कई लोगों को प्रेरणा मिलती है।


***


प्रेरणा और मै मसीही विश्वास में साथ साथ बढ़े। ऊपर लिखे सारे सिद्धांत हमने साथ ही सीखे और अपने जीवन में लागू किये। परमेश्वर हमेंशा हमारे साथ दयावंत रहा है और अपनी विश्वासयोग्यता के अनुसार हमारे जीवन में आश्चर्यकर्म (चमत्कार) करता रहा है तथा अपनी महिमा हर प्रकार से उसने हमारे जीवन में प्रकट की है। उसने हमें सिखाया कि कैसे हम उसकी नजर से सभी बातों को देख सकें और सही निर्णय ले सकें।


हमारे घर का यह अलिखित नियम है कि हमारे घर में आने वाला हरेक व्यक्ति सुसमाचार सुनकर ही बाहर जाए। चाहे वह व्यक्ति हमारा सहकर्मी हो, रिश्तेदार हो, दूधवाला हो, पानी पहुँचाने वाला, सफाईवाला, अख़बारवाला, सफाईवाली महरी या पासपोर्ट पूछताछ के लिए आया पुलिसवाला, हमने सबको अपना प्रेम दिखाया और परमेश्वर का मार्ग बताया। हम सोचते हैं कि उनमें से कईयों को (जो विश्वास करेंगे) हम स्वर्ग में देख पायेंगे।


हमने अपने घराने में भी आत्मा के उद्धार का सुसमाचार पहुँचाया है और मसीह के प्रेम के बारे में बताने में हम कभी शरमाते नहीं हैं। कुछ तो विश्वास करने लगे हैं और कुछ अभी मशक्कत कर रहे हैं कि इसपर विश्वास कर सकें। कुछ बेअसर हैं तो कुछ विरोध में, पर हम आश्वस्त हैं कि परमेश्वर अपनी करूणा में सबको स्वर्ग के राज्य के लिए तैयार करेंगे। हम निरंतर प्रार्थना करते हैं और अपनी जीवन की गवाहियां बताते रहते हैं।


हम अपना काम करें और वो अपना करेगा। हमारा परमेश्वर महान है और सब बातों में सामर्थी है। परमेश्वर हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। हमने सेंतमेंत (मुफ्त में) पाया है तो आइये, हम सेंतमेंत दें भी।